
“जब पानी भी हथियार बन जाए: भारत की एकता पर डाका”
भारत आज बाहरी हमलों से ज़्यादा आंतरिक विघटन से जूझ रहा है। पंजाब-हरियाणा जल विवाद हो या पहलगाम आतंकी हमला—हर संकट के पीछे एक अदृश्य वैचारिक युद्ध छिपा है। जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और विचारधारा के नाम पर देश के भीतर एक तीसरा मोर्चा खड़ा हो गया है। यह मोर्चा न गोलियों से लड़ता है, न बम से—यह चुपचाप देश की एकता और चेतना को तोड़ता है। जब तक यह मोर्चा नहीं पहचाना जाएगा, भारत बाहरी मोर्चों पर जीत कर भी आंतरिक रूप से हारता रहेगा।
डॉ. सत्यवान सौरभ
जब देश की सुरक्षा की बात होती है, तो ज़्यादातर नज़रें सरहद की ओर उठती हैं—वो रेखा जो हमें पाकिस्तान या चीन से अलग करती है। लेकिन भारत आज जिस सबसे खतरनाक युद्ध का सामना कर रहा है, वह न सीमा पर है, न दुश्मनों की गोलियों में। वह युद्ध भारत के भीतर चल रहा है—हमारी आत्मा, एकता और विचारधारा के खिलाफ।
हाल ही में हरियाणा और पंजाब के बीच पानी को लेकर उठा विवाद महज एक प्रशासनिक समस्या नहीं, बल्कि भारत के संघीय ढांचे की अस्थिरता और क्षेत्रीय असंतुलन की गंभीर चेतावनी है। जब नंगल बांध का जलस्तर बढ़ा, हरियाणा में बाढ़ की स्थिति बनी, और पंजाब ने इसका जिम्मा लेने से इनकार कर दिया, तब यह सिर्फ एक राज्य का दुसरे से विरोध नहीं था। यह उस एकता का टूटना था, जिसकी नींव पर भारत खड़ा है। वहीं दूसरी ओर, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में एक हिंदू पर्यटक की आतंकी हत्या ने यह स्पष्ट कर दिया कि कुछ ताकतें आज भी भारत को धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास कर रही हैं, और यह प्रयास बंदूक की गोली से ही नहीं, वैचारिक ज़हर से भी किया जा रहा है।
भारत के सामने अब तीन युद्धभूमियाँ हैं—सीमाओं पर सैन्य मोर्चा, वैश्विक मंच पर कूटनीतिक मोर्चा, और देश के भीतर चल रहा वैचारिक युद्ध, जिसे मैं ‘आधा मोर्चा’ कहता हूँ। यह आधा मोर्चा अदृश्य है, लेकिन सबसे घातक है। यह हमारे विश्वविद्यालयों, मीडिया, सोशल मीडिया और कभी-कभी हमारी राजनीति में भी दिखाई देता है। यह मोर्चा देश को विचारों से विभाजित करता है, धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर लड़वाता है, और एक सामान्य भारतीय के मन में राष्ट्र के प्रति अविश्वास भरता है।
इस मोर्चे पर लड़ने वाले बहुरूपिए हैं। ये वे लोग हैं जो भारत के टुकड़े होने की कल्पना को क्रांति कहते हैं, जो भारत माता की जय को साम्प्रदायिकता समझते हैं, और जो हर आतंकी घटना को ‘प्रतिक्रिया’ और ‘पृष्ठभूमि’ के चश्मे से देखते हैं। इनके लिए राष्ट्र कोई भावना नहीं, बल्कि आलोचना का विषय है। जब भारत की सेना शौर्य दिखाती है, तो इन्हें मानवाधिकार याद आते हैं। जब भारत वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हासिल करता है, तो ये ‘गरीबी और भुखमरी’ की याद दिलाते हैं। जब भारत वैश्विक मंच पर सम्मान पाता है, तो ये इसकी तुलना ‘तानाशाही’ से करने लगते हैं।
यह ‘विचारधारा’ धीरे-धीरे युवाओं को अपने जाल में लपेट रही है। विश्वविद्यालय, जो चरित्र निर्माण के केंद्र होने चाहिए, अब राष्ट्रविरोधी नारों की प्रयोगशाला बनते जा रहे हैं। एक समय था जब शिक्षा का उद्देश्य था – “सा विद्या या विमुक्तये” यानी जो मुक्त करे वही विद्या है। लेकिन आज की शिक्षा युवाओं को उलझा रही है—इतिहास को विकृत कर, स्वतंत्रता सेनानियों को जातियों में बांट कर, और राष्ट्र की अवधारणा को ‘सांस्कृतिक वर्चस्व’ का नाम देकर।
सोशल मीडिया ने इस आधे मोर्चे को धारदार बना दिया है। ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर एक संगठित प्रयास दिखता है, जिसमें भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’, ‘मनुवादी शासन’, ‘अल्पसंख्यक विरोधी देश’ जैसे टैग दिए जाते हैं। ये टैग न केवल अंतरराष्ट्रीय छवि को प्रभावित करते हैं, बल्कि एक आम भारतीय को भी भ्रमित कर देते हैं। एक आम मुसलमान डर में जीने लगता है, एक आम दलित अलग-थलग महसूस करने लगता है, और एक सामान्य हिंदू अपराधबोध में जीने लगता है।
