प्रदीप शर्मा
अब इसे गठबंधन सरकार की मजबूरी समझें या फिर विपक्ष का दबाव कि विवाद के बाद केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री के तहत नियुक्ति प्रक्रिया को रद्द कर दिया है। दरअसल, निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को शीर्ष सरकारी पदों पर लाने हेतु यह योजना बनी थी। बीते सालों में नौकरशाही में विशेषज्ञों को शामिल करने के कदम को प्रगतिशील सोच कहा गया। लेकिन चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी के चलते विरोध के स्वर मुखर हुए। विपक्षी दलों की तीखी आलोचना और राजग के कुछ सहयोगियों की चिंता के बाद सरकार ने योजना को स्थगित कर दिया। निश्चित रूप से शासकीय व्यवस्था में बड़े फैसले गंभीर परामर्श व सहयोग की मांग करते हैं। सत्ता के दंभ से इतर दूरगामी परिणाम वाली नीतियों को आगे बढ़ाने हेतु सभी हितधारकों से व्यापक बातचीत जरूरी होती है। दूसरे शब्दों में सरकार को अपनी इच्छा थोपने के बजाय गठबंधन राजनीति की जटिलताओं के मद्देनजर विपक्ष से सामंजस्य के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
बहरहाल, यह तय है कि पिछले दो कार्यकाल में स्वछंद शासन करने वाली मोदी सरकार फिलहाल गठबंधन की मजबूरी के साथ विपक्षी दबाव को भी महसूस कर रही है। पिछले दो सप्ताह में राजग सरकार ने विवाद के बाद न केवल वक्फ विधेयक पर निर्णय बदला बल्कि प्रसारण विधेयक को समीक्षा के लिये एक संसदीय पैनल के पास भेजा है। इसके बाद अब लेटरल एंट्री के फैसले पर यू टर्न ने यह निष्कर्ष भी दिया है कि राजग सरकार पर्याप्त बहुमत न होने पर अब गठबंधन की राजनीति की सीमाओं को स्वीकार करने लगी है। एक हकीकत यह भी है कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस व इंडिया गठबंधन के सदस्य अभी भी तल्ख चुनावी तेवरों में नजर आ रहे हैं। खासकर ऐसे वक्त में जब हरियाणा व जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है और इसी साल महाराष्ट्र व झारखंड में भी चुनाव होने हैं।
केंद्र सरकार ने वक्फ विधेयक व प्रसारण विधेयक के बाद अब लेटरल एंट्री मामले में से हाथ खींचकर यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह टकराव के बजाय बीच का रास्ता अपनाना चाहती है। उसने सतर्क रुख ही अपनाया है। कहा जाता रहा है कि लेटरल एंट्री प्रक्रिया हमारे संविधान में निहित समानता और न्याय के आदर्शों पर केंद्रित होनी चाहिए। इन भर्तियों में आरक्षण के प्रावधान न होने के मुद्दे का कांग्रेस, बसपा, सपा व राजद ने जोरदार तरीके से विरोध किया। उनकी दलील थी कि इस प्रक्रिया में सामाजिक न्याय की अवधारणा की अनदेखी की गई है। दरअसल, 17 अगस्त को यूपीएससी द्वारा 24 केंद्रीय मंत्रालयों में सेक्रेटरी, डायरेक्टर व डिप्टी सेक्रेटरी जैसे पदों के लिये निकाले गए विज्ञापन के कुछ घंटों के बाद विपक्ष ने तीखे तेवर दिखाने शुरू कर दिये थे। यहां तक कि राजग गठबंधन में शामिल एलजेपी ने भी इस फैसले को लेकर चिंता जतायी थी। विपक्षी दलों की दलील थी कि आरक्षण का प्रावधान न होने से वंचित समाज के हकों की रक्षा नहीं हो सकेगी।
वहीं सरकार की दलील है कि लेटरल एंट्री का विचार कांग्रेस सरकार के दौरान 2005 में गठित प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के बाद सामने आया था और यूआईडीएआई के प्रमुख समेत कई पदों पर विशेषज्ञों की सीधी भर्ती में आरक्षण प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। दरअसल, मोदी सरकार में लेटरल एंट्री की प्रक्रिया वर्ष 2018 में आरंभ हुई थी, जब सीधी भर्तियों के लिये विज्ञापन दिए गए थे। ये नियुक्तियां अनुबंध पर तीन से पांच साल के लिये की गई। लेकिन नियुक्तियों की संख्या कम होने के कारण विवाद नहीं उठा था। इन पदों के लिये राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों तथा निजी क्षेत्र में इस पद से जुड़ा अनुभव रखने वाले लोग आवेदन कर सकते हैं। तर्क दिया गया कि ये नियुक्तियां डेप्यूटेशन जैसी हैं, जिसमें आरक्षण अनिवार्य नहीं है। बहरहाल, इस मुद्दे के विरोध के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं, राजग सरकार ने भी आरक्षण विरोधी छवि बनने की आशंका के बीच इस फैसले से हाथ खींचा है। बहरहाल, प्रशासनिक व्यवस्था में विषय विशेषज्ञों का जुड़ना अच्छी बात है लेकिन इस प्रक्रिया में अधिकतम पारदर्शिता की जरूरत है।