ललित गर्ग
देश में 18वीं लोकसभा चुनी जा चुकी है, मंत्रिमंडल का गठन हो चुका है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और रिकॉर्ड संख्या में मतदाता होने के गर्व करने वाली स्थितियां हैं वहीं चिन्ताजनक, विचलित एवं परेशान करने वाली स्थितियां भी हैं। खबर आई है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में पहुंचने वाले 543 सांसदों में 46 फीसदी आपराधिक रिकॉर्ड रखते हैं जो पिछली बार से तीन प्रतिशत अधिक है। भारतीय राजनीति में आपराधिक छवि वाले या किसी अपराध के आरोपों का सामना कर रहे लोगों को जनप्रतिनिधि बनाए जाने एवं उन्हें राष्ट्र-निर्माण की जिम्मेदारी दिया जाना-हर नागरिक के माथे पर चिंता की लकीर लाने वाली है। क्या इस स्थिति में देश की लोकतांत्रिक शुचिता एवं पवित्रता की रक्षा हो पाएगी? क्या हम आदर्श एवं मूल्यपरक समाज बना पाएंगे? क्या ये दागदार नेता एवं जन-प्रतिनिधि कालांतर हमारी व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेंगे? चुनाव प्रक्रिया से जुड़े मसलों का विश्लेषण करने वाली सचेतक संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ताजा रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2019 में चुने गये सांसदों में जहां 233 यानी 43 फीसदी ने अपने विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज होने की बात स्वीकार की थी, वहीं अठाहरवीं लोकसभा के लिये चुने गए 251 सांसदों ने आपराधिक मामले दर्ज होने की बात मानी है। जो कुल संख्या का 46 फीसदी बैठती है।
आज भारत की आजादी के अमृतकाल का एक बड़ा प्रश्न है भारत की राजनीति को अपराध मुक्त बनाने का। यह बेवजह नहीं है कि देशभर में अपराधी तत्त्वों के राजनीति में बढ़ते दखल ने एक ऐसी समस्या खड़ी कर दी है कि अपहरण के आरोपी अदालत में पेश होने की जगह मंत्री पद की शपथ लेने पहुंच जाते हैं। अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता आम चुनाव में कहते हैं कि आप लोग बड़ी संख्या में आम आदमी पार्टी को वोट दें ताकि मैं जेल जाने से बच जाऊं। हम ऐसे चरित्रहीन एवं अपराधी तत्वों को जिम्मेदारी के पद देकर कैसे सुशासन एवं ईमानदार व्यवस्था स्थापित करेंगे? कैसे आम जनता के विश्वास पर खरे उतरेंगे? कैसे संसद में दागियों के पहुंचने के लिये द्वार बंद हांेगे? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की सजग पहल पर ही वर्ष 2020 से सभी राजनीतिक दल लोकसभा व विधानसभा के उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को प्रकाशित करने लगे है। निश्चित ही इस आदेश का मकसद देश की राजनीति को आपराधिक छवि वाले नेताओं से मुक्त करना ही था। लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों की प्राथमिकता जीतने वाले उम्मीदवार थे, अब चाहे उनका आपराधिक रिकॉर्ड ही क्यों न हो।
बड़ा प्रश्न है कि आखिर राजनीति में तब कौन आदर्श उपस्थित करेगा? क्या हो गया उन लोगों को जिन्होंने सदैव ही हर कुर्बानी करके आदर्श उपस्थित किया। लाखों के लिए अनुकरणीय बने, आदर्श बने। चाहे आज़ादी की लड़ाई हो, देश की सुरक्षा हो, धर्म की सुरक्षा हो, अपने वचन की रक्षा हो अथवा अपनी संस्कृति और अस्मिता की सुरक्षा का प्रश्न हो, उन्हांेने फर्ज़ और वचन निभाने के लिए अपना सब कुछ होम दिया था। महाराणा प्रताप, भगत सिंह, दुर्गादास, छत्रसाल, शिवाजी जैसे वीरों ने अपनी तथा अपने परिवार की सुख-सुविधा को गौण कर बड़ी कुर्बानी दी थी। गुरु गोविन्दसिंह ने अपने दोनों पुत्रांे को दीवार में चिनवा दिया और पन्नाधाय ने अपनी स्वामी भक्ति के लिए अपने पुत्र को कुर्बान कर दिया। ऐसे लोगों का तो मन्दिर बनना चाहिए। इनके मन्दिर नहीं बने, पर लोगों के सिर श्रद्धा से झुकते हैं, इनका नाम आते ही। लेकिन आज जिस तरह से हमारा राष्ट्रीय जीवन और सोच विकृत हुए हैं, हमारी राजनीति स्वार्थी एवं संकीर्ण बनी है, हमारा व्यवहार झूठा हुआ है, चेहरों से ज्यादा नकाबें ओढ़ रखी हैं, उसने हमारे सभी मूल्यों को धराशायी कर दिया। राष्ट्र के करोड़ों निवासी देश के भविष्य को लेकर चिन्ता और ऊहापोह में हैं। वक्त आ गया है जब देश की संस्कृति, गौरवशाली विरासत को सुरक्षित रखने के लिए कुछ शिखर के व्यक्तियों को भागीरथी प्रयास करना होगा। दिशाशून्य हुए नेतृत्व वर्ग के सामने नया मापदण्ड रखना होगा। अगर किसी हत्या, अपहरण या अन्य संगीन अपराधों में कोई व्यक्ति आरोपी है तो उसे राजनीतिक बता कर संरक्षण देने की कोशिश या राजनीतिक लाभ उठाने की कुचेष्ठा पर विराम लगाना ही होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार एवं अपराध मुक्त राजनीति को सदैव प्राथमिकता दी लेकिन चुनाव जीतने के रण में वे भी अपराधी राजनेताओं को प्रश्रय देते हुए दिखे हैं।
