
समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारतीय आधुनिक कथा-साहित्य के आकाश में मनीषा मंजरी एक ऐसी दीपशिखा बनकर उभरी हैं, जिनकी लेखनी न केवल संवेदनाओं को स्वर देती है, बल्कि पाठकों की आत्मा को भी एक नवीन दृष्टि से आलोकित करती है। उनके उपन्यासों में यथार्थ और भाव की जो सूक्ष्म संगति दिखाई देती है, वह उन्हें समकालीन लेखिकाओं में विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। मनीषा मंजरी की शैली सहज होते हुए भी गहराई से आप्लावित है, जहाँ हर वाक्य किसी स्मृति की तरह मन में उतरता है और हर संवाद किसी अव्यक्त पीड़ा को स्पर्श करता है।
“अर्धविराम” उनकी ऐसी ही एक विलक्षण कृति है, जो केवल कथा नहीं, बल्कि आत्म-चिंतन की एक यात्रा है। यह उपन्यास रहस्य, मनोविज्ञान और प्रेम की त्रिवेणी को इस तरह समेटे हुए है कि पाठक प्रत्येक पात्र में कहीं न कहीं स्वयं को टटोलने लगता है। वेदांत और शर्ली के माध्यम से लेखिका ने न केवल आंतरिक पीड़ा और अधूरेपन को शब्द दिए हैं, बल्कि उन मौन क्षणों को भी अभिव्यक्ति दी है, जो सामान्यतः साहित्य में छूट जाते हैं। “अर्धविराम” के माध्यम से मनीषा मंजरी ने यह सिद्ध किया है कि साहित्य का सर्वोत्तम स्वरूप वह है, जो मनुष्यता की सबसे गहन परतों को स्पर्श कर सके और यह उपन्यास उसी स्पर्श की एक अद्वितीय मिसाल है।
मनीषा मंजरी का उपन्यास “अर्धविराम” इसी मौन, इसी रहस्य और इसी सौंदर्य के साथ पाठक को एक ऐसी यात्रा पर ले जाता है, जहाँ घटनाएँ बाहरी नहीं, भीतरी भूगोल की उपज हैं। यह उपन्यास एक मनोवैज्ञानिक रहस्य-गाथा है, परंतु इसमें छिपा भाव-संवेदना का वितान कहीं अधिक गहरा है। यह एक संवेदनशील मन की रचना है, जहाँ हर किरदार एक प्रतीक है अधूरेपन का, स्मृतियों का, और उस मौन की छाया का जिसे हम प्रेम, जीवन या मृत्यु कहकर संबोधित करते हैं।
“अर्धविराम” शीर्षक ही उपन्यास के मूल भाव की ओर इशारा करता है, यह एक ऐसा ठहराव है जो अंत नहीं है, पर निरंतरता भी नहीं। यह वह अवस्था है जब जीवन न पूर्णविराम पा सका है, न ही गति। वेदांत और शर्ली, दोनों ही इस अर्धविराम की प्रतीकात्मकता हैं। वे दोनों ही अपने-अपने अतीत की ध्वनियों से घायल हैं। दोनों अपने अंतर्मन में ऐसे प्रश्न लिए फिरते हैं जिनका उत्तर किसी मनोचिकित्सा से नहीं, संवेदना की गहराइयों में उतर कर ही पाया जा सकता है।
यह प्रेम की कहानी है, लेकिन यहाँ प्रेम कंधों पर हाथ रखने या नजरों के मिलन तक सीमित नहीं। यह प्रेम, पीड़ा की गोद में पला है, स्मृतियों की आग में तपकर बना है। यहाँ प्रेम मौन है, प्रतीक्षा है, समझ है और वह साहस है जो किसी टूटे हुए मन को फिर से जोड़ने का प्रयत्न करता है।
जब उपन्यास के प्रारंभिक अध्याय में एक रहस्यमयी हत्या की बात सामने आती है, तो वह केवल एक पुलिस केस नहीं रह जाती, बल्कि वह जीवन की उन अनसुलझी गुत्थियों की प्रतीक बन जाती है जो दिखने में सामान्य होते हुए भी भीतर रक्तरंजित होती हैं। यह हत्या रहस्य को जन्म देती है, लेकिन “अर्धविराम” केवल रहस्य को सुलझाने का उपक्रम नहीं है, यह उस मानसिक भूगोल की छानबीन है जहाँ हर कोई कुछ न कुछ छिपा रहा है स्वयं से भी।
