प्रकृति से खिलवाड़ से होने वाली आपदा पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार

Supreme Court reprimands on disaster caused by messing with nature

अजय कुमार

आज सुप्रीम कोर्ट ने देश के पहाड़ी राज्यों में बार-बार आ रही बाढ़ और भूस्खलन की भयावह स्थिति को लेकर गहरी चिंता जताई। अदालत ने विशेष रूप से अवैध रूप से पेड़ों की कटाई और अनियोजित विकास कार्यों को इस विनाशकारी स्थिति की मूल वजह बताया। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों और राज्य एजेंसियों को फटकार लगाते हुए कहा कि केवल कागज़ों पर पर्यावरण संरक्षण योजनाएँ बनाने से काम नहीं चलेगा, बल्कि जमीनी कार्रवाई की सख्त ज़रूरत है। यह टिप्पणी अपने आप में केवल न्यायिक चेतावनी नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए एक गंभीर पर्यावरणीय संदेश है।

अवैध कटाई और पहाड़ी राज्यों का संकट

हिमालयी क्षेत्रों और दूसरे पहाड़ी राज्यों की विशेषता यह है कि वहाँ की पारिस्थितिकी बेहद संवेदनशील होती है। जंगलों की जड़ें न केवल मिट्टी को बचाती हैं बल्कि जलस्रोतों का संतुलन भी बनाए रखती हैं। जब इन क्षेत्रों में अवैध तरीके से पेड़ काटे जाते हैं, तो पहाड़ों की पकड़ कमजोर पड़ जाती है। बरसात के मौसम में थोड़ी-सी तेज बारिश भी मिट्टी को बहाकर ले जाती है। यही कारण है कि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तर-पूर्व के राज्यों में हर साल भूस्खलन और बाढ़ का खतरा बढ़ता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों से इन क्षेत्रों में सड़क चौड़ीकरण, हाइड्रो प्रोजेक्ट्स और पर्यटन के लिए अंधाधुंध निर्माण कार्य तेजी से बढ़े हैं। हज़ारों पेड़ काटे गए, नदी-नालों का स्वाभाविक प्रवाह रोका गया और पर्वतीय ढलानों पर कंक्रीट के निर्माण ठोक दिए गए। इन सभी ने मिलकर जलवायु संकट को और गंभीर बना दिया है। ऐसे में कोर्ट की यह टिप्पणी कि “प्रकृति से खिलवाड़ सस्ती विकास नीतियों की भारी कीमत है” एक सटीक चेतावनी है।

आपदा प्रबंधन या आपदा को न्योता?

कहने को तो हर राज्य के पास आपदा प्रबंधन योजना है, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये योजनाएँ केवल फाइलों और कागज़ों तक ही सीमित हैं। जिन क्षेत्रों को संवेदनशील घोषित किया गया है, वहाँ भी भारी-भरकम होटल, रिसॉर्ट और रोड कटिंग होते हैं। बिना भूगर्भीय अध्ययन के सुरंगें खोदी जाती हैं और इससे पर्वतीय संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजा यह होता है कि बादलों का फटना, नदियों का रौद्र रूप धारण करना और पहाड़ का खिसक जाना एक नियमित आपदा बन चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति की ओर इशारा करते हुए कहा कि “हम प्रकृति के नियमों के ऊपर नहीं उठ सकते, बल्कि हमें इन्हीं के अनुसार जीना होगा।” यह टिप्पणी उन नीतिगत विफलताओं पर चोट करती है, जहाँ विकास की आड़ में पर्यावरणीय सुरक्षा को दरकिनार कर दिया जाता है।

