त्वरित विश्लेषण : मप्र में टाइगर बहुत फुर्तीला है पूरे हिन्दी पट्टी में भाजपा की बल्ले-बल्ले

ऋतुपर्ण दवे

निश्चित रूप से 3 दिसंबर को आए 4 विधानसभा चुनावों के नतीजों से अगर सबसे ज्यादा किसी में उत्साह होगा तो वह है भाजपा। उसमें भी मध्यप्रदेश के नतीजों ने तो जैसे भाजपा के उत्साह में सुनामी ला दी। अब भले ही नतीजों को लेकर भाजपा कहे कि हमें यही उम्मीद थी लेकिन हकीकत यही है कि शायद ही ऐसा सोचा होगा। बहरहाल यह मोदी मैजिक ही था जिसने हिन्दी पट्टी वाले राज्यों में विपक्ष या कहें कि नवगठित इण्डिया गठहबन्धन के लिए बहुत ही बड़ी चुनौती दे दी। माना कि मध्यप्रदेश में लाड़ली बहना योजना ने कमल के लिए कमाल का काम किया। लेकिन छत्तीसगढ़ में आखिर ऐसा क्या हुआ जो गाय, गोबर, गोठान, महतारी योजना, आत्मानन्द स्कूलों के बाद भी नतीजे एकदम उम्मीद से इतर आए?जबकि राजस्थान में जादूगर अशोक गलतोत का चलते दिख रहे जादू पर भाजपा का जादू भारी पड़ गया। वहीं तेलंगाना में कांग्रेस को झोली में उम्मीद से ज्यादा हासिल मिला। शायद भारत की यही विविधता है।

विश्लेषण के लिहाज से इन नतीजों के मायने काफी गहरे होंगे जिसे 2024 के आम चुनाव से जोड़ा जाएगा। चारों नतीजों में सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश की ही चर्चा होगी जिसे संघ की प्रयोगशाला भी कहा जाता है। जहां बढ़े मतदान के बाद तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे। चुनावी घोषणा और चुनावों के दौरान जिस तरह से एन्टीइन्कम्बेंसी की बात फैली उसको लेकर उत्साही कांग्रेसियों के बाग-बाग चेहरे देखकर ऐसे नतीजों की उम्मीद तो हरगिज नहीं थी। लेकिन एक सच्चाई है जिसे स्वीकारना होगा कि मध्यप्रदेश में जिस शिवराज सिंह को लेकर शुरुआत में एक तरह से ऊहापोह की स्थिति बनी और कई तरह के संदेश फैलेया फैलाए गए। उसे शिवराज ने अपने जादू से ऐसा धोया कि आज वो एक बार फिर अजेय बनकर भाजपा के सबसे अहम चेहरा बन गए। उन्हें एकदम से दरकिनार नहीं किया जा सकता था। समूचे मध्यप्रदेश ने शिवराज सिंह की जो मेहनत, जनता से सीधा संवाद व जुड़ाव देखा व ताबड़तोड़ दौरे देखे उससे उनकी छवि बेहद अलग बनी और वो मजबूत होते चले गए। अपराधियों खासकर महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के उत्पीड़न करने वालों को तुरंत सजा देने का बुलडोजर वाला तरीका भी लोगों को खूब भाया। दरअसल उन्होंने अपने तौर तरीकों में 2018 के चुनावों में पिछड़ने के बाद ही काफी तब्दीली कर ली थी। उनका एक-एक दांव बहुत सोचा समझा और दूर की कौड़ी साबित हुआ। चाहे लाड़ली लक्ष्मी योजना हो या कन्या विवाह या फिर महिला आरक्षण और मेघावी विद्यार्थियों को लैपटॉप, स्कूटी का प्रोत्साहन। हर कहीं शिवराज ने खूब लोकप्रियता लूटी। प्रदेश में मामा बनकर उन्होंने आम और खास सभी से जो कनेक्ट किया उसका नतीजा आज सामने है।

बेशक लाड़ली बहना योजना ने मध्यप्रदेश में एक अण्डर करंट पैदा किया जिसे समूचा विपक्ष भी नहीं समझ पाया। अस्तित्व में आने के बाद से प्रदेश के अब तक के सारे के सारे मुख्यमंत्रियों से अलग उनकी मेहनतकश छवि और हर दौरेने उन्हें मजबूत किया जिसे कोई भांप नहीं पाया। यह भी सही है कि मोदी की लोकप्रियता मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए बड़ा टॉनिक थी। लेकिन इस बात को स्वीकारना ही पड़ेगा यदि मोदी मध्यप्रदेश के इस चुनाव में भाजपा के लिए खरा सोना थे तो शिवराज सुहागा से कम नहीं रहे। नतीजे सामने हैं दोनों को मिलाकर भाजपा के लिए सोने में सुहागा हो गया।

