डिजिटल दुनिया में जेंडर का सवाल

जावेद अनीस

जनसंचार (मास मीडिया) सामाजीकरण का एक सशक्त माध्यम है, जनमानस पर इसका व्यापक प्रभाव है. संचार के सिद्धांतकार मार्शल मैक्लुहान (1964) के अनुसार, मास मीडिया न केवल लोगों को जानकारी और मनोरंजन देता है, बल्कि उनकी राय, दृष्टिकोण और मान्यताओं को आकार देकर लोगों के जीवन को भी प्रभावित करता है. यह एक अदृश्य तरीके से प्रमुख आधिपत्यवादी विचारधारा को स्थानांतरित करके सामाजिक जीवन को नियंत्रित करता है. डिजिटल दुनिया में भी यह नियम लागू होता है.

हमारे समाज की पितृसत्तात्मक संरचना जीवन के लगभग हर क्षेत्र में भेदभाव के बुनियाद पर टिकी हुई है जो बचपन से ही अपना काम करना शुरू कर देती है जिसे हम बुनियादी स्वास्थ्य, देखभाल से लेकर पोषण व शिक्षा जैसे मामलों में बहुत स्पष्ट तरीके से महसूस कर सकते हैं. आज भी भारतीय समाज में मुख्य रूप से स्त्रियों को गृहस्थी का देखभाल करने वाले और पुरुषों को बाहर का काम (कमाने वाले) के रूप में देखा जाता है. स्त्री-पुरुष भूमिकाओं के विभाजन का यह रूढ़िवादी मॉडल जनसंचार साधनों में गहराई से स्थापित है. आज भी दुनिया भर के मीडिया व सोशल मीडिया के ठिकाने असमान लैंगिक प्रतिनिधित्व, पुरुषत्व और स्त्रीत्व के रूढ़िवादी चित्रण जैसे सदियों पुराने रोग के शिकार हैं और अपनी सामग्रियों के माध्यम से लैंगिक स्टीरियोटाइपिंग की धारणा को मजबूत कर रहे हैं.

परम्परागत मीडिया पर एक नजर
जेंडर और मीडिया का रिश्ता काफी उलझन भरा रहा है. फिर वो चाहे वह मीडिया में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का मसला हो या मीडिया में उनका स्टीरियोटाइप चित्रण. मुख्यधारा की पत्रकारिता में स्त्रियों की भागीदारी तकरीबन 17 प्रतिशत के आसपास है, निर्णायक पदों पर तो स्थिति और भी खराब है, यूनाइटेड नेशंस वूमेन द्वारा 2019 जारी रिपोर्ट “भारतीय मीडिया में लैंगिक असमानता रिपोर्ट” में पाया गया है कि किसी भी न्यूजरूम के शीर्ष के 100 नेतृत्व वाले पदों पर 26 प्रतिशत से अधिक महिलायें नहीं हैं, ऑनलाइन पोर्टलस में करीब 26 प्रतिशत, न्यूज़ चैनलों में 21 प्रतिशत और पत्रिकाओं में 14 प्रतिशत महिलायें ही शीर्ष पदों पर हैं. यही हाल मीडिया में महिलाओं को मिलने वाले कवरेज का भी हैं. साल 2017 में जारी “वीमेंस मीडिया सर्वे रिपोर्ट” के अनुसार प्रिंट, टीवी और न्यूज़ में औरतों को अधिकतम 38 प्रतिशत बाइलाइन मिलती हैं. इसमें भी गंभीरता कम होती है और महिलाओं से सम्बंधित अधिकतर खबरें मसालेदार या सतही होती हैं. इसी तरह से अंग्रेजी अखबारों में सम्पादकीय पेज पर छपने वाले प्रत्येक 4 लेखों में से केवल एक ही लेख किसी महिला द्वारा लिखे जाते हैं जबकि हिंदी अखबारों में ये स्थिति 17 प्रतिशत के आसपास है.

डिजिटलाइजेशन और डिजिटल लैंगिक विभाजन
डिजिटलाइजेशन आज की दुनिया की एक सच्चाई है, इसने हमारी दुनिया को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. आज इसकी दखलंदाज़ी ने जीवन के लगभग हर क्षेत्र को प्रभावित किया है. इंटरनेट के उद्भव के साथ संचार के क्षेत्र में बुनियादी और व्यापक परिवर्तन हुए हैं, इसने एक तरफ़ा प्रेषक के प्रभुत्व वाले संचार को दो तरफ़ा बना दिया है और अब संचार माध्यम सिर्फ बड़े मीडिया घरानों तक ही नहीं बल्कि सबके हाथ का खिलौना बन गया है. इधर कोरोना महामारी के बाद से दुनिया भर में इन्टरनेट के उपयोग में व्यापक वृद्धि हुई है.

