सुशील दीक्षित विचित्र
बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री लिवरल बुद्धिजीवियों , मीडिया के एक वर्ग ही नहीं कांग्रेस के भी निशाने पर हैं। उन पर अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाने वालों में पहले नंबर पर ही वे कांग्रेसी हैं जो मजारों पर चादर चढ़ाते वक्त राहुल गांधी के आसपास बने रहने की कोशिश करते बार- बार देखे गए थे। शास्त्री के विरोधियों में वे भी शामिल हैं जो चंगाई सभाओं और दावते इस्लामी जैसे जलसों को धर्मनिरपेक्षता के चश्में से देखते हैं। अगर चादर चढ़ाना अंधविश्वास नहीं है तो शास्त्री के विचार कैसे अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले माने जा रहे हैं। क्या यह अंधविश्वास की मनमानी व्याख्या नहीं है। हनुमान का नाम से भूत भगाने की बात अगर अवैज्ञानिक है तो क्रास देख कर भूत भागने की बात भी तो वैज्ञानिक नहीं है।
मामले को गहराई से देखें तो तो धीरेन्द्र शास्त्री पर हमले इसलिए नहीं हो रहे हैं कि वे कथित तौर पर ढोंग करते हैं बल्कि इसलिए हो रहे हैं कि उन्होंने घरवापसी की मुहिम चलाई है और मध्य प्रदेश में हिन्दू धर्म छोड़ कर गए सैकड़ों लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित कर भी चुके हैं। इस काम के बाद शास्त्री ने कहा भी था कि अब ईसाई संगठन उनके पीछे पड़ जाएंगे लेकिन वे इससे डरेंगे नहीं क्योंकि वे सत्य के साथ है और सत्य उनके साथ है। मध्य प्रदेश में ही प्रवचन के दौरान जिस दिन उन्होंने आशंका व्यक्त की थी उसके कुछ दिन बाद ही एमपी के ही कांग्रेसी नेता डॉ गोविन्द सिंह ने उन पर अंधविश्वास फैलाने का आरोप लगाया। नागपुर की अंधविश्वास निवारण समिति भी उन्हें चुनौती देने लगी। कांग्रेसी या समिति कुछ भी तर्क दे लेकिन यह छिपा नहीं है कि यह धर्मपरिवर्तन करने वाली संस्थाओं के समर्थन में खड़े हैं और इन्हें घर वापसी जैसे अभियानों से दिक्कत है। कांग्रेस की यह दिक्कत नई नहीं है। स्वामी श्रद्धानंद ने घर वापसी का जब अभियान चलाया था और आर्य समाज ने जगह-जगह जलसे करके अन्य मजहब वालों को वाद विवाद की चुनौती दी तब भी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इसका विरोध किया था। बावजूद इसके किया था कि गांधी जी धर्म परिवर्तन का मुखर विरोध करते थे। उस समय कई कांग्रेसी नेताओं ने श्रद्धानंद को वैसे ही बदनाम करने की कोशिश की थी जैसी कि आज धीरेन्द्र शास्त्री पर हमले की की जा रही है। धर्मपरिवर्तन करने वाले ख़ास कर मिशनरी गिरोहों को देश की कथित सेक्युलर राजनीति का हमेशा साथ मिला। इसी के चलते धर्मपरिवर्तन के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है। इस मांग का , ऐसे किसी कानून को लाने का भी विरोध संसद से सड़क तक जिन्होंने किया उसमें ईसाई संगठन सबसे आगे थे। कांग्रेस के सत्तर वर्ष के शासन के दौरान पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में जनसंख्या परिवर्तन तेजी से होता रहा। कई राज्य जो कभी हिन्दू बहुल थे , आज ईसाई बहुल हो गए। असम में मुसलमानों की संख्या बढ़ी। यह सब तब भी हो रहा है जबकि अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने फिर उस चिंता को जाहिर किया जो चिंता गांधी जी से लेकर विवेकानंद और राममनोहर लोहिया तक जाहिर करते रहे हैं कि धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है। एक व्यक्ति धर्म बदलता है तो राष्ट्र का एक शत्रु बढ़ जाता है। मतलब यह कि हर तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो जाता है।
