अंतरिक्ष विज्ञान और आत्मनिर्भर भारत

Space science and self-reliant India

विशाल कुमार सिंह

स्वतंत्रता के 79 वर्ष पूरे होने के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से बारहवीं बार देश को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट कहा कि आत्मनिर्भरता ही किसी भी राष्ट्र के आत्मसम्मान का वास्तविक पैमाना है। यह कथन मात्र एक राजनीतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों और विशेषकर अंतरिक्ष विज्ञान में आत्मनिर्भरता की लम्बी यात्रा का भी प्रतिबिंब है। आज जब भारत विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और शीघ्र ही चौथी बनने की ओर अग्रसर है, तब अंतरिक्ष विज्ञान में उसकी उपलब्धियाँ वैश्विक पटल पर उसकी पहचान को और भी सशक्त बना रही हैं।

1947 में आज़ाद भारत की तस्वीर एक गरीब और अशिक्षित देश की थी। संसाधनों की भारी कमी थी, उद्योग-धंधे चरमराए हुए थे और शिक्षा का स्तर भी बेहद निचला था। इन हालातों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता का सपना देखना कठिन था। फिर भी भारत के नीति-निर्माताओं और वैज्ञानिकों ने समझ लिया था कि अगर देश को आधुनिक दुनिया में अपनी पहचान बनानी है, तो विज्ञान और तकनीक ही उसका मजबूत आधार बन सकते हैं। यही कारण था कि स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक सोच को देश की विकास यात्रा का मूल मंत्र बनाया।

भारत की अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत 19 अप्रैल 1975 को हुई, जब पहला उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ सोवियत संघ की मदद से अंतरिक्ष में भेजा गया। यह भारत के लिए ऐतिहासिक क्षण था क्योंकि संसाधनों की कमी और सीमित तकनीकी क्षमता के बावजूद भारतीय वैज्ञानिकों ने यह उपलब्धि हासिल की। आर्यभट्ट की सफलता ने यह संकेत दिया कि भारत आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ा चुका है। उस दौर में जब विश्व की महाशक्तियाँ अंतरिक्ष विज्ञान को हथियारों और प्रभुत्व की दृष्टि से देख रही थीं, भारत ने इसे विकास और शोध का साधन बनाया।

आर्यभट्ट के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने निरंतर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ीं। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (PSLV) और भू-स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (GSLV) जैसी स्वदेशी प्रणालियों के विकास ने भारत को विदेशी सहयोग पर निर्भरता से काफी हद तक मुक्त कर दिया। इसरो की सबसे बड़ी उपलब्धियों में यह रहा कि उसने कम लागत में उच्च-स्तरीय तकनीक विकसित की। यही कारण है कि आज भारत अन्य देशों के उपग्रह भी अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करता है।

भारत की आत्मनिर्भरता की असली झलक चंद्रयान और मंगलयान अभियानों में दिखी। 2008 में प्रक्षेपित चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर जल अणुओं की खोज कर पूरे विश्व को चकित कर दिया। इसके बाद 2013 में भारत ने अपने पहले मंगल मिशन (मंगलयान) को लॉन्च किया और बेहद कम लागत में मंगल की कक्षा में पहुँचने वाला पहला एशियाई और विश्व का चौथा देश बन गया। यह उपलब्धि इस बात का प्रमाण है कि आत्मनिर्भरता केवल आर्थिक या सैन्य शक्ति का पैमाना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक नवाचार और संसाधनों के कुशल प्रबंधन का भी परिणाम है।

भारत आज उन गिने-चुने देशों में है, जो अन्य देशों के उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करते हैं। इसरो की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गई है कि कई विकसित देश भी अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए भारत पर भरोसा करते हैं। कम लागत और उच्च सफलता दर ने भारत को ‘स्पेस डिप्लोमेसी’ में भी एक मजबूत स्थान दिलाया है। यह आत्मनिर्भरता का वह पहलू है जिसने न केवल हमारी वैज्ञानिक शक्ति को प्रदर्शित किया, बल्कि विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी हमें नया आत्मविश्वास प्रदान किया।

भारत की अंतरिक्ष यात्रा चुनौतियों से मुक्त नहीं रही। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अक्सर हमें विश्वासघात झेलना पड़ा। परमाणु परीक्षणों के बाद भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए, जिसने अंतरिक्ष तकनीक पर भी असर डाला। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने तकनीक साझा करने से मना कर दिया। चीन ने भी हमेशा पाकिस्तान को तकनीकी और सामरिक मदद दी। इन चुनौतियों ने भारत को यह सिखाया कि बाहरी सहयोग पर पूरी तरह निर्भर रहना खतरनाक हो सकता है। यही कारण था कि इसरो और भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वदेशीकरण की राह पर और भी तेज़ी से काम किया।

आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आत्मनिर्भरता को आत्मसम्मान का पैमाना बताते हैं, तो यह विशेष रूप से अंतरिक्ष विज्ञान पर लागू होता है। भारत गगनयान मिशन की तैयारी कर रहा है, जिसमें भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी तकनीक से अंतरिक्ष में जाएंगे। साथ ही भारत चंद्रयान-3 और आदित्य-L1 जैसे अभियानों से न केवल अंतरिक्ष के रहस्यों को सुलझा रहा है, बल्कि विश्व पटल पर अपनी वैज्ञानिक क्षमता का लोहा भी मनवा रहा है। यह सब उस दूरदर्शी दृष्टि का परिणाम है जो स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों से लेकर आज तक आत्मनिर्भरता को राष्ट्र के विकास का मूल आधार मानती रही है।

स्वतंत्रता के समय जो भारत विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ था, वही आज अंतरिक्ष विज्ञान में आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन चुका है। आर्यभट्ट से लेकर चंद्रयान और मंगलयान तक की यात्रा ने यह साबित किया है कि भारत ने सीमित संसाधनों और कठिन परिस्थितियों में भी अपनी वैज्ञानिक शक्ति से दुनिया को चौंकाया है। विश्वासघात और वैश्विक दबावों के बावजूद भारत ने आत्मनिर्भरता की राह नहीं छोड़ी। यही कारण है कि आज जब प्रधानमंत्री मोदी आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, तो उसमें अंतरिक्ष विज्ञान का योगदान सबसे चमकदार अध्याय के रूप में शामिल है। आत्मनिर्भर भारत की यह अंतरिक्ष यात्रा आने वाले समय में न केवल वैज्ञानिक प्रगति की गवाही देगी, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान और वैश्विक नेतृत्व की पहचान भी बनेगी।