मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता है शाश्वत !

The relationship between man and nature is eternal!

सुनील कुमार महला

हाल ही में जम्मू-कश्मीर में बादल फट जाने से बहुत तबाही मची।सच तो यह है कि प्रकृति समय-समय पर मानव को अपना प्रकोप दिखा रही है और कहीं न कहीं मानव को आगाह कर रही है कि अभी भी यदि हमने अपने पर्यावरण और प्रकृति पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में हमें और भी अधिक प्राकृतिक प्रकोपों का सामना करना पड़ सकता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार हाल ही में रामबन जिले के सेरी बागना इलाके में 20 अप्रैल को सुबह बारिश के बाद बादल फटने से 3 लोगों की मौत हो गई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस ने करीब 100 लोगों को रेस्क्यू किया। बादल फटने की इस दुखद घटना(तीन लोगों की मौत पर) पर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने गहरा दुख व्यक्त किया है। उपमुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी स्थिति का जायजा लेने के लिए प्रभावित इलाकों का दौरा कर रहे हैं।नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने सरकार से प्रभावित परिवारों को पर्याप्त राहत प्रदान करने के लिए केंद्र से वित्तीय सहायता का अनुरोध करने की बात कही है। बहरहाल, जानकारी के अनुसार जम्मू-कश्मीर में की दिनों से बारिश हो रही है और बादल फटने से अचानक बाढ़ आने के कारण पहाड़ का मलबा गांव की तरफ आ गया, जिसकी चपेट में कई लोग और घर आ गए। किश्तवाड़ में तो पूरा पहाड़ दरक गया बताया जा रहा है।जानकारी के अनुसार रामबन जिले के बनिहाल इलाके में कई जगह लैंडस्लाइड(भूस्खलन) हुई हैं। इसके कारण जम्मू-श्रीनगर नेशनल हाईवे बंद कर दिया गया है। बताया जा रहा है कि बारिश व लैंडस्लाइड के कारण सैकड़ों वाहन फंसे हुए हैं और किश्तवाड़-पद्दर मार्ग भी बंद बताया जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार यहां वाहनों की आवाजाही रोक दी गई है और अधिकारियों ने मौसम साफ होने के बाद ही हाईवे पर सफर करने की अपील की है। पाठक जानते होंगे कि भूकंप, बाढ़, चक्रवात, ज्वालामुखी विस्फोट, भूस्खलन, सूखा, हिमस्खलन, ओलावृष्टि, और तूफ़ान जैसी घटनाएं प्राकृतिक प्रकोप या आपदाओं के अंतर्गत आतीं हैं। इससे हमारे पर्यावरण, हमारी पारिस्थितिकी, मानव को तो नुकसान होता ही है, ऐसी घटनाओं से आर्थिक नुकसान भी पहुंचता है। स्वास्थ्य सेवाओं पर भी प्राकृतिक आपदाओं के कारण दबाव बढ़ता है। हालांकि, प्रकृति का मनुष्य के पास आज भी कोई तोड़ नहीं है और हम प्रकृति का कभी सामना नहीं कर सकते हैं। प्रकृति के प्रकोपों के लिए कहीं न कहीं हम मानव ही कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। वास्तव में हमें यह चाहिए कि हम किसी भी हाल और परिस्थितियों में प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं करें ,क्योंकि प्रकृति मनुष्य के साथ ही धरती के सभी जीव-जंतुओं के लिए बहुत अहम और महत्वपूर्ण है। पाठक जानते हैं कि प्रकृति से हमें भोजन, पानी, दवा, ईंधन, आश्रय, और ऑक्सीजन प्राप्त होती है।सच तो यह है किप्रकृति के बिना हमारा अस्तित्व नहीं रह सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘दश कूप समा वापी, दशवापी समोह्नद्रः। दशह्नद समः पुत्रों, दशपुत्रो समो द्रमुः।।’ इसका भावार्थ यह है कि एक पेड़ दस कुओं के बराबर,एक तालाब दस सीढ़ी के कुएं के बराबर, एक बेटा दस तालाब के बराबर, एक पेड़ दस बेटों के बराबर होता है। बहरहाल,यह प्रकृति ही के कारण है कि इस धरती पर हमारा, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का अस्तित्व संभव है। आज मनुष्य अपने स्वार्थों और लालच के चलते प्राकृतिक संसाधनों का असीमित और अंधाधुंध दोहन कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्राकृतिक संसाधनों का संयमी इस्तेमाल करना बहुत जरूरी है। प्रकृति में संसाधनों की कमी नहीं है, यदि हम इनका विवेकपूर्ण तरीके से और संयमी इस्तेमाल करें। आज हम कहने को तो प्रकृति के प्रति जागरूक हैं, लेकिन सच तो यह है कि हम लगातार खनन, पेड़ों की कटाई, पानी व खनिज संसाधनों का दोहन करने में लगे हैं। विकास के नाम पर हमने प्रकृति को आज कहीं का नहीं छोड़ा है। आज अंधाधुंध प्रदूषण (मिट्टी, वायु,जल) फैलाया जाता है, लेकिन इसको ढंग से प्रबंधित नहीं किया जाता है। जीवाश्म ईंधन जलाया जाता है, जैसा कि आबादी बढ़ने के साथ ही इसमें अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, हालांकि आज जीवाश्म ईंधन को कम करने के लिए इलैक्ट्रिक वाहनों और अन्य ईंधनों पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन हमें प्रकृति संरक्षण के लिए और अधिक आगे बढ़कर काम करने की आवश्यकता है।सच तो यह है कि आज मानव को जरूरत इस बात की है कि वह प्रकृति से नाता जोड़ें और लालच और स्वार्थ से नाता तोड़े। वास्तव में हम मनुष्यों ने आज पर्यावरण और प्रकृति का बहुत बड़ा नुकसान किया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंधाधुंध विकास ने हमारे पूरे प्राकृतिक चक्र को बिगाड़ कर रख दिया है।हम जल, जंगल और जमीन का संरक्षण कृतसंकल्पित होकर नहीं कर पा रहे हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में शुरू से ही प्रकृति और पर्यावरण को विशेष महत्त्व दिया गया है और यहां तक कहा गया है कि ‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:’ अर्थात यह पृथ्वी ही हमारी माता है और हम सभी देशवासी इस धरा की संतान हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में वृक्षों, जल, वायु, अग्नि, नदियों, समुद्र, और धरती को पूज्य माना गया है। आज कुंआ, सरोकार, तालाब, झीलें, जोहड़ पहले की तुलना में कम रह गये हैं,उनका पुनरूद्धार नहीं हो पा रहा है। वास्तव में, आज पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने के लिए सामूहिक और व्यापक-आधारित कार्रवाई की ज़रूरत है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक सीमाओं के पार लोगों को शामिल करने वाले संरक्षण प्रयासों की ज़रूरत है। आज जरूरत इस बात की है कि हम प्रकृति के प्रति संवेदनशील और जागरूक बनें। हमें वृक्षों का संरक्षण और संवर्धन करना होगा। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमने अंधाधुंध विकास को ही सब कुछ मान लिया है, जिसका परिणाम हमारे सामने है। आज धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है, प्रदूषण के बारे में तो कहना ही क्या ? हमने नदियों के जल को पानी या विद्युत स्रोत मान कर उनका दोहन किया। नदियों को प्रदूषण का केंद्र बना डाला है। मिट्टी, वायु प्रदूषित हो चुके हैं। हम फसलों के अवशेषों को जलाते हैं। सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग कम करते हैं। अंधाधुंध निर्माण कार्य कर रहे हैं। वास्तव में पहले के जमाने में हमारा प्राकृतिक दुनिया के प्रति गहन सम्मान था और हम पारिस्थितिकीय परस्पर निर्भरता के प्रति जागरूक थे, शायद आज उतने जागरूक और संवेदनशील हम नहीं रहे, क्यों कि इसमें हमारा स्वार्थ और लालच आड़े आ गया है।