ये छठ ज़रूरी है… धर्म से अधिक, समाज और संस्कृति का पर्व

This Chhath is important… more than religion, it is a festival of society and culture

छठ महापर्व केवल सूर्य की उपासना नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, स्त्री-सशक्तिकरण, पर्यावरणीय चेतना और पारिवारिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है, कारीगरों और ग्रामीण जीवन को सम्मान देता है और समानता का संदेश फैलाता है। आधुनिकता के युग में भी इसकी सादगी और अनुशासन भारतीय समाज की आत्मा को जीवित रखते हैं। यही कारण है कि — ये छठ ज़रूरी है। बेहद ज़रूरी।

डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत पर्वों की भूमि है, जहाँ हर उत्सव केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और मानवीय भावनाओं का उत्सव भी होता है। इन्हीं में से एक सबसे अनूठा और जनसामान्य से जुड़ा पर्व है — छठ। यह पर्व न किसी पुरोहित की आवश्यकता रखता है, न किसी दिखावे की; यह उस संस्कृति का उत्सव है जो समानता, संयम और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को अपना धर्म मानती है।

आज जब हम आधुनिकता की चकाचौंध में अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, तब छठ जैसे पर्व हमें अपनी पहचान का स्मरण कराते हैं। यह पर्व केवल धार्मिक नहीं — सांस्कृतिक, पारिवारिक और मानवीय एकता का जीवंत प्रतीक है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह हमें याद दिलाता है कि हम कहाँ से आए हैं और हमारी सभ्यता किन मूल्यों पर टिकी है। आज के समय में जब गाँव से शहर की ओर पलायन सामान्य हो गया है, लोग अपनी मातृभूमि से दूर जाकर महानगरों की भीड़ में गुम हो रहे हैं, तब छठ ही वह अवसर बनता है जब घर-घर लौटने की परंपरा जीवित होती है। वे बेटे जो सालभर अपने काम में उलझे रहते हैं, इस पर्व के बहाने घर लौटते हैं। वे माँएँ, जो महीनों से अपनी संतान की प्रतीक्षा में आकाश की ओर निहारती हैं, इस अवसर पर उन्हें अपने सामने देखकर अश्रुपूर्ण हो जाती हैं। वह परिवार, जो आर्थिक मजबूरियों और दूरी के कारण टुकड़ों में बंट गया है, छठ के अवसर पर फिर एकत्र होता है — यही है इस पर्व की वास्तविक शक्ति।

छठ केवल सूर्य की आराधना नहीं, बल्कि परिवार, समाज और प्रकृति की एक साथ पूजा है। यह हमें याद दिलाता है कि जड़ों से कटकर कोई वृक्ष फल नहीं दे सकता।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उस नई पीढ़ी के लिए भी संदेश है जो अब गाँव, नदी और खेत की दुनिया से अनभिज्ञ हो गई है। आज के बच्चे नदियों को किताबों के चित्रों में देखते हैं, मिट्टी की सोंधी खुशबू केवल कविता में पढ़ते हैं और सूर्य को नमस्कार करना “रिवाज” समझते हैं। छठ उन्हें यह सिखाता है कि प्रकृति पूजा का नहीं, सम्मान का विषय है। सूर्य की आराधना केवल धर्म नहीं, पर्यावरणीय चेतना का भी प्रतीक है — यह पर्व बताता है कि जीवन सूर्य और जल के बिना अधूरा है।

यह पर्व एक अवसर है उस समाज के लिए जो तकनीकी प्रगति की दौड़ में प्रकृति से विमुख हो गया है। छठ के दौरान नदी, तालाब, पोखर — सब सजीव हो उठते हैं। शहरों में लोग कृत्रिम तालाब बनाकर ही सही, प्रकृति से जुड़ने की कोशिश करते हैं। यह प्रयास बताता है कि मनुष्य चाहे जितना आगे बढ़ जाए, उसकी आत्मा अब भी धरती और जल से ही जुड़ी है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उस सामाजिक व्यवस्था के लिए एक आईना है जो अब भी स्त्री को सीमित भूमिकाओं में देखना चाहती है। छठ का व्रत स्त्रियों की वह असाधारण शक्ति दिखाता है जो तप, संयम और समर्पण का प्रतीक है। दिन-रात की कठोर साधना, उपवास और पवित्रता की शर्तें केवल विश्वास नहीं — आत्मबल का प्रमाण हैं। यह पर्व बिना पुरोहितों, बिना आडंबर और बिना किसी मध्यस्थ के भी पूरा होता है — यहाँ हर स्त्री स्वयं पूजारी होती है, सृजक होती है।

यह परंपरा उस पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देती है जो मानती है कि धर्म का संचालन केवल पुरुषों का कार्य है। छठ कहता है — “आस्था में लिंग नहीं होता, विश्वास में समानता होती है।” यह वही पर्व है जो डूबते सूरज को भी प्रणाम करता है — यह विनम्रता और संतुलन का अद्भुत प्रतीक है।