जलवायु परिवर्तन की बड़ी कड़ी

यह मुद्दा केवल स्थानीय नहीं है। वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार पहाड़ी पारिस्थिति पर पड़ती है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने, मौसम के असामान्य पैटर्न बनने और अत्यधिक वर्षा ने इन क्षेत्रों की प्राकृतिक सुरक्षा को कमजोर कर दिया है। जब इन सबके ऊपर अंधाधुंध पेड़ों की कटाई और अवैध खनन होता है, तो आपदा की रफ्तार कई गुना बढ़ जाती है। वैज्ञानिक चेतावनी देते आ रहे हैं कि अगर इस गति से हिमालयी क्षेत्र में हस्तक्षेप जारी रहा, तो आने वाले दशकों में गंगा, ब्रह्मपुत्र और यमुना जैसी नदियों का संतुलन बिगड़ सकता है। इसका सीधा असर न केवल पहाड़ी राज्यों में रहने वाले लोगों पर पड़ेगा, बल्कि पूरे उत्तर भारत की आबादी जल संकट और बाढ़ की मार झेलेगी। सुप्रीम कोर्ट की यह सख्त टिप्पणी कई मायनों में महत्वपूर्ण है।

1.नीतिगत दबाव- अब सरकारों पर यह दबाव बनेगा कि वे केवल विकास की आँकड़ेबाजी न करें, बल्कि पर्यावरण संतुलन को प्राथमिकता दें।

  1. जवाबदेही तय होगी- स्थानीय प्रशासन और वन विभाग को अब अपनी लापरवाही का जवाब देना होगा।
  2. भविष्य की परियोजनाएँ- नदियों पर बनने वाले नए बांध, सड़कों और बड़े निर्माण कार्यों को मंज़ूरी देने से पहले कड़े मानदंड लागू करने पड़ेंगे।
  3. जन-भागीदारी का संदेश- अदालत ने अप्रत्यक्ष रूप से यह भी संकेत दिया है कि केवल सरकारें नहीं, बल्कि स्थानीय समुदायों को भी इस लड़ाई में शामिल होना पड़ेगा।

पर्यावरणीय संकट और समाज

पेड़ों की कटाई, खनन और अव्यवस्थित शहरीकरण से न केवल भूस्खलन और बाढ़ आ रही है, बल्कि इसका असर समाज के हर स्तर पर दिखाई देता है। किसान अपनी जमीन बहते हुए देखते हैं, पर्यटन उद्योग संकट में पड़ता है, और सबसे अधिक खतरे में आम नागरिकों की जिंदगी होती है। इसके अलावा, इन आपदाओं के कारण पलायन भी बढ़ रहा है। पहाड़ी गाँव खाली हो रहे हैं और लोग सुरक्षित जगहों की तलाश में मैदानी इलाकों की ओर जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को सचमुच एक दिशा का काम करना चाहिए। समाधान के लिए कुछ ठोस कदम अनिवार्य हैं।

  • अवैध कटाई पर कड़ा कानून-सजा और दंड की कठोर व्यवस्था लागू करनी होगी।
  • विकास परियोजनाओं पर वैज्ञानिक मूल्यांकन हर प्रोजेक्ट से पहले भूगर्भीय और पर्यावरणीय परीक्षण अनिवार्य होना चाहिए।
  • वृक्षारोपण और हरित आवरण-कटे पेड़ों के बदले तुरंत बड़े पैमाने पर पौधारोपण करना होगा।
  • स्थानीय समुदाय की भूमिका- स्थानीय लोगों को वन संरक्षण और जलस्रोत बचाने के लिए प्रशिक्षित और सहयोगी बनाना होगा।
  • जलवायु अनुकूल विकास-हमें ग्रीन डेवलपमेंट मॉडल अपनाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ना होगा।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं है, बल्कि यह पहाड़ों और प्रकृति की पुकार है। यह हमें बताती है कि अगर हमने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाले समय में आपदा और गहरी व व्यापक होगी। विकास की परिभाषा को हमें फिर से तय करना होगा। ऐसा विकास जो पर्यावरण को नष्ट करके नहीं, बल्कि उसके साथ संतुलन बनाकर आगे बढ़े। आज की आपदाएँ केवल पहाड़ी राज्यों के लिए चेतावनी नहीं हैं, बल्कि यह पूरा देश और पूरी मानवता के लिए अलार्म हैं। सुप्रीम कोर्ट की बात को महज़ अदालत की टिप्पणी न मानकर हमें इसे एक राष्ट्रीय दिशा-निर्देश के रूप में स्वीकार करना होगा।