अनिल जैन
सोशल मीडिया पर तीन दिन से छाए राष्ट्रीय शोक और लिखे जा रहे स्मृतिशेष का कुल मिलाकर सार यही है कि एनडीटीवी देश में लोकतंत्र का एकमात्र पहरुआ था और अब औपचारिक रूप से उसके बिक जाने से भारत में पत्रकारिता की मृत्यु हो गई है। यह स्थिति बताती है कि या तो हिंदी पट्टी के समाज की पढ़ने की आदत लगभग खत्म हो चुकी है या फिर वह सिर्फ टेलीविजन पत्रकारिता को ही पत्रकारिता समझता है जो कि एकता कपूरी टीवी सीरियलों की तर्ज पर होती है। ऐसे समझदारों की सेवा में निवेदन है कि भारत में टीवी पत्रकारिता शुरू होने से पहले भी पत्रकारिता हो रही थी और सेटेलाइट चैनलों की शुरुआत के बाद भी वास्तविक पत्रकारिता अखबारों के जरिए ही होती रही है।
आज जब लगभग सभी बडे़ अखबार सत्ता के ढिंढोरची बन चुके हैं, तब भी पत्रकारिता हो रही है। न्यूजक्लिक, सत्य हिंदी, जनचौक, द वायर, जनज्वार आदि कई बेहतरीन समाचार पोर्टल और यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, जो हर तरह की जोखिम उठा कर सत्ता की समाजद्रोही कारगुजारियों को मुखरता के साथ उजागर कर रहे हैं। छोटे शहरों और कस्बों से सीमित संसाधनों के सहारे निकलने वाले छोटे समाचार पत्र और पत्रिकाएं भी अपने स्तर पर यही काम कर रहे हैं और उसकी कीमत भी चुका रहे हैं। राना अयूब ने कई तरह के खतरे उठाते हुए गुजरात के नरसंहार पर जो काम किया है, क्या उसका मुकाबला कोई टीवी ‘पत्रकार’ कर सकता है? स्मृतिशेष विनोद दुआ को आखिर किस बात के लिए देशद्रोह के फर्जी मुकदमे का सामना करना पड़ा था? केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को किस अपराध में दो साल तक जेल में रहना पड़ा?
ये चंद नाम तो महज बानगी हैं। ऐसे और भी कई पत्रकार हैं जो फर्जी मुकदमों को सामना कर रहे हैं, कई पत्रकारों की हत्या हो चुकी है, कई पर जानलेवा हमले होते रहते हैं और कई पुलिस प्रताडना के शिकार हो रहे हैं। दिल्ली से संचालित प्रतिष्ठित न्यूज पोर्टलों के संचालकों और संपादकों के यहां ईडी, आयकर और सीबीआई की छापेमारी हुई है और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज हुए हैं। इसलिए निश्चिंत रहिए पत्रकारिता हो रही है और होती रहेगी।
रही बात टीवी पत्रकारिता की तो उसकी मौत कोई आज या कल में नहीं हुई है। उसकी मौत तो एक दशक पहले ही हो चुकी है जब देश के कॉरपोरेट घरानों ने संघ संप्रदाय की मदद से अण्णा हजारे नामक एक अनपढ़ बूढ़े को अपनी कठपुतली बना कर दिल्ली के जंतरमंतर पर बैठाया था। भ्रष्ट और बेईमान सीएजी की रिपोर्ट का सहारा लेकर एक काल्पनिक घोटाले के खिलाफ अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी और उसके एनजीओ के बैनर तले जमे उस मजमे का सारे टीवी चैनल 24 घंटे सीधा प्रसारण कर रहे थे। एनडीटीवी भी अपवाद नहीं था।
टीवी चैनलों के कई क्रांतिकारी संपादक पत्रकार भी अण्णा हजारे की पालकी के कहार बन कर उन्हें दूसरा गांधी और जयप्रकाश बता रहे थे। केजरीवाल में भी उन्हें चे ग्वारा के दर्शन हो रहे थे। बाद में जब केजरीवाल ने अण्णा हजारे से अलग होकर राजनीतिक पार्टी बनाई तो टेलीविजन के इन क्रांतिकारी पत्रकारों ने केजरीवाल की पालकी भी ढोयी और उन्हें मसीहा के रूप में पेश किया। ऐसा करने वालों में खुद रवीश कुमार भी शामिल थे। हालांकि कुछ ही समय बाद इन सभी का अलग-अलग वजहों के चलते केजरीवाल से मोहभंग हुआ, जो कि होना ही था। सभी को अहसास हो गया कि केजरीवाल के खून में भी व्यापार है। दिल्ली की राज्यसभा की सीटें उसी व्यापार की भेंट चढ़ी थीं।
तो टीवी की पत्रकारिता तो 2012 में ही दम तोड़ चुकी थी। फिर 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के साथ ही ‘पोर्न पत्रकारिता’ के रूप में उसका पुनर्जन्म हुआ। राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर उसने समाज में नफरत का जहर फैलाने के काम में अपने को समर्पित कर दिया। सत्ता के इशारे पर नंगई प्रदर्शित करने के नित-नए कीर्तिमान रचने शुरू किए। इसी वजह से टीवी में रहते हुए भी रवीश कुमार लोगों से अपील करते रहे कि वे टीवी चैनलों को देखना बंद कर दे। लेकिन उनकी यह अपील उनके मुरीदों पर भी बेअसर रही और रहना ही थी, क्योंकि हिंदी समाज की पढ़ने की आदत छूट गई है और टीवी पर सुबह से लेकर रात तक कुकुर भौं को ही वह पत्रकारिता समझता है। इसीलिए एक टीवी चैनल के बिकने और उसके एक एंकर के इस्तीफे पर वह शोकमग्न है।