
ललित गर्ग
जैन धर्म में पर्युषण महापर्व का अपना विशेष महत्व है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आत्मा की गहराइयों तक जाने का, आत्मनिरीक्षण करने का और आत्मशुद्धि का अनूठा पर्व है। जैन संस्कृति ने सदियों से इस पर्व को आत्मकल्याण, साधना और तपस्या का महान माध्यम बनाया है। ‘पर्युषण’ का शाब्दिक अर्थ है-अपने भीतर ठहरना, आत्मा में रमना, आत्मा के समीप होना। इस वर्ष अन्तःकरण की शुद्धि का यह महापर्व 20 से 27 अगस्त, 2025 को मनाया जा रहा है, इन आठ दिनों में हर जैन अनुयायी अपने तन और मन को साधनामय बना लेता है, मन को इतना मांज लेता है कि अतीत की त्रुटियां को दूर करते हुए भविष्य में कोई भी गलत कदम न उठे। इस पर्व में एक ऐसा मौसम ही नहीं, माहौल भी निर्मित होता है, जो हमारे जीवन की शुद्धि कर देता है। इस दृष्टि से यह पर्व आध्यात्मिकता के साथ-साथ जीवन उत्थान का पर्व है, यह मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमंे आत्मा की उपासना करते हुए जीवन को शांत, स्वस्थ एवं अहिंसामय बनाया जाता है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है।
जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। इसमें जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठान से जीवन को पवित्र किया जाता है। यह अंर्तआत्मा की आराधना का पर्व है- आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को हटाकर इन आठ दिनों विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित करते हुए अंर्तआत्मा में लीन हो जाए जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।
पर्युषण का एक अर्थ है-कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह पर्युषण-पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है। यह आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केन्द्रीय तत्त्व है, वह है-आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। अध्यात्म यानि आत्मा की सन्निकटता। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है। पर्युषण पर्व जैन एकता का प्रतीक पर्व है। दिगंबर परंपरा में इसकी ‘‘दशलक्षण पर्व’’ के रूप मंे पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्र व शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्र व शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है। जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है। वर्ष भर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
पर्युषण पर्व मनाने के लिए भिन्न-भिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। आगम साहित्य में इसके लिए उल्लेख मिलता है कि संवत्सरी चातुर्मास के 49 या 50 दिन व्यतीत होने पर व 69 या 70 दिन अवशिष्ट रहने पर मनाई जानी चाहिए। दिगम्बर परंपरा में यह पर्व 10 लक्षणों के रूप में मनाया जाता है। यह 10 लक्षण पर्युषण पर्व के समाप्त होने के साथ ही शुरू होते हैं। यह पर्व जैन अनुयायियों के लिए संयम, साधना और आत्मसंयम का विशेष अवसर लेकर आता है। इन दिनों में जैन समाज उपवास, प्रतिक्रमण, पाठ, स्वाध्याय, सामायिक, ध्यान और पूजा के माध्यम से आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। घर-घर में धार्मिक वातावरण बनता है और हर व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को सुधारने का प्रयत्न करता है। पर्युषण पर्व का मुख्य उद्देश्य है आत्मा को कर्मों की परतों से मुक्त करना। जीवन में चाहे जितनी भी व्यस्तता हो, इन दिनों में हर जैन श्रावक-श्राविका अपने जीवन की गति को धीमा कर आत्मचिंतन करता है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि बाहरी सुख-सुविधाएँ क्षणिक हैं, वास्तविक सुख भीतर है और आत्मा की शुद्धि में ही है। जब व्यक्ति अपने भीतर झाँकता है तो उसे अपने दोष, अपने अपराध और अपनी कमजोरियों का बोध होता है। इसी बोध से क्षमा और आत्मपरिवर्तन की भावना उत्पन्न होती है।
पर्युषण पर्व के अंतिम दिन ‘क्षमावाणी’ का आयोजन होता है, जिसे ‘क्षमा दिवस’ भी कहा जाता है। इस दिन हर व्यक्ति अपने परिचितों, रिश्तेदारों, मित्रों और यहां तक कि शत्रुओं से भी यह कहता है-“मिच्छामि दुक्कडम्” अर्थात् यदि मुझसे किसी को भी मन, वचन या शरीर से कोई पीड़ा पहुँची है तो मैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। इस प्रकार क्षमा माँगने और क्षमा करने की परंपरा से समाज में सद्भाव, प्रेम और मैत्री का वातावरण बनता है। पर्युषण पर्व आत्मसंयम और आत्मिक साधना का गहन अभ्यास है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य केवल भोग-विलास और सांसारिक उपलब्धियाँ नहीं हैं, बल्कि आत्मा का उत्थान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर होना है। यही कारण है कि इन दिनों में लोग केवल धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन ही नहीं करते, बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी सात्त्विकता, करुणा, अहिंसा और सहअस्तित्व को अपनाने का प्रयास करते हैं। यह पर्व हर जैन साधक के लिए एक आत्मयात्रा है। तप, संयम, स्वाध्याय और क्षमा की साधना से वह स्वयं को नया जन्म देता है।
पर्युषण पर्व एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है‘‘‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’’-‘श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन ! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो। भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’ सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्त्व पर्युषण महापर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से इस महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्म-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले- यही पयुर्षण की साधना का हार्द है। हिंसा से किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हिंसा से समाधान चाहने वालों ने समस्या को अधिक उकसाया है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं आम-जन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करे। परलोक सुधारने की भूलभुलैया में प्रवेश करने से पहले इस जीवन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। धर्म की दिशा में प्रस्थान करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही इस पर्व की सार्थकता का आधार है, प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। वर्तमान की आंख से अतीत और भविष्य को देखते हुए कल क्या थे और कल क्या होना है इसका विवेकी निर्णय लेकर एक नये सफर की शुरुआत की जाती है। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी-द्वेष, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई है और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवन शैली का प्रयोग है।