
नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारतीय साहित्य के क्षितिज पर जब भी स्त्री विमर्श को गंभीरता से उठाने वाले रचनाकारों की चर्चा होगी, उस सूची में डॉ. राजकुमारी ‘राजसी’ का नाम पूरे सम्मान के साथ लिया जाएगा। उनका उपन्यास “सरनेम” न केवल एक स्त्री की जीवन यात्रा है, बल्कि यह एक वैचारिक घोषणा है- पितृसत्ता के विरुद्ध, सामाजिक संरचना के विरुद्ध और सबसे बढ़कर उस मानसिकता के विरुद्ध जो स्त्री को उसके श्रम, उसकी देह और उसकी पहचान से काट कर केवल एक “सरनेम” में समेट देना चाहती है।
यह उपन्यास अवंतिका सक्सेना की कथा है – मिडिल क्लास की एक आत्मनिर्भर महिला जो अपनी मेहनत से व्यवसायिक सफलता की ऊंचाइयों को छूती है। परंतु उसकी सबसे बड़ी जंग बाहर के समाज से नहीं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक सोच से है, जो उसके जीवन के सबसे निजी हिस्सों को भी अपने स्वार्थ की बलि चढ़ा देना चाहता है। राजसी का लेखन इस दृष्टिकोण से विलक्षण है कि वह केवल समस्या का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि उसके सामाजिक, मानसिक और वैचारिक तह तक जाकर पाठक को झकझोरती हैं।
राजसी का यह उपन्यास सबसे पहले एक सीधा, किन्तु अत्यंत गूढ़ प्रश्न उठाता है- “सरनेम” क्या है? पहचान, परंपरा, स्वामित्व या एक बंधन? पुरुष को कभी यह विचार करने की आवश्यकता नहीं होती कि उसका सरनेम क्या है, किसने दिया और क्यों? लेकिन स्त्री के लिए यह ‘नाम’ ही उसकी पहचान को छीन लेने का पर्याय बन जाता है। पिता का सरनेम, फिर पति का सरनेम- हर बार स्त्री के ‘मैं’ को किसी और के ‘हम’ में बदलने की कोशिश की जाती है। राजसी ने इस उपन्यास में यही चीरफाड़ की है- सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर तक। अवंतिका की पीड़ा उस हर स्त्री की पीड़ा है जो समाज के दोमुंहे व्यवहार से जूझती है, जहां शादी के साथ ही उसके नाम, अस्तित्व, स्वतंत्रता, और यहां तक कि उसकी कमाई तक पर सवाल उठने लगते हैं।
उपन्यास का एक और सशक्त पक्ष है वैभव जैसा पात्र, जो अपनी विफलताओं के लिए कभी खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराता बल्कि अवंतिका के स्त्रीत्व को, उसकी सफलता को, उसकी स्वतंत्रता को अपराध बना देता है। वैभव, जो रात को अवंतिका से दो ही चीजें मांगता है- सेक्स और पैसा, केवल इस कारण कि उसने ‘पति’ का तमगा पहना हुआ है। यह चरित्र पितृसत्ता का जीवित प्रतीक है, जो स्त्री को देह और संपत्ति से अधिक नहीं समझता।
राजसी की कलम इस पात्र को काले-सफेद में नहीं, बल्कि जटिल धूसर छवियों में प्रस्तुत करती है, जहां उसका दंभ, उसकी आत्मकेंद्रितता, उसकी हताशा और उसके भीतर पनपता विष धीरे-धीरे अवंतिका को मानसिक रूप से तोड़ता है। लेकिन अवंतिका टूटती नहीं, वह भीतर ही भीतर सशक्त होती जाती है, यह लेखिका की नारीवादी दृष्टि की पराकाष्ठा है। राजसी ने विवाह और प्रेम के अंतर को जिस सूक्ष्मता से उद्घाटित किया है, वह अद्भुत है। विवाह एक सामाजिक अनुबंध है, जिसे समाज ने स्त्री के लिए गहनों, चिह्नों और आज्ञाकारिता से परिभाषित किया है, जबकि प्रेम आत्मा का बंधन है, जहां समता, सम्मान और स्वतंत्रता प्राथमिक तत्व होते हैं।
उपन्यास में अवंतिका की कहानी हमें यह बताती है कि प्रेम तब तक सुंदर है जब तक वह स्वतंत्र है, लेकिन जैसे ही विवाह की सामाजिक परतें उस पर चढ़ती हैं, वह बोझ बन जाती है। अवंतिका के लिए विवाह एक ऐसा पिंजरा बन जाता है, जिसमें उसकी भावनाएं, इच्छाएं और स्वतंत्रता घुटने लगती है। समाज का यह पक्ष, जहां ‘परित्यक्ता’ स्त्री को दोषी माना जाता है लेकिन पुरुष पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगता, लेखिका के कटाक्ष का मुख्य बिंदु बनता है।
राजसी ने स्त्री की कमाई पर पुरुष द्वारा एकाधिकार की मानसिकता पर भी तीव्र प्रश्न खड़े किए हैं। वैभव, जो अपने करियर में बार-बार असफल होता है, अवंतिका की मेहनत की कमाई पर स्वामित्व जताता है। यह दृश्य आज की अधिकांश कामकाजी महिलाओं की सच्चाई को स्वर देता है। स्त्री के आर्थिक रूप से सक्षम होते ही, पितृसत्ता की असहजता स्पष्ट हो उठती है।
यह उपन्यास मैरिटल रेप और भावनात्मक शोषण जैसे संवेदनशील मुद्दों को भी बगैर किसी संकोच के उठाता है। लेखिका पूछती हैं- जब विवाह के बाद स्त्री की सहमति महत्वहीन हो जाए, जब उसकी देह केवल पति के अधिकार की वस्तु बन जाए, तब क्या विवाह उसे किसी बंधन से बेहतर बना पाता है?