आज के इस युग में “डिजिटल साक्षरता” एक बुनियादी जरूरत बन गयी है, और इसमें पीछे रह गए लोग एक नए “डिजिटल रूप से पिछड़े वर्ग” के रूप में गिने जाने लगे हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इंटरनेट की सुविधा को मौलिक अधिकार बनाने की वकालत की जा रही है लेकिन भारत का एक बड़ा वर्ग आज भी इन्टरनेट की पहुँच से दूर है. संयुक्त राष्ट्र के ई-पार्टिसिपेशन इंडेक्स 2022 में भारत कुल 193 देशों में 105वें नंबर पर है जिसका मतलब है भारत ऑनलाइन सेवाओं तक पहुंच और इसके इस्तेमाल के मामले में अभी भी बहुत पीछे है और अन्य मामलों की तरह इस मामले में दलित, आदिवासी, महिलायें और ग्रामीण क्षेत्र पीछे हैं. ऑक्सकफैम इंडिया द्वारा जारी “इंडिया इनइक्वलिटी रिपोर्ट 2022, डिजिटल डिवाइड” बताती है कि देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के पास मोबाइल फोन होने की संभावना 15 प्रतिशत कम है साथ ही महिलाओं द्वारा मोबाइल इंटरनेट सेवाओं का उपयोग करने की संभावना भी 33 प्रतिशत कम है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 61 प्रतिशत पुरुष और 31 प्रतिशत महिलाएं फोन का इस्तेमाल करती हैं.

इसके आर्थिक दुष्प्रभाव भी हैं, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 में पाया गया है कि देश में केवल 22.5 प्रतिशत महिलाएं ही वित्तीय लेनदेन के लिए मोबाइल फोन का उपयोग करती हैं जिसका मतलब है कि देश के एक तिहाई से अधिक महिलायें डिजिटल कुशलता वाले श्रम बाजार के दायरे से बाहर हैं.

सोशल मीडिया में जेंडर का सवाल
सोशल मीडिया ने हमारे संचार व्यवहार को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. यह एक अनोखा माध्यम है जो दुनिया की कुछ चुनिन्दा कंपनियों के नियंत्रण में है. ये कम्पनियाँ अपने आकार में दैत्य और व्यवहार में एकाधिकारवादी हैं लेकिन इसी के साथ ही इसने संचार के माध्यम को पूरी तरह से विकेन्द्रित कर दिया है, अब सोशल मीडिया का उस्तरा सबके हाथ में है, हर कोई प्रेषक और प्राप्तकर्ता दोनों है. इसने वास्तविक दुनिया के बरक्स एक आभासी दुनिया को रच दिया है जो भ्रम और सच का अनोखा मिलाप है.
सोशल मीडिया साइट्स सभी को जानकारी साझा करने, दूसरों से जुड़ने, विचारों पर संवाद करने और प्रभावित करने का मौका देते हैं. सोशल मीडिया ने महिलाओं को भी इस तरह से अभिव्यक्ति का खुला मौका दिया है जो पुरानी मीडिया माध्यमों के विमर्श के दायरे से बाहर थीं. इसने जेंडर विमर्श के उन मुद्दों पर बात करने के लिए मंच दिया है जिनपर आम तौर पर समाज में खामोश या उदासीनता रही है.

प्रतिनिधित्व और अभिव्यक्ति का मौका
कई शोधों से पता चला है कि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर महिलाओं की संख्या संतोषजनक है और यह लगातार बढ़ रही है, ख़ास बात यह है कि सोशल मीडिया महिलाओं के लिए अपनी पहचान बनाने और एकजुट होने का एक सशक्त माध्यम साबित हो रहा है. यहाँ महिलायें विभिन्न मसलों पर खुलकर अपनी राय रख रही हैं. सोशल मीडिया लैंगिक समानता की वकालत करने वालों के लिए भी एक अच्छा माध्यम साबित हो रहा है साथ ही यह महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों और महिला केंद्रित अन्य समस्याओं के खिलाफ भी सकारात्मक भूमिका निभा रहा है. फेसबुक जैसे माध्यमों पर ऐसे सैकड़ों पेज हैं जो इस तरह के मसलों को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से उठा रहे हैं साथ ही इन मसलों पर लोगों को जागरूक और संवेदनशील बनाने का काम भी हर रहे हैं. इन सबसे जेंडर का एक स्त्रीवादी नैरेटिव सामने आया है.

इंटरनेट और सोशल मीडिया ने दुनिया भर के महिलाओं को संगठित होने, एक-दूसरे से जुड़ने व एकजुटता जताने का मौका भी दिया है. मिसाल के तौर पर मीटू अभियान का नाम लिया जा सकता है जिसकी शुरुआत अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता तराना बर्क ने साल 2016 में माईस्पेस नामक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किया था, जो बाद में यौन उत्पीड़न और हमले के खिलाफ एक वैश्विक आंदोलन के रूप में उभर कर सामने आई, दुनिया भर की कई महिलाओं ने सोशल मीडिया पर बताया कि कैसे कार्य स्थलों पर उनके साथ यौन उत्पीड़न हुआ था और किस तरह से उन्हें चुप रहना पड़ा.

