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सुनील कुमार महला
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए व्यक्ति को उसके कार्यों के लिए निंदा/आलोचना का शिकार भी करना पड़ता है तो कभी उसको समाज से प्रशंसा भी मिलती है। जीवन एक चक्र है, कभी अच्छा तो कभी बुरा, व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक अनुभवों से रूबरू होना पड़ता है। इसलिए व्यक्ति को समाज में रहते हुए यह चाहिए कि प्रशंसा और निंदा दोनों पर ही ध्यान दें। भक्तिकाल के कवि कबीर दास एक महान संत थे, उन्होंने भी निंदा के बारे में गंभीर बात कही है। उन्होंने कहा था कि -‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति हमारी निंदा करता है, जो व्यक्ति हर समय हमारे भीतर कमियां तलाशता है, उसे हमेशा अपने पास रखना चाहिये। क्योंकि एक वही व्यक्ति है जो बिना साबुन या बिना पानी के हमारे स्वभाव को निर्मल बना सकता है। मतलब यह है कि वह व्यक्ति हमारे भीतर की हर कमी को दूर कर सकता है।जब कोई व्यक्ति हमें हमारी कमियां नहीं बताएगा तो हमारे स्वभाव में सुधार कैसे संभव हो सकता है ? यह मानव का स्वभाव है कि वह हमेशा उन लोगों के साहचर्य में रहना पसंद करता है, जो उसके अत्यंत प्रिय होते हैं, जो उस व्यक्ति विशेष की हमेशा तारीफ और प्रशंसा करते हैं या हमारे भीतर सिर्फ गुण ही खोजते हैं। आदमी हमेशा अपनी प्रशंसा, तारीफ, श्लाघा या बड़ाई में प्रसन्न रहता है, वह इससे परे कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन निंदा हमारे व्यवहार को परिष्कृत करने का काम करती है। वह हमारे व्यवहार को मांजती है, उसे शुद्ध करती है।आज प्रशंसा पाने के चक्कर में हमारा जीवन लगातार बोझिल बनता चला जा रहा है। हमें यह चाहिए कि हम प्रशंसा के चक्कर में अपने जीवन को बोझिल न बनने दें। आज व्यक्ति हर कार्य में दूसरों से शाबाशी पाना चाहता है। व्यक्ति की अपेक्षाएं बहुत होतीं हैं। अपेक्षाएं जीवन को कष्टकारी बना देतीं हैं। इसलिए किसी से भी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। जो ज्यादा अपेक्षाएं रखता है, वह व्यक्ति जीवन में एक प्रकार से दुःख को जन्म देता है। यह ठीक है कि प्रशंसा हमारे लिए उत्साहवर्धन का काम करतीं हैं लेकिन हमें यह चाहिए कि हम प्रशंसा पाने के लिए कभी भी व्याकुल न रहें। हम अपने विचारों से खुद पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं।एक कहावत है कि जैसा मनुष्य अपने हृदय में विचार करता है, वैसा ही वह बन जाता है। हम जीवन में कड़वा भी सुनें, आलोचनाओं को भी सहृदयता से स्वीकार करना सीखें। याद रखिए एक डाक्टर हमें कड़वी दवा देता है ताकि हमारा मर्ज ठीक हो सके। वह हमें कड़वी दवा इसलिए नहीं देता है कि वह हमारा दुश्मन है। उसकी कड़वी दवाई में ही हमारा भला छिपा होता है, इसलिए आलोचना भी एक कड़वी दवाई की तरह ही है, जो हमारे जीवन को कहीं न कहीं संवारने का, उसे अच्छा बनाने का काम करती है। आखिर हम हर पल यह क्यों चाहते हैं कि हरदम हमारी पीठ थपथपाई जाए, हमारी प्रशंसा की जाए और दूसरे हमारी सराहना करते रहें। आज व्यक्ति का यह स्वभाव हो गया है कि वह दूसरों की शाबाशी पाने की अन्धी होड़ में स्वयं की मूल भावनाओं का गला घोंटने में लगा रहता है, जबकि वह व्यक्ति यह बेहतर तरीके से जानता और समझता है कि दूसरों की शाबाशी को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना केवल स्वयं को झूठी तसल्ली देना और अपने साथ धोखा करना ही तो है। वास्तव में हमें स्वयं से हमेशा संतुष्ट होना चाहिए। आज हमें जरूरत इस