
प्रियंका सौरभ
दोपहर का झूठ
हर दोपहर कविता कहती — “मैं आराम कर रही हूँ।” पर हकीकत में वह रोती थी — टिफ़िन बनाते समय बचे दर्द को बाहर निकालने के लिए।
पति दफ्तर में, बच्चे स्कूल में, और घर — उसके आँसुओं से भरा हुआ।
एक दिन पड़ोसी ने पूछा — “हर दिन दोपहर को दरवाज़ा बंद क्यों रहता है?”
कविता ने हँसते हुए कहा — “क्योंकि तब मैं खुद से मिलने जाती हूँ।”
अब वह दोपहर का झूठ नहीं बोलती — उसने उस समय को सच में आराम में बदल दिया है।
माँ की थाली
बिटिया मायके आई थी, माँ ने थाली परोस दी — वही दाल, वही सब्ज़ी। बिटिया बोली — “माँ, कुछ नया नहीं है?”
माँ ने कहा — “बेटा, यही तो स्वाद है, जो बचा रखा है तुम्हारे लिए।”
बिटिया मुस्कुराई — और हर कौर में स्नेह, यादें और माँ का इंतज़ार समेट लिया।
कभी-कभी वही पुराना खाना, सबसे नया स्वाद होता है।
पार्लर वाली बुआ
गाँव की बुआ शहर आकर पार्लर चलाने लगी थीं। गाँव में लोग कहते — “बुजुर्ग औरत अब नेल पॉलिश लगाएगी?”
बुआ हँसतीं — “जब जवानी में खेत जोता, तब कोई नहीं बोला, अब थोड़ी चमक लाई तो तकलीफ है?”
उनकी दुकान में औरतें आतीं — अपने लिए थोड़ा समय और साज-संवार लेने।
बुआ सिर्फ रूप नहीं बदलती थीं, सोच भी बदलती थीं।
चूल्हे की आग
शीला के घर में रोज़ सुबह धुएँ से भरे चूल्हे की आग जलती थी। उसकी आँखें जलती थीं, मगर आंसू कभी किसी ने नहीं देखे। रोटियाँ सेंकते हुए वह जीवन की जलन भी सेंकती थी — न पति की बेरुख़ी बुझती थी, न सास के ताने थमते थे।
बेटी ने एक दिन पूछा — “माँ, खाना तो अच्छा बनाती हो, फिर हमेशा उदास क्यों दिखती हो?”
शीला मुस्कुराई, पर उस मुस्कान के पीछे सालों का धुआँ था। बोली — “यह आग अब सिर्फ रोटियाँ नहीं सेंकती, मेरे सपने भी जलाती है।”
रात को शीला ने फैसला किया — अब सपनों को राख नहीं बनने दूँगी। उसने अगली सुबह गैस कनेक्शन के लिए फॉर्म भरा और पुरानी सिलाई मशीन को साफ किया। पड़ोस की औरतों से बात की, बच्चों के पुराने कपड़े काटे — और पहली बार अपने लिए एक नई शुरुआत की।
अब चूल्हे की आग सिर्फ पेट की भूख बुझाने के लिए जलती है, आत्मा को जलाने के लिए नहीं।
दवाई की पर्ची
सरला की अलमारी में कई दवाइयों की पर्चियाँ थीं। डॉक्टर ने हर बार एक ही बात लिखी — “Rest and peace advised.” पर न नींद आती थी, न मन को सुकून। पति कहते — “दवा ले रही हो न, फिर क्या परेशानी है?”
असल दर्द किसी गोली से नहीं जाता — वह तो उपेक्षा, चुप्पी और अकेलेपन का होता है। सरला हर दिन वही दोहराती — चुप रहो, सहो, ठीक हो जाओगी। पर ठीक होने की बजाय वह और टूटती गई।
एक दिन बेटा अलमारी से कुछ ढूँढते हुए पर्ची देख बैठा। पढ़ा, और धीरे से माँ से कहा — “माँ, आपको ‘रेस्ट’ नहीं, ‘रिस्पेक्ट’ चाहिए।”
उस दिन पहली बार सरला को लगा — वह सुनी गई है। उसने पर्चियाँ फाड़ दीं और खुद को थोड़ा-थोड़ा जीना शुरू किया।
दादी की चुप्पी
पहले दादी पूरे घर की जान थीं — किस्से, ताने, कहावतें, हँसी। अब बस खामोश बैठी रहतीं। सब कहते — “बुढ़ापे में ऐसा ही होता है।”
पोती ने एक दिन दादी के पैरों में तेल लगाते हुए पूछा — “दादी, आप अब बोलती क्यों नहीं?”