सभी राजनीतिक दलों ने ही दागी उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं। जो राजनीतिक दलों की कथनी और करनी के भारी अंतर को ही उजागर करता है। सवाल है कि देश के लिये नीति निर्धारण करने वाले ऐसे दागी लोग हमारे भाग्यविधाता बने रहेंगे तो हमारा भविष्य कैसा होगा? क्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद हमारी कानून-व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेंगे? क्या होगा हमारे समाज व व्यवस्था का भविष्य? क्यों तमाम आदर्शों की बात करने वाले और दूसरे दलों के नेताओं की कारगुजारियों पर सवाल उठाने वाले नेता राजनीति को अपराधियों के वर्चस्व से मुक्त कराने की ईमानदार पहल नहीं करते? क्यों सभी राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र में शुचिता एवं पवित्रता के लिये सहमति नहीं बनाते? निश्चित रूप से यदि समय रहते इस दिशा में कोई गंभीर पहल नहीं होती तो आने वाले वर्षों में दागियों का यह प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जाएगा। इसके साथ ही बड़ा संकट यह भी है कि देश के निचले सदन में येन-केन-प्रकारेण करोड़पति बने नेताओं का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। इस बार संसद में चुनकर आए सांसदों में 504 करोड़पति हैं। ऐसे में क्या उम्मीद की जाए कि अपनी मेहनत की कमाई से जीवनयापन करने वाला आम आदमी कभी सांसद बनने की बात सोच सकता है? दागी एवं अपराधी राजनेता लोकतंत्र की एक बड़ी विडम्बना एवं विसंगति बनते जा रहे हैं। बात लोकसभा की ही नहीं है, विभिन्न राज्यों की सरकारों में भी कैसा विरोधाभास एवं विसंगति है कि एक अपराध छवि वाला नेता कानून मंत्री बन जाता है, एक अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे प्रतिनिधि को शिक्षा मंत्री बना दिया जाता है। ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालय के साथ होता है। यह कैसी विवशता है राजनीतिक दलों की? अक्सर राजनीति को अपराध मुक्त करने के दावे की हकीकत तब सामने आ जाती है जब किसी राज्य या केंद्र में गठबंधन सरकार के गठन का मौका आता है। यह खुशी की बात है कि केन्द्र में बनी गठबंधन सरकार के मंत्रिमण्डल में ऐसी विवशता को काफी सीमा तक नियंत्रित किया गया है। सीमाओं पर राष्ट्र की सुरक्षा करने वालों की केवल एक ही मांग सुनने में आती है कि मरने के बाद हमारी लाश हमारे घर पहुंचा दी जाए। ऐसा जब पढ़ते तो हमारा मस्तक उन जवानों को सलाम करता है, लगता है कि देश भक्ति और कुर्बानी का माद्दा अभी तक मरा नहीं है। लेकिन राजनीति में ऐसा आदर्श कब उपस्थित होगा। राजनीति में चरित्र एवं नैतिकता के दीये की रोशनी मन्द पड़ गई है, तेल डालना होगा। दिल्ली सरकार में मंत्रियों के घरों पर सीबीआई के छापे और जेल की सलाखें हो या बिहार मंत्री परिषद के गठन में अपराधी तत्वों की ताजपोशी-ये गंभीर मसले हैं, जिन पर राजनीति में गहन बहस हो, राजनीति के शुद्धिकरण का सार्थक प्रयास हो, यह नया भारत -सशक्त भारत की प्राथमिकताएं होनी ही चाहिए।
ंसभी अपनी-अपनी पहचान एवं स्वार्थपूर्ति के लिए दौड़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। कोई पैसे से, कोई अपनी सुंदरता से, कोई विद्वता से, कोई व्यवहार से अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए प्रयास करते हैं। राजनीति की दशा इससे भी बदतर है कि यहां जनता के दिलों पर राज करने के लिये नेता अपराध, भ्रष्टाचार एवं चरित्रहीनता का सहारा लेते हैं। जातिवाद, प्रांतवाद, साम्प्रदायिकता को आधार बनाकर जनता को तोड़ने की कोशिशें होती है। पर हम कितना भ्रम पालते हैं। पहचान चरित्र के बिना नहीं बनती। बाकी सब अस्थायी है। चरित्र एक साधना है, तपस्या है। जिस प्रकार अहं का पेट बड़ा होता है, उसे रोज़ कुछ न कुछ चाहिए। उसी प्रकार राजनीतिक चरित्र को रोज़ संरक्षण चाहिए और यह सब दृढ़ मनोबल, साफ छवि, ईमानदारी एवं अपराध-मुक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। राजनीति में चरित्र-नैतिकता सम्पन्न नेता ही रेस्पेक्टेबल (सम्माननीय) हो और वही एक्सेप्टेबल (स्वीकार्य) हो।