जादू टोना और अंधविश्वास फैलाने का आरोप तो एक बहाना है। और अगर यह आरोप-आरोप लगाने वाले ठीक मानते हैं तो ऐसी कृपा शास्त्री पर ही क्यों ? मजारे और दरगाहें , जिन पर यही कांग्रेसी नेता चादर चढ़ाते आ रहे हैं , क्या विश्वास फैलाती हैं ? अगर यह सब अंधविश्वास है तो डॉ गोविन्द सिंह को आगे बढ़ कर सबसे पहले मंदिर -मंदिर जाते राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा को रोकना था। उन्हें बताना था कि इस सबसे अंधविश्वास फैलता है। अंधविश्वास निवारण समिति समेत उन सभी लोगों से सवाल है जो आज शास्त्री पर सवालिया निशान लगा रहे हैं कि वे बताएं कि अपवाद छोड़ कर ऐसा कौन सा नेता है जो चुनाव में नामांकन कराने से पहले ज्योतिषियों से गृह नक्षत्र और शुभ घड़ी न विचरवाता ही। क्या डॉ गोविन्द सिंह ने , समिति ने यह लिवरल समूह ने उनका कभी यह कह कर विरोध किया कि इससे अंधविश्वास फैलता है। अगर वे वाकई अंधविश्वास के खिलाफ हैं तो उन्हें नेता ज्योतिष गठजोड़ का विरोध करना चाहिए था। ऐसी ही मुहिम चादरपोशी करने वालों के खिलाफ भी चलानी चाहिए थे और उन चंगाई सभाओं के खिलाफ भी मुखर होना था जिनका काम ही अंधविश्वास से चलता है।
एक सवाल और कि शास्त्री पर आरोप लगाने वालों को कैसे पता कि वे अंधविश्वास फैलाते हैं। हो सकता है कि जिसे वे अंधविश्वास मानते हों वह शास्त्री के भक्त उसे अपना विश्वास मानते हों। आप आस्था को अंधविश्वास नहीं मान सकते और अगर मानते हैं तो हर विश्वास को अंधविश्वास मानना होगा। भारत श्रद्धा का देश है। सभी को अपने धर्म पालन और प्रचार की छूट भी संविधान देता है। इसे कोई ईसाई मिशनरी रोक नहीं सकती। अगर चंगाई सभाओं से धर्मांतरण की मुहिम सही मानी जा रही है तो फिर घर वापसी जैसे अभियानों का विरोध वह खतरनाक पाखंड है जिसका प्रतिकूल असर भारत की सुरक्षा पर पड़ सकता है। यह भी अपने में एक विद्रूप है कि भारत को 2047 तक इस्लामी स्टेट बना देने का सपना देखने वाली पीएफआई जैसे संगठनों का लिवरल बुद्धिजीवियों का समूह न केवल समर्थन करता है बल्कि उनके बचाव में भी उतर आता है लेकिन देश की एकता और अखंडता को मजबूत करने और पत्थरबाजी दंगाइयों के खिलाफ हिंदुओं को एकजुट करने का आवाहन वाले धीरेन्द्र शास्त्री का उदार राजनीतिज्ञ , मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अनर्गल बयानबाजी करके विरोध पर उतरता है। यह दोहरी मानसिकता है। इस दोहरी उदारवादी मानसिकता का खामियाजा देश दंगों के रूप में कई बार भुगत चुका है। इसलिए आस्था पर एक धर्म की श्रद्धा पर प्रहार की राजनीति और समाजनीति बंद होनी चाहिए अन्यथा इसके जो दुष्परिणाम होंगे वे किसी के लिए हितकारी नहीं होंगे।