दादी की आँखें भीग गईं। धीरे से बोलीं — “जब कोई सुने ही ना, तो क्या कहें? चुप रहना आसान होता है।”
उस दिन से पोती ने रोज़ एक कहानी माँगी — वो भी दादी की ज़िंदगी से। बचपन की चोरियाँ, शादी के किस्से, माँ बनने की उलझनें — सब बाहर आने लगा।
अब दादी फिर से किस्से कहती हैं — उनकी चुप्पी अब यादों का संसार बन गई है।
परछाईं
नव्या की ज़िंदगी में सब कुछ था — सुंदर घर, अच्छे बच्चे, आदर्श पति। पर हर बार जब वह आइने में खुद को देखती, एक अजनबी स्त्री नज़र आती।
कभी कॉलेज में कविता लिखने वाली नव्या अब किराने की लिस्ट में उलझी थी। हर दिन वही दिनचर्या, वही शब्द — माँ, बहू, पत्नी।
एक दिन बेटी ने पूछा — “माँ, क्या आपने कभी कुछ और करना चाहा था?”
उसने चुप रहकर सिर हिलाया। बेटी ने मुस्कुराकर कहा — “तो अब कीजिए, मैं हूँ न।”
नव्या ने आलमारी से अपनी पुरानी कविताओं की डायरी निकाली। फिर हर सुबह, बच्चों के स्कूल जाते ही, वह चुपचाप लिखने बैठती।
अब आईना उसे पहचानता है — परछाईं नहीं, वह खुद।
शादी का कार्ड
रूचि की शादी का कार्ड छपा — “श्रीमती और श्रीमान वर्मा आपको अपनी सुपुत्री रूचि के विवाह में सादर आमंत्रित करते हैं…”
उसने कार्ड देखा और मुस्कुराई, फिर पूछा — “इसमें मेरा नाम कहाँ है?”
माँ बोली — “रूचि, दुल्हन का नाम होता है न!”
रूचि ने कहा — “नाम होता है, पहचान नहीं।”
उसने कार्ड रद्द करवाया और नया छपवाया — “रूचि शर्मा, एक लेखिका, एक बेटी, एक इंसान — जीवन के नए अध्याय में प्रवेश कर रही है।”
अब शादी सिर्फ रस्म नहीं थी, उसकी पहचान का उत्सव थी।
मोबाइल में छुपा डर
रश्मि का मोबाइल हमेशा उसके तकिए के नीचे रहता था, लॉक्ड और साइलेंट। पति को शक होता — क्या छुपा रही हो? पर वह चुप रहती। असल में मोबाइल उसके लिए डर और दर्द का पिटारा बन चुका था।
विवाह के बाद ही अनचाहे मैसेज, धमकियाँ, पुरानी तस्वीरें वायरल करने की धमकी — सब कुछ मोबाइल में बंद था। उसने कई बार बताना चाहा, पर हर बार ‘बदनामी’ का डर हावी हो गया।
एक दिन बेटी ने मोबाइल उठाकर देखा — माँ, ये क्यों डिलीट कर रही हो सब?
रश्मि थरथराई, पर बेटी की आँखों में विश्वास देखा।
उस दिन उसने पहली बार FIR लिखवाई, साइबर सेल गई, और फिर पति को पूरी बात बताई।
अब मोबाइल उसके हाथ में है, पर डर नहीं। उसमें अब कविताएँ हैं, उम्मीदें हैं।
खुद से मिलना
सविता को अक्सर लगता था — सब कुछ है, पर खुद नहीं हूँ। सुबह उठती, सबके लिए चाय, नाश्ता, ऑफिस, बच्चों की पढ़ाई, फिर रसोई।
रोज़ वही दिनचर्या, और हर दिन एक नई थकावट। एक दिन उसकी स्कूल की सहेली मिली — बोली, “तू तो कॉलेज में कितनी नाटकों की डायरेक्टर थी! अब क्या करती है?”
सविता हँस दी — “अब मैं सबका टाइमटेबल हूँ।”
सहेली ने उसका हाथ पकड़ा — “चल, इस शनिवार एक वर्कशॉप है थिएटर की, चल न!”
बहुत सोच के बाद सविता गई। पहली बार उसने खुद के लिए कुछ किया। मंच पर खड़े होकर बोली — “मैं फिर से सविता बनना चाहती हूँ, सिर्फ ‘मम्मी’ नहीं।”
उस दिन वह खुद से मिली — आत्मा से आँख मिलाई।