“बदलाव प्रकृति का नियम है”- इस सूत्र वाक्य को लेखिका ने नायिका के माध्यम से मूर्त रूप दिया है। अवंतिका अपने आत्मबल, विवेक और संवेदना से वह परिवर्तन लाती है जो केवल अपने लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल बन जाता है।वह न केवल वैभव से संबंध तोड़ती है, बल्कि अनुभव सिंघानिया के साथ एक नवीन संरचना को जन्म देती है, जहां बंधन नहीं सहमति है,स्वामित्व नहीं, साझेदारी है। अवंतिका अपनी बच्ची और अनुभव के बेटे के लिए माता-पिता दोनों बन जाती है। यह कदम एक स्त्री की सामाजिक पुनर्रचना की घोषणा है।
राजकुमारी राजसी की भाषा ललित, व्यंग्यात्मक, और भावप्रवण है। वे बिना आक्रोश के भी तीव्र प्रहार करती हैं, और बिना नारे लगाए भी एक क्रांति रच देती हैं। उपन्यास में प्रयुक्त सूत्रवाक्य पाठक के हृदय में गूंजते हैं। उदाहरण के लिए देखें तो –
“स्त्री को नीचा दिखाने के लिए पुरुष कोई कसर नहीं छोड़ता।”
“स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।”
ऐसे कथन न केवल विमर्श को तीव्र बनाते हैं, बल्कि पाठक को आत्ममंथन के लिए विवश करते हैं। भाषा की यह कसावट, यह लालित्य, यह संवेदनशीलता “सरनेम” को एक औसत उपन्यास नहीं, बल्कि एक दस्तावेज बनाती है।
उपन्यास की संरचना अत्यंत संतुलित है- प्रत्येक अध्याय किसी विचार के इर्द-गिर्द बुना गया है, जो चरित्र के साथ-साथ पाठक की चेतना को भी परिष्कृत करता चलता है। बार-बार लौटने वाले प्रसंग जैसे कि विवाह की रस्में, पत्नी की भूमिकाएं, सरनेम की परंपरा संदेश की गहराई को और भी प्रभावी बनाते हैं। यह शैली एक सांकेतिक पुनरावृत्ति के माध्यम से उस यंत्रणा को दर्शाती है जिससे स्त्री पीढ़ियों से गुजरती आई है।
राजकुमारी राजसी की लेखनी में एक विलक्षण संवेदना है,जो न केवल स्त्री के अनुभव को अभिव्यक्त करती है, बल्कि उसकी चेतना को भी नया आयाम देती है। “सरनेम” उपन्यास का सबसे प्रभावशाली पक्ष यह है कि यह स्त्री को “अबला” के रूढ़िबद्ध खांचे से निकाल कर उसे एक संघर्षशील, आत्मनिर्भर और वैचारिक रूप से सजग व्यक्तित्व में परिवर्तित करता है।
अवंतिका केवल एक पात्र नहीं, एक प्रतीक बन जाती है, उस हर स्त्री का जो चुपचाप अत्याचार सहती रही, जो समाज के ‘नियमों’ को ईश्वर का आदेश समझती रही, और जिसने सरनेम को अपना भाग्य मान लिया था। परंतु इस उपन्यास में अवंतिका की सोच, उसकी प्रतिक्रियाएं और अंततः उसके निर्णय उसे ‘विरोध’ से आगे बढ़ाकर ‘निर्माण’ की दिशा में ले जाते हैं।
राजसी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे केवल शोषण का चित्रण नहीं करतीं वे “प्रतिरोध के सौंदर्य” को रचती हैं। अवंतिका, वैभव के अत्याचारों को सहकर पीड़िता नहीं बनती, बल्कि वह अपने अनुभवों से एक नई सोच गढ़ती है। वह आत्मनिरीक्षण करती है, अपने अस्तित्व के बीजों को पहचानती है और उन्हें सींचती है। यह परिवर्तन आक्रोश से नहीं, बल्कि आत्मबोध से उपजता है। यही कारण है कि उपन्यास किसी भी क्षण एकपक्षीय आरोप पत्र नहीं बनता, बल्कि यह एक सुसंस्कृत, परिपक्व और विवेचनात्मक साहित्यिक कृति के रूप में प्रतिष्ठित होता है।
