सीता राम शर्मा ” चेतन “
स्वतंत्रता दिवस हेतु तीस वर्ष पूर्व मैंने प्रभात खबर के लिए एक आलेख लिखा था जिसका शीर्षक था – जरूरत है बौद्धिक क्रांति की ! उस आलेख की बात आज इसलिए कि तीन दशक बाद जब भारत और विश्व में बहुत कुछ बदल चुका है । भारत के दृष्टिकोण से तो तब का बहुत कुछ अब इतिहास ही बन चुका है । संचार क्रांति ने सूचना, सुविधा और ज्ञान तथा मनोरंजन के क्षेत्र में व्यापक बदलाव कर दुनिया को एक गांव जैसा बना दिया है जिसका भारत भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । बावजूद इसके यह घोर आश्चर्य का विषय है कि भारतीय स्वतंत्रता दिवस के लिए मुझे आज भी चिंतन और लेखन के लिए जो प्रमुख शीर्षक और विषय समझ में आता है वह तीन दशक पूर्व का ही है ! इस अवसर पर आज भी यदि पूरी गंभीरता से कुछ लिखा जाए तो यही लिखा जाना चाहिए कि भारत के लिए आज भी सबसे पहली और सबसे बड़ी जरूरत है बौद्धिक क्रांति की ! भले ही देश में बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि के साथ साक्षरता और शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है । उच्च शिक्षा और उच्च स्तरीय प्रतिभा में भारत ने वैश्विक परिदृश्य पर अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है । आर्थिक रुप से भारत विश्व की प्रमुख पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो चुका है । पृथ्वी से लेकर आकाश तक भारत अपनी उपलब्धियों की यात्रा के क्षेत्र में भी भविष्य की अग्रिम पंक्ति का हिस्सा बनने को है ! कभी घर की शोभा मानी जाने वाली महिलाएं लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों की भांति अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं ! पर इन तमाम बदलावों के बावजूद भारत आज भी बौद्धिक क्रांति का मोहताज ही है ! क्यों और कैसे ? इस पर बहुत गहराई से सोचने समझने और समय रहते हर हाल में कुछ नहीं बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि यदि कुछ करने से इसका समाधान हो सकता तो कब का हो चुका होता ।
आइए, अब चिंतन और विमर्श के मूल में जाएं । गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही भारत की सबसे बड़ी समस्या रही है भारतीयों में जातीयता के भाव और राष्ट्रीयता के व्यापक एकात्म भाव चेतना के अभाव की । अखंड भारत से अलग हुए अफगानिस्तान, नेपाल, वर्मा, भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे कई देशों का अस्तित्व इसका जीवंत प्रमाण है । ये तमाम विभाजन भारतीयों के बौद्धिक भटकाव और उनकी राष्ट्रीय चेतना के न्यूनता की परिणिति हैं । तीन सौ वर्ष से अधिक का भारतीय परतंत्रता का इतिहास भी भारतीयों के राष्ट्रीय एकात्म भाव के अभाव का ज्वलंत प्रमाण ही है ! दुर्भाग्य से राष्ट्रीय एकात्म भाव की चेतना का वह अभाव आज भी बना हुआ है । एक राष्ट्र और राष्ट्रधर्म की बौद्धिक चेतना के अभाव को हम सरल शब्दों में लगभग हर भारतीयों में अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक चेतना के अभाव के रुप में समझ सकते हैं । गौरतलब है कि जब तक किसी देश की मूल और बहुसंख्यक आबादी में उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक चेतना का समग्र और सारगर्भित विकास नहीं होगा, उनमें आपसी सद्भाव, एकता और विश्वास का अभाव होगा । अभाव की यह स्थिति भारत में सदैव रही है और आज भी बनी हुई है ! फलस्वरूप बाहरी स्वार्थी, विभाजनकारी और षड्यंत्रकारी ताकतों ने यहां व्यापक धर्मांतरण, अव्यवस्था, अराजकता और विभाजन का षड्यंत्रकारी दौर सदियों से जारी रखा है । भारत में आज भी राजनीति और राजनीतिज्ञों का केंद्र जाति-धर्म की राजनीति करना ही है और संगठित शांतिपूर्ण समृद्धि और शक्ति के विकास को राजनीति का केंद्र बनाने की बजाय जब तक जाति-धर्म की भिन्नता को राजनीति का केंद्र बनाया जाएगा, देश का स्थाई विकास होगा भी नहीं । अब सवाल यह है कि भारत को अपने सुरक्षित और विकसित राष्ट्र के सपने को आखिर कैसे साकार करना चाहिए ? उसके लिए भारत में कैसी बौद्धिक क्रांति की जरूरत है ? या सच्च कहें तो बाध्यता है ?
भारत के सुरक्षित, समृद्ध, शक्तिशाली और विकसित भविष्य के निर्माण के लिए भारत को सबसे पहले अपने बहुसंख्यक समाज का बौद्धिक विकास करने की जरूरत है । जिसके लिए सबसे पहले उसे यह बताने समझाने की जरूरत है कि उसकी अंदरुनी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक अज्ञानता का लाभ उठाकर कुछ बाहरी ताकतों ने एक दूरगामी षड्यंत्र के तहत कैसे उसके राष्ट्र को कई भागों में विभाजित कर दिया था ? कैसे भारत की स्वतंत्रता के पहले ही एक दूरगामी षड्यंत्र के तहत ना सिर्फ देश में चले आ रहे जातिवाद को उन्होंने ज्यादा घातक और अस्थिर तथा आक्रांत बने रहने का मुख्य औजार बना दिया था ? इसमें भी कतई संदेह नहीं है कि भारत को स्वतंत्र करते हुए जाते-जाते भी अंग्रेजों ने हमारे शासकों के मस्तिष्क और व्यवस्था में वो सारी बातें भर दी थी जिससे उनके जाने के दशकों बाद तक इस देश को उनका मस्तिष्क ही चलाता रहे ! दुर्भाग्य से उसमें वे सफल भी रहे और उसका सबसे बड़ा कारण भारतीयों में बौद्धिक चेतना का अभाव होना रहा । जिसमें मुख्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक चेतना का अभाव रहा है । सर्वाधिक चिंतनीय स्थिति यह है कि पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक चेतना में थोड़े सुधार के बावजूद राजनीतिक और न्यायिक चेतना की स्थिति आज भी लगभग पहले जैसी ही बनी हुई है ! जिसमें त्वरित सुधार अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यदि चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा पर जाकर वहां अपनी गहरी पैठ बना चुकी उस विकृत मानसिकता पर कठोर प्रहार नहीं किया गया और उसमें सुधार को गति नहीं दी गई तो सामाजिक चेतना के आंशिक विकास से उसका सिर्फ और सिर्फ टकराव ही होगा, जो किसी भी दृष्टिकोण और नतीजे से अच्छा नहीं होगा । इसलिए बेहतर होगा कि समय रहते समग्र राष्ट्रीय जनमानस में एक राजनीतिक और न्यायिक बौद्धिक क्रांति लाई जाए ।