देश चुप है, पत्नी नहीं: एक सिपाही की वापसी की जंग

The country is silent, not the wife: A soldier's fight to return

बीएसएफ़ के जवान पूर्णम साहू पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तान के कब्ज़े में हैं। वह ड्यूटी के दौरान सीमा पार कर गए और तबसे कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं हो पाया है। उनकी पत्नी आठ महीने की गर्भवती हैं और अपने पति की सुरक्षित वापसी के लिए लगातार अधिकारियों से गुहार लगा रही हैं। यह सिर्फ़ एक सैनिक की कहानी नहीं, बल्कि एक अजन्मे बच्चे के पिता को वापस लाने की जद्दोजहद है। यह समय है जब हम सबको मिलकर एक आवाज़ बनना चाहिए, ताकि उनकी रिहाई सुनिश्चित की जा सके और यह संघर्ष अकेला न रह जाए।

प्रियंका सौरभ

भारत-पाकिस्तान सीमा पर तैनात बीएसएफ़ के जवान पूर्णम साहू पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तान के कब्ज़े में हैं। यह सिर्फ़ एक खबर नहीं, बल्कि एक त्रासदी है, जिसमें एक गर्भवती पत्नी की रातें करवटों में बीत रही हैं, एक मां बनने वाली स्त्री अपने अजन्मे बच्चे के पहले हीरो को वापस लाने के लिए लड़ रही है।

यह कहानी न तो किसी फिल्म की पटकथा है, न ही किसी काल्पनिक उपन्यास की घटना। यह आज के भारत की सच्चाई है, और सवाल यह है — क्या हम सब अब भी चुप रहेंगे?

पूर्णम साहू, छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखने वाले एक बहादुर बीएसएफ़ जवान हैं। ड्यूटी के दौरान वह गलती से नियंत्रण रेखा पार कर पाकिस्तान की सीमा में चले गए, जहां उन्हें पकड़ लिया गया। ऐसी घटनाएं अतीत में भी हुई हैं, लेकिन इस बार जो बात इसे और संवेदनशील बनाती है, वह है उनकी पत्नी की स्थिति।

उनकी पत्नी आठ महीने की गर्भवती हैं। एक ओर मातृत्व का इंतज़ार है, दूसरी ओर पतिपरायाण अनिश्चितता। हर बीतता दिन उनके लिए एक सज़ा है। उन्हें न सिर्फ़ अपने बच्चे के लिए शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाए रखना है, बल्कि हर संभव दरवाज़ा खटखटा कर अपने पति की वापसी सुनिश्चित भी करनी है।

जब कोई अभिनेता बालों की स्टाइल बदलता है, तो हज़ारों ट्वीट्स, मीम्स और ख़बरें सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती हैं। लेकिन जब एक सिपाही शत्रु देश के कब्ज़े में होता है, तो जनमानस की प्रतिक्रिया बेहद सीमित और धीमी क्यों होती है?

क्या सैनिकों की पीड़ा अब टीवी चैनलों की टीआरपी लायक नहीं रही?

क्या देशभक्ति अब सिर्फ़ 15 अगस्त और 26 जनवरी की धुनों तक सीमित रह गई है?

पूर्णम साहू की पत्नी की स्थिति को समझने के लिए किसी बड़े विश्लेषण की ज़रूरत नहीं। कल्पना कीजिए कि आप मां बनने वाले हैं, और उसी वक्त आपका जीवनसाथी एक शत्रु देश के कैदी के रूप में कहीं बंद है। न कोई सूचना, न कोई बातचीत, बस इंतज़ार और आँसू।

वह रोज़ अधिकारियों से गुहार लगा रही हैं। वह अपील कर रही हैं प्रधानमंत्री से लेकर रक्षा मंत्री तक, लेकिन उनकी गुहार मीडिया की हेडलाइन नहीं बन रही।

एक सवाल बार-बार उठता है — क्या अगर यही स्थिति किसी मंत्री या अमीर उद्योगपति के परिवार के साथ होती, तो भी प्रतिक्रिया इतनी धीमी होती?