लेकिन यह वैचारिक युद्ध सिर्फ अकादमिक बहस या सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित नहीं है। इसके वास्तविक और खतरनाक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। पहलगाम की घटना में एक हिंदू पर्यटक को इसलिए मारा गया क्योंकि वह धर्म से ‘हिंदू’ था। यह केवल आतंकवाद नहीं, धर्म आधारित वैचारिक नफरत का चरम रूप है। यह घटना संकेत देती है कि भारत की विविधता को एकता में बदलने की हमारी कोशिशें अभी भी अधूरी हैं, और नफरत की जड़ें बहुत गहरी हैं।
भारत के इस आधे मोर्चे पर राजनीति की भूमिका भी बेहद संदेहास्पद है। जहां सत्ता में आने के लिए नेताओं को राष्ट्रवाद का झंडा उठाना पड़ता है, वहीं वोट पाने के लिए वे समाज को बांटने वाले विमर्शों को बढ़ावा देते हैं। कभी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, कभी दलित आरक्षण की राजनीति, कभी क्षेत्रीय अस्मिता—इन सभी ने भारत की राष्ट्रीय पहचान को कमजोर किया है। राजनीतिक लाभ के लिए देश की एकता को दांव पर लगाना आत्मघाती है, लेकिन आज यही हो रहा है।
इस वैचारिक युद्ध का एक और चेहरा है—पानी, बिजली, संसाधनों और भाषाओं को लेकर क्षेत्रीय लड़ाइयाँ। क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि एक ही देश के दो राज्य—हरियाणा और पंजाब—पानी के लिए एक-दूसरे को बाढ़ और सूखे में झोंकने लगे हैं? क्या यह भी वैचारिक युद्ध का ही हिस्सा नहीं है कि भारत के भीतर ‘दूसरे राज्य से नफरत’ की भावना पैदा की जाए? यही बात भाषाओं को लेकर भी है। हिंदी को थोपने के नाम पर दक्षिण में असंतोष, मराठी बनाम हिंदी, बंगाली बनाम असमिया—ये सब भारत की आत्मा के खिलाफ छेड़े गए ‘आधे युद्ध’ के उदाहरण हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि भारत के इस आधे मोर्चे को उतनी ही गंभीरता से लिया जाए जितनी कि सीमा पर हो रहे सैन्य संघर्ष को। देश की सुरक्षा केवल टैंकों और मिसाइलों से नहीं होती, बल्कि विचारों की स्पष्टता, सामाजिक समरसता और राष्ट्र के प्रति आस्था से होती है। हमें यह समझना होगा कि ‘देश की आलोचना’ और ‘देशविरोध’ में फर्क है, लेकिन यह फर्क तब खत्म हो जाता है जब आलोचना का उद्देश्य सुधार नहीं, विनाश हो।
भारत को इस मोर्चे पर जीतने के लिए केवल सैनिकों की नहीं, बल्कि शिक्षकों, लेखकों, पत्रकारों, कवियों, एक्टिविस्टों और आम नागरिकों की जरूरत है। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को फिर से राष्ट्रनिर्माण की ओर मोड़ना होगा। हमें सोशल मीडिया पर राष्ट्र के पक्ष में भी एक वैचारिक मोर्चा खड़ा करना होगा। और सबसे महत्वपूर्ण, हमें राजनीति को मजबूर करना होगा कि वह देश की कीमत पर राजनीति न करे।
जो लोग इस आधे मोर्चे को ‘स्वतंत्रता की आवाज’ समझते हैं, उन्हें यह भी समझना होगा कि स्वतंत्रता की पहली शर्त है—एकता। एकता के बिना आज़ादी केवल एक भ्रम है। जो राष्ट्र अपने भीतर के दुश्मनों को नहीं पहचान पाता, वह बाहरी दुश्मनों से कब तक लड़ेगा?
भारत की असली परीक्षा युद्ध भूमि में नहीं, विश्वविद्यालयों की कक्षाओं, मीडिया के पन्नों, सोशल मीडिया के पोस्टों और संसद की बहसों में है। यह परीक्षा इस बात की है कि क्या हम भारत को सिर्फ एक भूखंड मानते हैं या एक जीवंत चेतना। यह चेतना केवल तब जीवित रह सकती है जब हर नागरिक, हर छात्र, हर राजनेता और हर लेखक यह समझे कि भारत की विविधता उसकी शक्ति है, कमजोरी नहीं।
इसलिए अब समय है इस ‘आधे मोर्चे’ को पूरी गंभीरता से लेने का। देश को टूटने से बचाने के लिए अब टैंकों से नहीं, विचारों से लड़ना होगा। और इस लड़ाई में हर भारतवासी एक सैनिक है—या तो राष्ट्र के पक्ष में, या राष्ट्र के खिलाफ।