निश्चित रूप से भाजपा मध्यप्रदेश में 18 बरसों की एन्टीइन्कम्बेन्सी को धोने तो छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की आपसी कलह और संगठन में बिखराव व दुराव का भरपूर फायदा ले गई और नतीजे अप्रत्याशित आए। इसके साथ ही सांसदों और केन्द्रीय मंत्रियों को उतारने से भाजपा ने एक तीर से कई निशाने भी साधे। हालाकि कुछ असफलताएं भी हाथ लगीं लेकिन बड़ी सफलता के आगे इक्का-दुक्का महत्वपूर्ण असफलता बौनी हो जाती है।भाजपा के कई दिग्गजों को हार का सामना देखना पड़ा लेकिन ईमानदारी से बात की जाए तो इसमें भी भावी सरकार के लिए कांटे साफ होने जैसे बड़े संदेश छुपे हैं। आज मध्यप्रदेश के नतीजों के बाद शिवराज सिंह का वो बयान बार-बार याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि टाइगर अभी जिन्दा है। लेकिन सच तो ये है कि टाइगर बहुत फुर्तीला है। कहने की जरूरत नहीं कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री के प्रबल और पूरे 5 वर्षों के लिए दावेदार हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में सम्मानजनक स्थिति के बाद फैसला केन्द्रीय नेतृत्व के हाथों होगा। कमोवेश यही स्थिति राजस्थान में होगी। वहां वसुन्धरा या कोई और का सवाल अभी कई दिनों तक रहेगा। एक अकेले तेलंगाना में कांग्रेस को मुख्यमंत्री तय करने में कैसी चुनौती आएगी नहीं पता लेकिन इतना तो है कि गिरे मनोबल से वहां इस बार पुरानी चूकें नहीं दोहराई जाएंगी।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने भी सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए कोशिशें नहीं कीं। परन्तु सच्चाई यही है कि कांग्रेस संगठनात्मक तौर पर भाजपा के मुकाबले 19 नहीं बल्कि 8-10 ही रही। बरसों पुराने कार्यकर्ता, नई टीम का आभाव, लोगों से जुड़ाव पर ध्यान नहीं देना, हर गांव, शहर के छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भोपाल कनेक्ट दिखाना और प्रदेश के कई नेताओं के अनजान कस्बों में लगे होर्डिंग से कांग्रेस वैसा कनेक्ट नहीं कर पाई जो स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता नगर, वार्ड, बूथ और पन्ना प्रमुख कर सके।

बस यही वो तमाम कारण थे जिस कारण कांग्रेस जनता से कनेक्ट नहीं कर पाई। उल्टा सरकार विरोधी लहर के जुमले के सहारे मनगढ़ंत और झूठे सपने देख बड़े-बड़े ख्वाब देखना तथा प्रदेश चुनाव संचालन को दिल्ली की टीम के हवाले करना भी कांग्रेस को इतना मंहगा पड़ गया कि 2018 के आंकड़ों से भी पिछड़ गई और भाजपा 2003 जैसे सम्मानजनक स्थिति में पहुंच गई। लेकिन एक बात तो है कि हिन्दी पट्टी वाले राज्य जहां भाजपा पर भरोसा जताते हैं तो दक्षिण कांग्रेस व अन्य पर। ऐसे में देश में उत्तर-दक्षिण की नई बात जरूर होगी। फिलाहाल इण्डिया गठबन्धन की 6 दिसंबर की बैठक पर निगाहें हैं लोग यह कहने से भी नहीं चूकते हैं कि दिन कौन सा है? जुड़ाव का या विध्वंश का?बहरहाल अभी इस गठबन्धन का बिखराव का नतीजा सामने है। आगे बहुत कुछ और दिखेगा। किन-किन राज्यों में सपा, बसपा और आप ने किस-किस को कितना नुकसान पहुंचाया और किसकी जीत-हार का अन्तर कम किया। किसको जीतने से रोका तथा किसने अनजाने या जानबूझकर भाजपा-कांग्रेस को जीत या हार दिलाई जैसी चर्चाएं और डिबेट आगे बहुत दिखेंगे। बहरहाल अभी तो भाजपा ही सिवाय तेलंगाना के अजेय दिखती है और हिन्दी पट्टी में ऐसी जीत के बहुत बड़े मायने हैं। अब मध्यप्रदेश में ताज तो शिवराज के माथे तय लगता है क्योंकि अभी टाइगर बहुत फुर्तीला है लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ताज किसके माथे होगा यही देखने लायक होगा।