मनीषा मंजरी ने वेदांत के चरित्र को जिस सूक्ष्मता से गढ़ा है, वह प्रशंसनीय है। वह अपने पेशे से लोगों की मानसिक पीड़ा समझता है, पर स्वयं के भीतर पनपती खामोशी को ना तो शब्द दे पाता है, ना उपचार। उसके संवाद कम हैं, लेकिन उसकी निगाहों में, उसकी चुप्पियों में जो अनकहे भाव हैं, वे पाठक को वेदांत के भीतर की यात्रा पर साथ ले जाते हैं। शर्ली का चरित्र यथार्थ और प्रतीकात्मकता का अद्भुत समागम है। वह कभी रहस्य है, कभी प्रेम, कभी पीड़ा, और कभी अपने ही अस्तित्व से जूझती स्त्री। वह वेदांत के जीवन में एक परिवर्तन बनकर आती है, लेकिन वह परिवर्तन धीमा, गहराई लिए और आत्मा को छू लेने वाला है।
मनीषा मंजरी की लेखनी में एक खास किस्म की लयात्मकता है। शब्द जैसे गद्य नहीं, गीत बन जाते हैं। वह दृश्य नहीं रचतीं, भावों की भित्ति चित्रित करती हैं। पाठक न केवल कहानी पढ़ता है, बल्कि उसे महसूस करता है, जैसे हर संवाद उसके भीतर गूँजता है।उपन्यास में मनोविज्ञान की गहराई है, पर वह पाठकों को बोझिल नहीं लगती। लेखिका ने न तो शुष्क विश्लेषणों का सहारा लिया है और न ही घटनाओं को सनसनीखेज रूप दिया है। हर मोड़, हर रहस्य, हर संवाद एक प्राकृतिक गति में प्रवाहित होता है।
“अर्धविराम” में मृत्यु की उपस्थिति केवल शारीरिक अंत नहीं है। यह स्मृति की पुनरावृत्ति, आत्मा की पीड़ा और जीवन के अर्थ की खोज का प्रतीक है। वेदांत और शर्ली, दोनों अपने अतीत की मृत्यु से जूझते हैं। उनकी स्मृतियाँ उन्हें चैन नहीं लेने देतीं, और यही स्मृतियाँ उनके वर्तमान को अर्थ देती हैं। यह उपन्यास एक प्रश्न उठाता है कि क्या हम केवल वही हैं जो वर्तमान में दिखते हैं, या हमारी पहचान हमारे पीछे छूटे पलों की एक अंतहीन श्रृंखला है? क्या हम स्वयं को पा सकते हैं, जब तक हम अतीत की परछाइयों से मुक्त न हो जाएँ?
इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह अपने पाठकों से संवाद करता है, केवल घटनाओं के स्तर पर नहीं, बल्कि उनके भीतर गूंजती संवेदनाओं के स्तर पर। यह उन लोगों के लिए है जिन्होंने कभी किसी प्रिय को खोया है, जो अधूरे प्रेम के भार से गुजरे हैं, जो अपने ही भीतर किसी उत्तर की तलाश करते हैं। यह उपन्यास बताता है कि “अर्धविराम” अंत नहीं होता, यह एक ठहराव है, एक रुक कर साँस लेने की जगह, एक मौका स्वयं को फिर से गढ़ने का। और यदि यह अवसर भलीभाँति लिया जाए, तो यह अर्धविराम भी किसी पूर्णविराम से अधिक संपूर्ण हो सकता है।
मनीषा मंजरी की “अर्धविराम” केवल एक कथा नहीं, एक अनुभव है, एक भावनात्मक यात्रा जो हमें बताती है कि अधूरापन ही कभी-कभी हमारे जीवन का सबसे सुंदर हिस्सा होता है। उपन्यास न तो केवल रहस्य है, न केवल प्रेम कथा, और न ही केवल मनोवैज्ञानिक अध्ययन। यह इन तीनों का ऐसा विलक्षण संगम है, जहाँ पाठक हर पृष्ठ के साथ स्वयं को और अधिक खोलता है। यह उन विरलों में एक है जो पढ़ने के बाद पाठक के भीतर टिकता है, जैसे कोई चुप्पी, कोई अधूरी बात, कोई स्मृति, जो समय बीतने के बाद भी पूर्णविराम नहीं पाती, बल्कि हमारे भीतर अपना अर्धविराम बनाकर जीवित रहती है।
पुस्तक: अर्धविराम
उपन्यासकार : मनीषा मंजरी
प्रकाशन: सहित्यपिडिया
मूल्य: 350 रुपये