चित्रण, ट्रोलिंग और आनलाईन हिंसा
उपरोक्त तमाम सकारात्मक पहलुओं के बावजूद सोशल मीडिया के माध्यम भी महिलाओं के प्रति सदियों पुरानी सोच और धारणाओं के मुक्त नहीं है. सोशल मीडिया साईट्स भी अपने तरीके से महिलाओं के लिए प्रचलित स्टीरियोटाइप को ही मजबूत करने का काम कर रहे हैं आमतौर पर सोशल मीडिया के विज्ञापनों, प्रतिगामी बहसों में महिलाओं को सेक्स के वस्तु के रूप में किया जाता है और उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से निर्मित लैंगिक भूमिकाएं के दायरे में प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर महिलायें ऑनलाइन हिंसा और ट्रोलिंग की सबसे बड़ी शिकार हैं. इस दिशा में किये गये कई शोध इस बात की तस्दीक करते हैं कि महिलाएं इंटरनेट पर होने वाली हिंसा का ज्यादा शिकार होती हैं. दरअसल इंटरनेट ट्रोलिंग की जड़ें पितृसत्ता से जुडी हैं जो महिलाओं को दोयम दर्जे का मानती हैं और जिसे महिलाओं का खुलकर अपनी रखना सख्त नापसंद है. उन्हें महिलाओं की स्वतंत्र पहचान भी पसंद नहीं है. इसलिए हम देखते हैं कि जो महिलाएं सोशल मीडिया पर सामाजिक-राजनीतिक रूप से ज्यादा मुखर हैं और जो विभिन्न मुद्दों के स्पष्ट व खुले तौर पर तौर पर अपनी राय जाहिर करती है उन्हें आनलाईन हिंसा और ट्रोलिंग का सामना अधिक करना पड़ता है. एलजीबीटी समुदाय के मामले में तो यह दर और अधिक है.

इसलिए इसका एक अलग असर देखने को मिल रहा है, इसी संदर्भ में आईआईएम इंदौर द्वारा देश के तीन प्रमुख मैनेजमेंट कॉलेज के युवाओं के सोशल मीडिया व्यवहार को लेकर किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण हैं जिसमें पाया गया कि महिलाएं सोशल मीडिया के मंचों पर भी खुद को अभिव्यक्त करने में संकोच करती हैं, जिसका एक प्रमुख कारण यह है कि उन्हें ट्रोल किया जाता है और वे ऑनलाइन अभद्रता का शिकार होती हैं.

इस दिशा में यूनेस्को द्वारा महिला पत्रकारों के प्रति ऑनलाइन हिंसा को लेकर किया गया एक ग्लोबल सर्वे भी गौरतलब है जिसमें 125 देशों की 900 महिला पत्रकारों शामिल किया गया था, अध्ययन के दौरान 73 प्रतिशत महिला पत्रकारों द्वारा बताया गया कि उन्हें अपने काम और पेशे की की वजह से ऑनलाइन हिंसा का सामना पड़ा है,यहाँ तक कि 25 प्रतिशत महलाओं को जान से मारने की और 18 प्रतिशत को यौन हिंसा की धमकियों तक मिली है.

इसी प्रकार से यहाँ 2020 में एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा जारी किये किये अध्ययन रिपोर्ट “ट्रोल पैट्रोल इंडिया: एक्सपोजिंग ऑनलाइन एब्यूज फेस्ड बाय वुमेन पॉलिटिशियंस इन इंडिया” का जिक्र भी मुनासिब होगा जिसके अनुसार भारत में ट्विटर पर पुरुष नेताओं के मुकाबले महिला नेताओं के साथ अधिक अभद्र भाषा इस्तेमाल किया जाता है. सर्वे के अनुसार, उन महिला नेताओं को सबसे ज्यादा निशाने पर लिया जाता है, जो अपनी राय रखती हैं. इसमें महिला नेताओं पर उनके लिंग, धर्म, जाति, शादी और अन्य निजी मुद्दों को लेकर निशाना साधा जाता है.

बहरहाल अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद सोशल मीडिया प्लेटफोर्म महिलाओं के लिए एक ‘प्रभावी स्पेस’ साबित हो रहे हैं, इसकी वजह से उनमें कौशल और जागरूकता बढ़ी है, वे विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों पर मुखर हो रही है लेकिन फिर भी लैंगिक समानता की यात्रा में यह एक पड़ाव है, इस दिशा में अभी लम्बा सफर तय करना है.