ये छठ ज़रूरी है क्योंकि यह उन हजारों हाथों की मेहनत को जीवित रखता है जो लोकपरंपरा से जुड़े हैं। गाँव की महिलाएँ महीनों पहले से सूप, दौउरा, माटी के दीये, बाँस की टोकरी, और पूजा की सामग्री तैयार करती हैं। यह पर्व केवल श्रद्धा नहीं, रोज़गार और सम्मान का भी माध्यम है। गागर, नींबू, सुथनी, गन्ना, नारियल, और ठेकुआ जैसे प्रसाद न केवल स्वाद का हिस्सा हैं, बल्कि एक पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चलाते हैं।

जब शहरों में पैक्ड पूजा-सामग्री बिक रही है, तब भी छठ में गाँव के बने सूप और दौउरे की महत्ता बरकरार है — क्योंकि लोग जानते हैं कि यह केवल वस्तु नहीं, परंपरा की आत्मा है। इस प्रकार छठ त्योहार केवल सांस्कृतिक नहीं, आर्थिक पुनर्जागरण का भी उत्सव है — जहाँ कारीगरों, किसानों और स्त्रियों को समान स्थान मिलता है।

ये छठ ज़रूरी है उन करोड़ों प्रवासी भारतीयों के लिए जो अपने देश से दूर रहकर भी इस पर्व के माध्यम से अपनी मिट्टी को महसूस करते हैं। दुबई, लंदन, न्यूयॉर्क या मॉरीशस में जब गंगा के प्रतीकस्वरूप किसी जलाशय के किनारे छठ पूजा होती है, तो यह केवल पूजा नहीं, संस्कृति की पुनर्स्थापना है। यह बताता है कि भारतीय संस्कृति का प्रवाह भौगोलिक सीमाओं से परे है।

छठ उन प्रवासियों के लिए भावनात्मक पुल है जो विदेश में रहते हुए भी अपनी मातृभूमि से जुड़े रहना चाहते हैं। यह पर्व परिवारों, मोहल्लों और समाजों को जोड़ता है। जहाँ बाकी पर्वों में वैभव का प्रदर्शन होता है, वहीं छठ में संयम, सादगी और एकजुटता की झलक मिलती है। न कोई ऊँच-नीच, न कोई जाति-पात — बस एक सामूहिक भाव: “सूर्य देव सबके हैं।”

आज के समय में जब “त्योहार” केवल फोटो और सोशल मीडिया पोस्ट का विषय बनते जा रहे हैं, छठ अब भी अनुभव का पर्व है। यह हमें सिखाता है कि परंपरा का अर्थ जड़ता नहीं, बल्कि निरंतरता है। हर वर्ष यह पर्व हमें याद दिलाता है कि आधुनिकता और आध्यात्मिकता विरोधी नहीं, पूरक हैं। स्मार्टफोन, एलईडी लाइट और ड्रोन कैमरों के बीच भी जब कोई महिला गीले बालों के साथ व्रत करती है, तो यह बताता है कि संस्कृति जीवित है, बस रूप बदल गया है।

छठ इस बात का प्रमाण है कि हमारी सभ्यता की नींव किसी किताब या आदेश से नहीं, बल्कि अनुभव और जीवन-शक्ति से बनी है। यह पर्व न किसी विशेष जाति का है, न किसी विशेष वर्ग का — यह उस जनसंस्कृति का उत्सव है जो कहती है, “जहाँ सूर्य है, वहीं जीवन है।”

छठ केवल एक धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक अनुशासन का पाठ है। यह सिखाता है कि समर्पण और संयम से ही समाज टिकता है। जब परिवार, मोहल्ला, समाज सब एक साथ घाट पर उतरते हैं, तब एक सामूहिक चेतना जन्म लेती है — जो कहती है कि हम एक हैं।

आज के समय में जब विभाजन, अलगाव और असमानता की रेखाएँ गहरी होती जा रही हैं, तब छठ जैसा पर्व हमें एक सूत्र में बाँधता है। यह न किसी धर्म के पक्ष में है, न किसी के विरोध में — यह तो उस “मानव धर्म” का पर्व है जो कहता है, “सूर्य सबका है, जल सबका है, जीवन सबका है।”

छठ का अर्थ केवल पूजा नहीं, बल्कि आत्मसंयम, कृतज्ञता और एकता का अभ्यास है। यह पर्व हमें हमारी मिट्टी, हमारी माँ, हमारे परिवार और हमारी प्रकृति से जोड़ता है। जब तक यह पर्व जीवित है, तब तक भारतीय समाज की आत्मा जीवित है।

इसलिए हाँ — ये छठ ज़रूरी है।
धर्म के लिए नहीं, समाज के लिए।
उन बेटों के लिए जो घर लौटना भूल गए हैं,
उन माताओं के लिए जो प्रतीक्षा में हैं,
उन कारीगरों के लिए जिनके हाथों में परंपरा साँस लेती है,
उन स्त्रियों के लिए जो हर कठिनाई में भी मुस्कान के साथ व्रत निभाती हैं,
और उस संस्कृति के लिए जो बताती है कि डूबते सूरज को भी प्रणाम करना आभार का सबसे बड़ा रूप है।

छठ ज़रूरी है —
क्योंकि यह हमें मानव बनाकर रखता है।
बेहद ज़रूरी।