विश्वास की राजनीति बनाम अविश्वास की रणनीति!

Politics of trust vs. strategy of distrust!

सोनम लववंशी

भारतीय लोकतंत्र का आधार जनता का विश्वास है। जनता जब अपना मत देती है, तब वह केवल किसी दल या व्यक्ति को नहीं चुनती, बल्कि वह देश की दिशा और नेतृत्व के प्रति अपने भरोसे को स्थापित करती है। परंतु बीते कुछ वर्षों में कांग्रेस और विशेषतः राहुल गांधी का जो राजनीतिक आचरण सामने आया है, वह इस विश्वास की बुनियाद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हार मिलने पर चुनाव आयोग पर अविश्वास, ईवीएम पर संदेह और जनता के निर्णय को ‘भ्रमित’ या ‘कपटपूर्ण’ बताने की प्रवृत्ति केवल राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं है, लोकतांत्रिक आस्था के मूल ढांचे पर प्रहार है। यह बात और गंभीर इसलिए हो जाती है क्योंकि कांग्रेस स्वतंत्र भारत की वह पार्टी है, जिसने स्वयं लोकतंत्र और संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया को कभी नेतृत्व दिया था। वही पार्टी आज उन संस्थाओं की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाने की राजनीति को अपने अस्तित्व बचाने का माध्यम बना चुकी है।

2014 के बाद से पराजय का सिलसिला कांग्रेस के लिए हैरानी का नहीं, आत्ममंथन का विषय होना चाहिए था। परंतु आत्ममंथन की वह संस्कृति, जो कभी कांग्रेस की पहचान हुआ करती थी, अब उसका स्थान आरोपों और शंकाओं ने ले लिया है। राहुल गांधी और पार्टी नेतृत्व ने बार-बार कहा कि ईवीएम मशीनों के माध्यम से चुनाव परिणाम प्रभावित किए जा रहे हैं, लोकतंत्र पर कब्ज़ा हो चुका है, जनता की इच्छा को नियंत्रित किया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि यही ईवीएम तब कैसे निष्पक्ष और विश्वसनीय हो जाती है जब कांग्रेस कर्नाटक, झारखंड, हिमाचल या छत्तीसगढ़ में जीत दर्ज करती है? क्या लोकतंत्र केवल वहीं जीवित है जहाँ कांग्रेस को बहुमत मिले? और यदि ऐसा नहीं है, तो फिर पराजय के समय मशीनों को कटघरे में खड़ा करना राजनीतिक ईमानदारी की किस श्रेणी में आता है?

सत्य यह है कि कांग्रेस की रणनीति अब विचार आधारित राजनीति से हटकर भावनात्मक संशय पैदा करने वाली राजनीति में बदल चुकी है। यह रणनीति नई नहीं है। जब किसी दल को लगता है कि उसके पास जनता से संवाद के ठोस मुद्दे नहीं बचे हैं, तब वह जनता के विश्वास और निर्णय क्षमता को संदेह के घेरे में लाकर अपनी राजनीतिक असफलता की जिम्मेदारी से बचना चाहता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे एक छात्र परीक्षा में असफल होने पर प्रश्नपत्र को दोष दे, शिक्षक को दोष दे, व्यवस्था को दोष दे, लेकिन अपने स्वयं के अध्ययन और तैयारी पर बात न करे। राजनीति में भी हार का कारण संगठन, नेतृत्व, नीतिगत अस्पष्टता और जनता से दूरी में खोजा जाना चाहिए। पर जब यह साहस न रह जाए, तब आरोप ही सबसे आसान हथियार बन जाते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि राहुल गांधी ने ईवीएम के आरोपों के समर्थन में न कभी कोई तकनीकी प्रमाण प्रस्तुत किया, न वैज्ञानिक जाँच की कोई पहल की, और न ही चुनाव आयोग द्वारा दिए गए खुले परीक्षण और चुनौती कार्यक्रमों में भाग लिया। केवल मंचों से कहा गया कि लोकतंत्र ख़त्म हो चुका है। मंचों की भाषण कला और लोकतंत्र की वास्तविक संरचनाएँ दो अलग क्षेत्रों की चीजें हैं। एक देश की संस्थाओं, न्यायपालिका, चुनाव प्रक्रिया और प्रशासनिक ढांचे को मात्र राजनीतिक नारों के आधार पर अविश्वसनीय नहीं बनाया जा सकता। यह प्रवृत्ति देश के मतदाता, उसके विवेक और उसकी चेतना को कमतर आँकती है।

और यही वह बिंदु है जो सबसे अधिक चिंताजनक है। जब कोई दल जनता के निर्णय को स्वीकारना सीखना छोड़ देता है, तभी लोकतंत्र की आत्मा पर खतरा पैदा होता है। क्योंकि लोकतंत्र केवल चुनाव परिणाम का नाम नहीं है, यह उस मानसिकता का नाम है जो जनता को अंतिम और सर्वोच्च मानने की शक्ति देता है। यह मानसिकता जब दलों में क्षीण हो जाती है, तब लोकतंत्र कमज़ोर होने लगता है। विडंबना यह है कि कांग्रेस लोकतंत्र की रक्षा की बात ज्यादा करती है, पर उसके आचरण में लोकतंत्र का वह मूल संस्कार कम दिखाई देता है, जो जनता के निर्णय को गरिमा के साथ स्वीकार करना सिखाता है। आज कांग्रेस की स्थिति उस राजनेता की तरह है, जिसने जनता को समझना बंद कर दिया है और जनता को समझाने का द्वार भी खो दिया है। जब नेतृत्व जनता के जीवन के वास्तविक मुद्दों से दूर हो जाए, जब संगठन केवल नारे और प्रतीकों पर निर्भर हो जाए, जब विचारधारा केवल अतीत के रोमांस तक सीमित रह जाए, तब जनता का विश्वास लौटकर नहीं आता। विश्वास उसी के पास जाता है जो जनता को समझने का श्रम करता है, उसके द्वार तक जाता है, उसके जीवन की धड़कन सुनता है।

कांग्रेस आज अपने इतिहास के सबसे कठिन मोड़ पर खड़ी है। उसे यह निर्णय करना होगा कि वह जनता से संवाद के मार्ग पर लौटेगी या आरोपों और शंकाओं की राजनीति को ही आगे बढ़ाएगी। समय यह बता चुका है कि जनता को प्रभावित करने के साधन बदल गए हैं, पर जनता की चेतना पहले से कहीं अधिक प्रखर हुई है। यह जनता अब नेतृत्व को उसकी भाषा से नहीं, उसके आचरण से परखती है। लोकतंत्र में हार स्थायी नहीं होती। परंतु हार को स्वीकार न करने की प्रवृत्ति दलों को स्थायी पतन की ओर ले जाती है। कांग्रेस के लिए अभी भी समय है कि वह जनता के निर्णय को समझने की विनम्रता और स्वयं को सुधारने का धैर्य विकसित करे। लोकतंत्र उसी के पक्ष में खड़ा होता है, जो जनता पर विश्वास रखता है। और जनता उसी के साथ जाती है, जो उसे सम्मान देता है।