
के. पी. मलिक
नई दिल्ली : आगामी 12 अगस्त को होने जा रहा कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया का चुनाव इस बार सिर्फ एक संस्था के नेतृत्व का चुनाव नहीं, बल्कि सत्ता के भीतर बदलती हवाओं की प्रतीकात्मक लड़ाई बन गया है।
पिछले 25 वर्षों से लगातार निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाते रहे भाजपा नेता राजीव प्रताप रूडी इस बार पहली बार असहज स्थिति में हैं। उनके सामने चुनौती देने उतरे हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि से आने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान।
राजीव प्रताप रूडी ने वर्षों तक संसदीय और गैर-संसदीय मंचों पर अपनी सजग उपस्थिति और संपर्क-क्षमता से खुद को स्थापित किया है। लेकिन समय के साथ स्थिरता कभी-कभी जड़ता में बदल जाती है। कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के चुनाव में इस बार वही स्थिति बनती दिख रही है।
संजीव बालियान का नामांकन केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि भाजपा के भीतर एक ” मोदी पीढ़ी बनाम वाजपेई व्यवस्था” की टकराहट का संकेत है। ऐसा माना जा रहा है कि बालियान को शीर्ष नेतृत्व विशेष रूप से गृह मंत्री अमित शाह और लोकसभा में प्रभावशाली भूमिका निभा रहे निशिकांत दुबे का परोक्ष समर्थन प्राप्त है।
हाल में संसद भवन में अमित शाह द्वारा बालियान की पीठ थपथपाना और दक्षिण भारत के कई सांसदों द्वारा खुला समर्थन इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह चुनाव केवल क्लब के कमरे तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसकी गूंज लुटियंस दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में सुनाई देगी।
कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया एक प्रतीक है सत्ता के गलियारों में संवाद, संपर्क और सहमति का। उसका नेतृत्व किसके पास रहता है, यह भले ही सीधे संसद नहीं चलाता, परंतु प्रभाव के स्तर पर यह एक ‘माइक्रो पावर सेंटर’ के रूप में काम करता है। ऐसे में जब संजीव बालियान जैसे किसान पृष्ठभूमि से आने वाले जमीनी नेता इस मंच के अध्यक्ष पद पर दावा करते हैं, तो मैं इसे केवल रूढ़ी की सीट को चुनौती नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के ढांचे में बदलाव की आवाज़ भी मानता हूं।
हालांकि यह कहना जल्दबाज़ी होगा कि यह चुनाव संजीव बालियान के लिए ‘आसानी से जीतने’ वाला है। रूडी अब भी एक सधा हुआ, अनुभवी और गहरे नेटवर्क वाला नाम हैं। लेकिन यह भी सच है कि बालियान इस बार लोकसभा चुनाव की तरह अकेले नहीं बल्कि उनके पीछे पार्टी की नई दिशा, नया रणनीतिक मानस और जमीनी समर्थन है।
अब देखना दिलचस्प होगा कि ‘ट्रैक्टर’ रूड़ी के ‘हवाई जहाज़’ को पछाड़ पाता है या नहीं। लेकिन इतना तय है कि 12 अगस्त को होने वाला यह चुनाव संसदीय गलियारों में सत्ता की ‘शैली’ में आ रहे बदलाव की पहली दस्तक अवश्य बन सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)