मोदी के चेहरे पर विधानसभा चुनाव लड़ने के और भी हैं मायने..!

ऋतुपर्ण दवे

हर विधानसभा चुनाव को आम चुनाव से जोड़कर देखना भारत में साधारण बात है। कभी इन्हें सत्ता का सेमीफाइनल तो कभी लिटमस टेस्ट कहा जाता है। लेकिन नतीजों के बाद ऐसे दावे अक्सर या खुद दरकिनार हो जाते हैं या फिर फुस्स। बीते बरसों में जितने भी राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए सभी को इसी नजरिए से देखा गया। ये बात अलग है कि बाद में इनको लेकर ऐसा कोई गंभीर विश्लेषण हुआ ही नहीं। हाँ, नवंबर-2023 में होने जा रहे पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव जरूर तमामरणनीतिक गतिवधियों के चलते अलग-अलग दिखते नजर आ रहे हैं। जिस रास्ते भाजपा चल रही है वह खुद ही बड़ा संकेत है। इसकी शुरुआत भले मध्यप्रदेश से हुईलेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी यही प्रयोग दोहरा मौजूदा सांसदों या केन्द्रीय मंत्रियों को जंग में उतारने की अनोखी कोशिश से इन राज्यों के भाजपाई दिग्गज यहां तक कि पूर्व या मौजूदा मुख्यमंत्री भी अचरज में पड़ गए क्योंकि सिवाय प्रत्याशी किसी को कानों कान खबर नहीं थी।

यह कहना गलत होगा कि भाजपा सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़वाने खातिर पहली बार कमर कस रही हो। इसके लिए साल 2003 में विदिशा से सांसद शिवराज सिंह चौहान को मुरैना मेंतत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ चुनाव में उतारा था। तब प्रतिष्ठा का प्रश्न बना यह चुनाव भले ही शिवराज हारेलेकिन भाजपा का तरकश कमजोर नहीं था। इसी दौरान मध्यप्रदेश में 10 वर्षोंसे सत्ता पर काबिज दिग्विजय सिंह की काँग्रेस सरकार हटाने खातिर उस वक्त के भाजपा नेतृत्व को उमा भारती का तीर सबसे मजबूत दिखा।उन्होंने भी तुरंत केन्द्रीय कोयला मंत्री का पद छोड़ा और मध्यप्रदेश भाजपा की कमान संभाली। भाजपा की जड़ें जमाना शुरू किया जिसकी परिणिति अंततः दिग्विजय सिंह का पत्ता साफ कर ही हुई। लेकिन राजनीतिक चक्रव्यूह ऐसा होता है कि कब कौन कहां शिकार हो जाए पता ही नहीं चलता! उमा भारती के साथ भी ऐसा ही हुआ। 15 अगस्त 1994 को वो कर्नाटक के हुबली के कित्तूर रानी चेनम्मा मैदान में तिरंगा फहराने गईं। वहां दंगा हुआ और 6 लोगों की जान चली गई। कर्नाटक में उनके खिलाफ वारण्ट जारी हुआ। 17 वारण्टों का जवाब नहीं देने पर गैर जमानती गिरफ्तारी वारण्ट पर कर्नाटक पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। महज 8 महीने में ही उमा भारती को इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद भाजपा से बाहर भी हुईं और वापसी भी की। लेकिन मुख्यमंत्री कभी नहीं बन पाईं।बाबूलाल गौर के बाद शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश के लगातार मुख्यमंत्री रहे। 2018 में सिवाय 15 महीने की कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के जिसे शिवराज सिंह ने अपने रणनीतिक कौशल से उखाड़ाऔर दोबारा सत्ता में वापसी कर मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बनाया।

भाजपा पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाने का प्रयोग कर चुकी है। ऐसा लगता है जो झलकता भी है कि यह भाजपा की चुनावी रणनीति का महीन हिस्सा है जिससे खुद ही भाजपाई भौंचक्के हैं। टिकट दावेदार भले ही जिस नजरिए से देखें लेकिन असल में यह बहुत ही सोची, समझी, सधी हुई चाल है।इसे देखने वालों का अपना-अपना नजरिया भी है। भाजपा का टिकट वितरण चाहे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ या राजस्थान का हो सभी में एक साथ कई-कई संदेश छिपे हैं। बेशक मध्यप्रदेश में भाजपा उदारवादी मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज का चेहरा सामने रखने मेंअब सत्ता विरोधी लहर और दूसरे अन्दरूनीडर से डरी होवहींप्रदेश काँग्रेस अभी भी संगठनात्मक रूप से उतनी मजबूत नहीं है जो होना था।छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार, संगठन व लोकप्रियता मेंभाजपा को बड़ी चुनौती नजर आ रहे हैं। राजस्थान में विजयाराजे सिंधिया के वजूद और सचिन पायलट की हां-ना के बीच पशोपेश की स्थिति से लगता है कि वहाँ आंतरिक चुनौतियां कम नहीं हैं।

परिस्थितियों के चलते भाजपा किसे आगे करे, किसे मुखौटा बनाए के बजाए सबको आपस में उलझाए रखने जैसी रणनीति छिपा डैमेज कंट्रोलतो नहीं है? राजस्थान में प्रधानमंत्री की मंशा पर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ का बयान सियासी तौर परउफान पर है जिसमें नए नेतृत्व की बात का विचार है।निश्चित रूप से राजस्थान में कांग्रेस से ज्यादा चुनौती भाजपा में हैं। हाल ही में सचिन पायलट कई बार कह चुके हैं कि 5 साल में सरकार बदलने का रिवाज अब टूटेगा। छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी लहर जैसा कुछ समझ तो नहीं आ रहा है। हो सकता है कि यहां काँग्रेस 2018 के मुकाबले और सुधार करे। भाजपा ने यहां कई मौजूदा सांसदों और केन्द्रीय मंत्रियों को विधानसभा की टिकट देकरजो प्रयोग किया है उसके नतीजों पर सबकी निगाहें होंगी। आम आदमी पार्टीजरूर अपने पैर जमाने के लिए लंबे समय से कवायद करती दिख रही है उसके लिए यह चुनाव अहम होंगे। तेलंगाना में मुख्य मुकाबला बीआरएस, कांग्रेस और भाजपा के बीच है।टीडीपी और एआईएमआईएम भी ताल ठोंक रही है। मिजोरम में मुकाबला एमएनएफ, जेडपीएम, कांग्रेस और भाजपा के बीचही होगा।

टिकिट वितरण में बड़े चेहरों पर ज्यादा भरोसा दोनों ही दलों में असंतोष का कारण जरूर बनेगा लेकिन चुनौती नहीं।इन चुनावों में भाजपा को हर कहीं प्रधानमंत्री के चेहरे को सामने रख चुनाव लड़ने केआगामी फायदे भी दिख रहे हैं क्योंकि चंद महीनों बाद होने वाले आम चुनाव में इन्हेंभंजाया जाएगा। निजी तौर पर अभी प्रत्याशी मतदाताओं से विधानसभा चुनाव में जुड़ेंगेजिसेचंद महीनों बाद आम चुनाव में भी भुनाने की जवाबदारी होगी। बस यही वो छोटा सा दिखने वाला अदृश्य कारण है जिसके चलते ये विधानसभा चुनाव बेहद अलग होंगे। बहरहाल कशमकश, आयाराम-गयाराम की राजनीति के बीच वायदों की जलेबी तो जनता न जाने कब से खा रही है जो अब ताजा चाशनी से फिर तर दिख रही है।