विजय गर्ग
समाज की पहचान इस बात से होती है कि वह अपने बुज़ुर्गों के साथ कैसा व्यवहार करता है। आज जब जीवन की गति तेज़ हो गई है, रिश्तों में व्यावहारिकता ने भावनाओं की जगह ले ली है, तब हमारे सामने एक दर्दनाक सच्चाई उभरकर आई है — वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या। जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को पालने-पोसने में अपना जीवन खपा दिया, वही बुढ़ापे में अकेलेपन और उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति केवल सामाजिक नहीं, बल्कि नैतिक संकट का भी संकेत है।
हमारे समाज में बुढ़ापा कभी बोझ नहीं माना गया था। बुज़ुर्ग परिवार के मार्गदर्शक, अनुभव और परंपरा के प्रतीक माने जाते थे। घर के बड़े बुज़ुर्गों की उपस्थिति घर को “घर” बनाती थी। लेकिन आधुनिक जीवनशैली, परमाणु परिवारों और व्यस्त दिनचर्या ने इस परंपरा को तोड़ दिया है। अब कई जगह माता-पिता को ‘जिम्मेदारी’ के रूप में देखा जाने लगा है, और उनका अंतिम पड़ाव वृद्धाश्रम बन रहा है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल छत और खाना देने से बुढ़ापा सम्मानित हो जाता है? नहीं। उन्हें ज़रूरत है सम्मान, अपनापन और संवाद की। वृद्धाश्रम नहीं, सम्मानाश्रम चाहिए — ऐसा स्थान जहाँ बुज़ुर्ग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में उपेक्षित नहीं, बल्कि सम्मानित महसूस करें। जहाँ उनके अनुभवों को सुना जाए, निर्णयों में उन्हें शामिल किया जाए, और समाज उन्हें ‘अतीत’ नहीं बल्कि ‘अनुभव के स्रोत’ के रूप में देखे।
सरकार और समाज दोनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बुज़ुर्ग अकेलापन महसूस न करे। परिवारों में बच्चों को यह सिखाना ज़रूरी है कि माता-पिता की सेवा कोई दायित्व नहीं, बल्कि सौभाग्य है। समाज में ऐसी पहलें होनी चाहिए जो बुज़ुर्गों को फिर से सक्रिय और जुड़ा हुआ महसूस कराएँ — जैसे सामुदायिक केंद्र, वरिष्ठ नागरिक क्लब, या डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम।
अगर हम अपने बुज़ुर्गों को केवल आश्रय देंगे, तो वे जी लेंगे; पर यदि हम उन्हें सम्मान देंगे, तो वे मुस्कुराते हुए जीएँगे। इसलिए ज़रूरत वृद्धाश्रमों की नहीं, सम्मानाश्रमों की है — जहाँ हर बुढ़ापा गरिमा और प्रेम से जिया जा सके।
वृद्धाश्रम की कड़वी सच्चाई
वृद्धाश्रम, जिसे मजबूरी का दूसरा नाम कहा जा सकता है, अक्सर वृद्ध व्यक्तियों के लिए केवल भौतिक आश्रय प्रदान करता है, न कि मानसिक और भावनात्मक सहारा।
अकेलापन और उपेक्षा: कई बुजुर्ग यहाँ अपनों से दूर होने का गहरा दर्द झेलते हैं। बच्चों द्वारा छोड़े जाने की भावना उन्हें भीतर से तोड़ देती है।
निम्न-गुणवत्तापूर्ण जीवन: भले ही कुछ वृद्धाश्रम बेहतर सुविधाएँ देते हों, लेकिन कई जगह भोजन, साफ-सफाई और व्यक्तिगत देखभाल की गुणवत्ता खराब होती है, जैसा कि अक्सर रिपोर्टों में सामने आता है।
दुर्व्यवहार और दुरुपयोग: कुछ संस्थानों में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उनके पैसों का दुरुपयोग, या उनकी देखभाल में लापरवाही की शिकायतें भी आती हैं।
स्वतंत्रता का हनन: कार्यात्मक कौशल रखने वाले वृद्धों को भी कई बार दैनिक कार्यों से दूर रखा जाता है, जो उनकी स्वतंत्रता की भावना और आत्मविश्वास को प्रभावित करता है।
सम्मानाश्रम की परिकल्पना: आदर और उपयोगिता
सम्मानाश्रम की अवधारणा एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करती है जहाँ बुजुर्गों को आश्रय के साथ-साथ सम्मान, स्नेह और एक उद्देश्यपूर्ण जीवन मिले। यह केवल स्थान बदलने का नहीं, बल्कि नजरिया बदलने का आह्वान है।
सम्मानजनक देखभाल: यहाँ बुजुर्गों को परिवार के मुखिया के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि आश्रितों के रूप में। उनकी जरूरतों को पूरी संवेदनशीलता और सम्मान के साथ पूरा किया जाना चाहिए।
सक्रिय भागीदारी: बुजुर्गों के अनुभव और ज्ञान को समाज के लिए एक मूल्यवान संसाधन माना जाना चाहिए। उन्हें उनकी रुचि और क्षमता के अनुसार सक्रिय और उत्पादक रहने के अवसर मिलने चाहिए।
उदाहरण: वे युवाओं को मार्गदर्शन दे सकते हैं, कौशल सिखा सकते हैं (जैसे सिलाई, बागवानी, कला), या संस्था के प्रबंधन में सहयोग कर सकते हैं।
पारिवारिक जिम्मेदारी: सबसे महत्वपूर्ण सम्मानाश्रम तो घर ही होना चाहिए। बच्चों और परिवारों को समझना होगा कि माता-पिता का स्थान किसी भी संस्था से ऊपर है। उनका सम्मान और देखभाल हमारी नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है।
सामाजिक समावेश: सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और समाज को मिलकर ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए जो बुजुर्गों को अकेलापन महसूस न होने दें और उन्हें सामाजिक गतिविधियों में शामिल करें।
आज जब पश्चिमी संस्कृति की देखा-देखी और भौतिकवादी सोच के कारण संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, तब “वृद्धाश्रम नहीं, सम्मानाश्रम चाहिए” का नारा एक जागरण-गीत की तरह है। यह हमें याद दिलाता है कि बुजुर्गों को केवल रोटी और छत की नहीं, बल्कि आदर, स्नेह और उपयोगिता की भावना की सबसे अधिक आवश्यकता है। उन्हें वृद्धाश्रम में ‘छोड़ने’ के बजाय, उनके अनुभवों से सीखने और उन्हें अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाए रखने की आवश्यकता है। यह हमारे समाज की मानवीयता और संस्कृति की असली पहचान है।