हम प्रकृति से सबकुछ छीन कर अपनी गोदी में भर लेना चाहते हैं। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है कि आज हम मानव समाजों के साथ-साथ पर्यावरण के अस्तित्व और कल्याण की गारंटी पर कृतसंकल्पित होकर ईमानदारी से काम करें। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि जम्मू-कश्मीर में जो तबाही आईं है, उसके लिए कहीं न कहीं स्थानीय प्रशासन, वन विभाग और जिला प्रशासन की लापरवाही, मिलीभगत या भ्रष्टाचार को जिम्मेदार माना जा सकता है। वास्तव में, आज हमारा समाज इतना लालची व स्वार्थी हो गया है कि इसे अपनी आने वाली पीढ़ियों की भी कोई परवाह नहीं रह गईं है। आज हम प्रकृति को संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं। क्या यह हमारे की विडंबना नहीं है कि आज हमारे देश में गोचर भूमि ,वन भूमि पर अत्यधिक अतिक्रमण हो रहे है। वहां कंक्रीट की दीवारें (आवासीय भवन) खड़े किए जा रहे है। आज पशु-पक्षियों, पेड़ों , वनस्पतियों की अनेक जातियाँ लुप्त होती जा रही हैं। हमारे जल स्त्रोत आज कचरादान बनते जा रहे है। रिसाइकिल(पुनर्चक्रण) की ठोस व्यवस्थाएं नहीं हैं। प्लास्टिक प्रदूषण ने इस धरती का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। जिन नदियों को हम मातृवत् पूजते रहे हैं, अब उनमें कल-कारखानों का प्रदूषित जल(रासायनिक व गंदा जल)प्रवाहित हो रहा है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर आज हमारी पुरातन परम्पराएं और रीति-रिवाज समाप्त प्रायः हो गये है। वर्तमान सभ्यता(पाश्चात्य संस्कृति)और भौतिकता की विषबेल इतनी फलित हो गई हैं कि इसने हमारे देश की समग्र संस्कृति को खत्म प्रायः सा कर दिया है। पाश्चात्य संस्कृति हम सब पर हावी होती चली जा रही है। वास्तव में आज हम सब यह भूल चुके हैं कि ‘पर्यावरणनाशेन, नश्यन्ति सर्वजन्तवः।पवनः दुष्टतां याति, प्रकृतिर्विकृतायते।’ अर्थात पर्यावरण के प्रदूषित होने से सभी प्राणी नष्ट हो जाते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘शाश्वतम्, प्रकृति-मानव-सङ्गतम्,सङ्गतं खलु शाश्वतम्।तत्त्व-सर्वं धारकं सत्त्व-पालन-कारकं वारि-वायु-व्योम-वह्नि-ज्या-गतम्। शाश्वतम्, प्रकृति-मानव-सङ्गतम्।।’ इसका तात्पर्य यह है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच का संबंध शाश्वत है।यह रिश्ता शाश्वत है।जल, वायु, आकाश के सभी तत्व,अग्नि और पृथ्वी वास्तव में धारक हैं और जीवों के पालनहार। बहरहाल, पर्वतीय राज्यों उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के बाद अब जब जम्मू-कश्मीर में तबाही आईं है, तो इसमें कोई हैरान होने की बात नहीं है , बल्कि आज हमें इस बात की चिंता करने की जरूरत है कि आखिर हम कब तक प्रवृति से खिलवाड़ करके अपने जीवन को संकट में डालते रहेंगे। अंत में यही कहूंगा कि मानव और प्रकृति का रिश्ता एक अटूट रिश्ता है। मसलन, सूर्य धरती के समस्त जीवों और वनस्पतियों के जीवन का स्त्रोत है, यह धरती हम सभी का घर है,वायु प्राणशक्ति की संचालक है, और जल जीवन का असली आधार है।प्रकृति हमें निःस्वार्थ भाव से सब कुछ देती है, वैसे ही हमारा भी कर्तव्य है कि हम प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहें और उसकी रक्षा करें।