ललित गर्ग
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने बिहार के बाद अब देश के 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विशेष ग्रहण पुनरीक्षण (एसआईआर) की शुरुआत करने की घोषणा करके चुनाव विसंगतियों एवं कमियों को दूर करने का सराहनीय एवं साहसिक कार्य किया है। यह पहल न केवल तकनीकी या प्रशासनिक प्रक्रिया भर है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने की एक निर्णायक कोशिश है। लोकतंत्र की आत्मा उसके निर्वाचन तंत्र की निष्पक्षता और पारदर्शिता में बसती है और चुनाव आयोग का यह कदम उसी दिशा में एक ठोस, सकारात्मक और आवश्यक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। बिहार की एसआईआर प्रक्रिया से सबक लेते हुए इस बार आयोग ने प्रक्रिया के लिए अधिक समय दिया है, ताकि बिहार जैसी जल्दबाजी और अफरातफरी से बचा जा सके। आधार कार्ड को एक सहायक दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया जाएगा, जिससे प्रक्रिया सरल बनेगी।
निश्चित ही इस बार 12 राज्य संख्या में ज्यादा हैं तो चुनौती भी उसी हिसाब से ज्यादा बड़ी है। उम्मीद कर सकते हैं कि बिहार में पुनरीक्षण प्रक्रिया में आई दिक्कतें अब आयोग के लिए अनुभव का काम करेंगी और वहां जैसी परेशानी बाकी जगहों पर लोगों को नहीं उठानी पड़ेगी। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने एसआईआर के शिड्यूल का ऐलान करते हुए कहा कि प्रक्रिया यह सुनिश्चित करेगी कि कोई भी योग्य मतदाता छूट न जाए और कोई भी अयोग्य मतदाता लिस्ट में शामिल न हो। जिन राज्यों को दूसरे चरण में चुना गया है, उनमें उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गोवा, केरल, पुडुचेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप हैं, इनमें से केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। असम में भी अगले ही साल विधानसभा चुनाव है, लेकिन उसे दूसरे चरण से बाहर रखा गया। आयोग ने इस बार आधार कार्ड को लेकर रुख पहले ही साफ कर दिया है कि यह जन्म, नागरिकता या निवास प्रमाण पत्र के रूप में मान्य नहीं होगा, लेकिन एसआईआर में इसे एक डॉक्युमेंट के रूप में पेश किया जा सकेगा। यह स्पष्टता इसलिए जरूरी थी, क्योंकि बिहार में पहले चरण के दौरान आधार कार्ड का मसला सुप्रीम कोर्ट तक चला गया था। दस्तावेज ऐसे होने चाहिए, जो अधिकतम आबादी की पहुंच में हों और आधार आज पहचान का सबसे सरल जरिया है।
मतदाता सूची की सटीकता, पारदर्शिता एवं निष्पक्षता लोकतंत्र की रीढ़ है। भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में मतदाता सूची की सटीकता सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिये एक निश्चित अन्तराल के बाद एसआईआर की प्रक्रिया होते रहना अपेक्षित है। इसके पहले एसआईआर करीब दो दशक पहले किया गया था। कम से कम अब तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि एसआईआर में इतना अंतराल न आने पाए, क्योंकि अब लाखों लोग नौकरी-पेशे के चलते अन्यत्र चले जाते हैं। इनमें से अधिकांश वहीं बस जाते हैं। कई बार देखा गया है कि मृत व्यक्तियों के नाम सूची में बने रहते हैं, वहीं नये पात्र नागरिकों के नाम दर्ज नहीं हो पाते। ग्रामीण इलाकों से लेकर महानगरों तक, इस विसंगति के चलते मतदान प्रतिशत प्रभावित होता है और चुनावी परिणामों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगता है। एसआईआर का मकसद किसी की नागरिकता तय करना या ज्यादा से ज्यादा लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर करना नहीं है। इसे इतना सरल होना चाहिए, जिससे लोग वोटर बनने के लिए प्रेरित हों और उनमें लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व के लिए उत्साह जगे। मुख्य चुनाव आयुक्त की यह पहल-इन खामियों को दूर करने की दिशा में एक संगठित और वैज्ञानिक लोकतांत्रिक प्रयास है। यदि यह कार्य धरातल पर ईमानदारी से लागू हुआ, तो यह मतदाता सूची की पवित्रता और लोकतंत्र की गरिमा दोनों को बढ़ाएगा।
भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये यह बहुत जरूरी है, इसके लिये राजनीतिक दलों की भूमिका एवं सहयोग अपेक्षित है, वे इस प्रक्रिया को सकारात्मक दृष्टि से लें। इस सराहनीय एवं नितांत अपेक्षित उपक्रम के लिये विपक्षी दलों के द्वारा विरोध का वातावरण बनाना एवं आस्तीनें चढ़ाना उनकी विश्वसनीयता एवं जिम्मेदारी पर प्रश्न खड़ा करता है। अक्सर देखा गया है कि जब चुनाव आयोग सुधारात्मक कदम उठाता है, तो विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने हितों के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं। परंतु लोकतंत्र का स्वास्थ्य तब ही सुदृढ़ होगा जब सभी दल ‘पारदर्शिता’ को ‘राजनीतिक लाभ-हानि’ से ऊपर रखेंगे। विपक्ष को चाहिए कि वह इस पहल का विरोध करने की बजाय स्वागत करे और इसे सही दिशा में लागू कराने में सहयोग दे, न कि शंका और अविश्वास के चश्मे से देखे। बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों की यह महती जिम्मेदारी है कि वे सिर्फ दोषारोपण करने तक सीमित न रहें, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में अपनी जिम्मेदारियां निभाएं। इसी तरह, नागरिक संगठनों के लिए भी यह सक्रिय होने का समय है। उनकी निगरानी बीएलए के काम को अधिक सरल व सटीक बना सकती है। कुल मिलाकर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का सपना दिखाने वाले चुनाव आयोग के सामने अभी अपनी इस प्राथमिक जिम्मेदारी को ही निर्विवाद रूप से पूरा करने की चुनौती है।
डिजिटल युग में चुनाव सुधार केवल मानव संसाधन या प्रशासनिक इच्छाशक्ति का नहीं, बल्कि तकनीकी पारदर्शिता का भी प्रश्न है। बायोमेट्रिक सत्यापन, ऑनलाइन नामांकन और डेटा क्रॉस-वेरिफिकेशन जैसे उपाय अब आवश्यक हो चुके हैं। विशेष ग्रहण पुनरीक्षण इस दिशा में आधारभूत कार्य करेगा यानी चुनावी डाटा की सफाई और पुनर्गठन। भारत की चुनावी प्रक्रिया विश्व में सबसे बड़े लोकतांत्रिक अभ्यास के रूप में जानी जाती है। लेकिन यह गौरव तभी सार्थक होगा जब मतदाता सूची, मतदान केंद्रों की निष्पक्षता और आचार संहिता के पालन में कोई संदेह न रहे। चुनाव आयोग की यह पहल उसी लक्ष्य की ओर एक ठोस कदम है। लोकतंत्र केवल मतों की गिनती नहीं, बल्कि विश्वास की गिनती है और यह विश्वास चुनाव आयोग की ईमानदारी, पारदर्शिता और सक्रियता पर टिका है। जन-प्रतिनिधित्व कानून, 1950 की धारा 21 चुनाव आयोग को मतदाता सूची तैयार करने और उनको संशोधित करने का अधिकार देती है। मतदाता सूचियों को दुरुस्त करना चुनाव आयोग का संवैधानिक अधिकार ही नहीं, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की अनिवार्य आवश्यकता भी है। विडंबना यह है कि कुछ दलों को इस आवश्यकता की पूर्ति किया जाना रास नहीं आ रहा है। उन्होंने बिहार में एसआईआर को लेकर आसमान सिर पर उठाया और वोट चोरी के जुमले के सहारे सड़कों पर उतरने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया। मगर उनकी दाल न सुप्रीम कोर्ट के समक्ष गली और न ही बिहार की जनता के बीच तो इसीलिए कि वे कोरा दुष्प्रचार कर रहे थे।
ज्ञानेश कुमार की यह पहल केवल तकनीकी संशोधन नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक संस्कृति में नवीनीकरण का संदेश है। चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं, बल्कि जनविश्वास की परीक्षा भी है। यदि यह अभियान ईमानदारी और जनसहभागिता के साथ पूरा होता है, तो यह भारत के लोकतंत्र को और परिपक्व बनाएगा। अब जिम्मेदारी केवल चुनाव आयोग की नहीं, बल्कि हर नागरिक और राजनीतिक दल की भी है कि वे इस सुधारात्मक पहल का स्वागत करें और लोकतंत्र के इस महापर्व को निष्कलंक बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाएं। क्या यह विचित्र नहीं कि विपक्षी दल मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों की शिकायत भी करते हैं और उनके पुनरीक्षण का विरोध भी? हालांकि उनके दुष्प्रचार की पोल खुल चुकी है, फिर भी चुनाव आयोग को इसके लिए तैयार रहना होगा कि विपक्ष शासित राज्य एसआईआर की प्रक्रिया का विरोध कर सकते हैं। उसे इसके प्रति सतर्क रहना होगा कि मतदाता सूचियों को ठीक करने की प्रक्रिया में किसी तरह की गलती न होने पाए, क्योंकि विपक्षी दल छोटी-छोटी बातों को तूल देकर इस संवैधानिक प्रक्रिया को श्रीहीन करने की चेष्टा कर सकते हैं।