बात की है कि हम अपने अंदर इस चेतना को विकसित करें कि हम इस ब्रह्मांड के सम्राट की संतान हैं और अपने परम पिता परमेश्वर के सबसे प्रिय। उस परम पिता परमेश्वर ने हमें सबकुछ दिया है और इसके लिए हमारे व्यवहार में उसके प्रति कृतज्ञता का भाव झलकना चाहिए। वास्तव में,कृतज्ञता का भाव रखने का मतलब है नियमित रूप से बड़ी और छोटी चीज़ों के लिए आभार व्यक्त करने की सचेत आदत बनाना। लुईस होवेस कहते हैं कि ‘अगर आप इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि आपके पास क्या है, तो आपके पास हमेशा अधिक होगा। अगर आप इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि आपके पास क्या नहीं है, तो आपके पास कभी भी पर्याप्त नहीं होगा।’ लुईस होवेस का यह कथन ग़लत नहीं है, बिल्कुल सही है, क्यों कि इस ब्रह्मांड में जो ऊर्जा हम छोड़ते हैं, वही ऊर्जा तो रिफ्लेक्ट होकर हमें वापस मिलती है। इसलिए हम कृतज्ञ बनें और इस बात को अपने हृदय में महसूस करें कि जो कुछ भी हमारे पास है, वह दूसरों के पास नहीं है। कहना ग़लत नहीं होगा कि हम अपने जीवन में कभी भी किसी चीज के लिए भीख नहीं मांगें, बल्कि यह विचार रखें कि हमारे पास पहले से ही सब कुछ है। हमें उस परम पिता परमेश्वर के समक्ष उस बच्चे की तरह रहना चाहिए, जो अपने माता-पिता के समक्ष सुरक्षित होकर सुखपूर्वक और आत्मविश्वास के साथ सभी भय को त्याग देता है। जीवन में हरेक मनुष्य के लिए कृतज्ञता का भाव रखना बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्यों कि यह कृतज्ञता ही है जो हमारी मानसिकता को बदल देती है। वास्तव में हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि प्रशंसा हमें बेहतर नहीं बनाती, न ही निंदा हमें कभी बदतर बनाती है। जब लोग हमारी प्रशंसा करते हैं, तो उससे मुग्ध होने के बजाय हमें यह चाहिए कि हम खुद का, स्वयं का सावधानीपूर्वक अवलोकन करें। दूसरी ओर, जब लोग हमारी निंदा करें, तो उसका हमें बुरा नहीं मानना चाहिए, बल्कि हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारे अंदर ऐसी कौन-सी बात है, जिसको हम सुधार सकते हैं।मेलोडी बीट्टी ने क्या खूब कहा है कि ‘कृतज्ञता हमारे पास जो कुछ भी है उसे पर्याप्त और उससे भी अधिक बना देती है। यह इनकार को स्वीकृति में, अव्यवस्था को व्यवस्था में, भ्रम को स्पष्टता में बदल देती है… यह हमारे अतीत को समझने में मदद करती है, आज के लिए शांति लाती है और कल के लिए दृष्टि बनाती है।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि आभारी होने से हमारा आत्मविश्वास, आत्म-सम्मान बढ़ता है, और वर्तमान क्षण का आनंद बढ़ता है। हम अपने जीवन के हर पहलू के लिए आभारी हो सकते हैं, जिसमें वे हिस्से भी शामिल हैं जो अच्छे चल रहे हैं और वे जो अच्छे नहीं चल रहे हैं। वास्तव में हमें यह चाहिए कि हम अपने जीवन में नकारात्मक बातों पर ध्यान देने के बजाय सकारात्मक बातों का अधिकाधिक विस्तार करें। प्रतिदिन आभारी महसूस करने से हमारी सकारात्मकता बढ़ती है, जिसका असर हमारे सामने आने वाले अन्य लोगों पर भी पड़ता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। दूसरों में दोष निकालना और खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। निंदा करने से हमारे मन में अशांति व्याप्त होती है और हम हमारा जीवन दुःखों, कष्टों , परेशानियों से भर लेते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है। दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है। अतः निंदा और प्रशंसा दोनों ही जीवन के महत्वपूर्ण और अहम् पहलू हैं।