सरकारों का पहला कर्तव्य होता है अपने नागरिकों और विशेषकर अपने सैनिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना। पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध चाहे जैसे भी हों, लेकिन मानवीय आधार पर सैनिकों की वापसी के लिए निरंतर बातचीत और दबाव बनाना सरकार की नैतिक और संवैधानिक ज़िम्मेदारी है।

बीते वर्षों में हमने देखा है कि कई बार पाकिस्तान ने भारतीय नागरिकों को “ग़लती से सीमा पार” करने के बाद लौटाया है। ऐसे में सरकार की ओर से तत्काल कदम उठाना, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुद्दा उठाना और राजनयिक चैनलों से संपर्क बनाए रखना आवश्यक है।

लेकिन क्या आज वैसा कुछ होता दिख रहा है?

बिलकुल कर सकते हैं। आज के दौर में एक हैशटैग, एक वायरल पोस्ट, एक जनअभियान — सरकारों को झकझोरने की ताक़त रखता है। हमें पूर्णम साहू की पत्नी के संघर्ष को उनका अकेला युद्ध नहीं बनने देना चाहिए।

आप ये कर सकते हैं:

  1. सोशल मीडिया पर #BringBackPurnamSahu ट्रेंड करवाइए।
  2. अपने क्षेत्रीय सांसद और विधायकों को मेल और पत्र लिखिए।
  3. ऑनलाइन याचिका (Petition) पर हस्ताक्षर करिए और उसे साझा करिए।
  4. मीडिया चैनलों को मेल कर इस मुद्दे को उठाने का अनुरोध कीजिए।
  5. स्थानीय स्तर पर कैंडल मार्च, जनसभा या शांति प्रदर्शन आयोजित कीजिए।

पूर्णम साहू की पत्नी की लड़ाई, हर उस स्त्री की लड़ाई है जो सीमाओं पर देश की रक्षा में लगे पुरुषों के इंतज़ार में जीवन काटती है। यह हर उस परिवार की कहानी है जो ‘सरहद के इस पार’ रोज़-रोज़ डर के साथ जीते हैं।

उनकी पत्नी की आंखें सवाल कर रही हैं —
“क्या मेरा बच्चा अपने पिता को देख भी पाएगा?”
“क्या उसकी पहली तस्वीर अस्पताल की दीवार पर नहीं, अख़बार के कॉलम में होगी?”
“क्या वाकई मेरे पति की वर्दी उनके जीवन की गारंटी नहीं है?”

जिस मीडिया को एक मंत्री के छींकने तक की खबर “ब्रेकिंग” लगती है, वही मीडिया पूर्णम साहू की खबर को 30 सेकंड की फुटेज से आगे क्यों नहीं ले जा रहा?

क्या आज देश के सैनिकों की कहानियां “न्यूज़वर्दी” नहीं रह गईं?

क्या सैनिकों के लिए हमारी संवेदनाएं अब ‘रीट्वीट’ तक सिमट कर रह गई हैं?

पूर्णम साहू आज एक देश के हाथों बंधक नहीं, हमारी उदासीनता के हाथों बंधक हैं। उनकी पत्नी अकेली नहीं रो रही, देश की आत्मा भी रो रही है — सिर्फ़ हम उसकी आवाज़ नहीं सुन पा रहे।

हर बार जब हम चुप रहते हैं, एक सैनिक की उम्मीद मरती है।
हर बार जब हम बेपरवाह रहते हैं, एक बच्चे का भविष्य अंधेरे में चला जाता है।

आज ज़रूरत है कि हम मिलकर एक स्वर बनें —
पूर्णम साहू की पत्नी की पुकार को इतना बुलंद करें कि वो भारत की संसद तक गूंजे।
उनके अजन्मे बच्चे को हम सबका प्रेम मिले, और उसका जन्म एक उम्मीद बन जाए, न कि एक त्रासदी।

एक पोस्ट करें, एक अपील करें, एक आवाज़ बनें।
क्योंकि जब एक सैनिक सीमा पर हमारे लिए खड़ा रहता है,
तो उसकी पीठ पर हमारी चुप्पी नहीं, हमारी समर्थन की गरज होनी चाहिए।