उपन्यास में अनुभव सिंघानिया का पात्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह पुरुष पात्र न तो वैभव की तरह स्वामित्व जताता है, न ही अवंतिका के जीवन में ‘मसीहा’ बन कर आता है। वह सहचर है- एक समझदार, संवेदनशील पुरुष जो स्त्री की स्वतंत्रता से डरता नहीं, बल्कि उसे सम्मान देता है। अनुभव के माध्यम से लेखिका यह संदेश देती हैं कि हर पुरुष पितृसत्तात्मक नहीं होता, और स्त्री-पुरुष की समता संभव है, यदि संबंध स्वार्थ और स्वामित्व से परे हों।
राजसी की भाषा का जादू ऐसा है कि पाठक हर वाक्य को आत्मा से महसूस करता है। कहीं-कहीं व्यंग्य के माध्यम से, कहीं सांकेतिक वाक्यों में, और कहीं मार्मिक संवादों में लेखिका वह कह जाती हैं जिसे अक्सर कहा नहीं जाता। उपन्यास की भाषा में लोच भी है, लालित्य भी है और विद्रोह भी। यह शैली कहीं भी बोझिल नहीं होती, बल्कि पाठक को अंत तक बांधे रखती है।
इसके अतिरिक्त, उपन्यास का अंत एक गूढ़ जीवनदर्शन प्रस्तुत करता है। अवंतिका जब नए जीवन के द्वार खोलती है, तो यह केवल एक निजी निर्णय नहीं, बल्कि समूचे सामाजिक ढांचे को चुनौती देने का संकेत है। वह यह सिद्ध करती है कि स्त्री अपने अस्तित्व को पुनः परिभाषित कर सकती है बिना किसी सरनेम के, बिना किसी सामाजिक स्वीकृति के।
राजकुमारी राजसी की “सरनेम” एक ऐसा साहित्यिक औजार है जो स्त्री के भीतर दबे प्रश्नों को मुखर करता है। यह उपन्यास पढ़कर पाठक केवल कथा से नहीं गुजरता, वह एक वैचारिक यात्रा से होकर निकलता है। लेखिका ने अपने सृजन से यह सिद्ध कर दिया है कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि परिवर्तन का माध्यम हो सकता है।
राजकुमारी राजसी का “सरनेम” केवल एक उपन्यास नहीं, स्त्री मुक्ति का घोषणापत्र है। यह एक ऐसी स्त्री की दास्तान है जो समाज द्वारा थोपे गए हर ‘नाम’, ‘रिश्ते’ और ‘दायित्व’ को चुनौती देती है। अवंतिका की यात्रा संघर्षमय है, पर वह एक नई पहचान के साथ समाप्त होती है- एक ऐसी पहचान जिसे उसने स्वयं गढ़ा है, जिसमें उसका अपना “नाम” है, न कि किसी पुरुष का “सरनेम”।
राजसी को इस कृति के लिए जितनी प्रशंसा मिले, कम है। उन्होंने न केवल एक ज्वलंत विषय को उठाया, बल्कि उसे इतनी सशक्तता, सौंदर्य और सजीवता से प्रस्तुत किया कि “सरनेम” आज के समय का एक आवश्यक वाचन बन गया है। जो पाठक सामाजिक सरोकार, स्त्री विमर्श और संवेदनशील साहित्य की तलाश में हैं, उनके लिए यह उपन्यास एक दीपस्तंभ है। “सरनेम” पढ़ने के बाद आप केवल अवंतिका को नहीं, बल्कि अपने भीतर की हर ‘नामहीन स्त्री’ को पहचानने लगेंगे।।“सरनेम” अंततः एक नारी की यात्रा नहीं, समूची स्त्री जाति की पहचान की पुनर्रचना है और इस पहचान को स्वर देने के लिए राजसी की लेखनी शत-शत प्रणाम की पात्र है।
पुस्तक: सरनेम
उपन्यासकार : डॉ. राजकुमारी ‘राजसी’
प्रकाशन: देवसाक्षी पब्लिकेशन, राजस्थान
मूल्य: 300 रुपये