इंडिया गठबंधन की कमज़ोर कड़ियाँ

Weak links of India alliance

तनवीर जाफ़री

भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिये गये ‘अबकी बार चार सौ पार ‘ के नारे के बावजूद एन डी ए गठबंधन को सरकार बनाने के लिये नाकों चने चबाने पड़े हैं। हालांकि कांग्रेस नेता भाजपा को 150 सीटों तक सिमट जाने का दावा कर रहे थे परन्तु किसी तरह भाजपा अपने दम पर 240 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। यानी उसे 2019 में प्राप्त 303 सीटों के मुक़ाबले 63 सीटों का नुक़सान हुआ। जबकि कांग्रेस ने 99 सीटों पर जीत दर्ज कर 2019 के मुक़ाबले 47 सीटों का इज़ाफ़ा किया। हालांकि चुनाव बाद 2 और स्वतंत्र सांसदों के कांग्रेस से जुड़ने के बाद अब कांग्रेस सांसदों की संख्या 101 हो चुकी है। कांग्रेस सूत्रों का दावा है कि शीघ्र ही यह संख्या 109 तक पहुँच जाएगी। परन्तु सवाल यह है अति सीमित संसाधनों,सत्ता के प्रबल विरोध, मीडिया व सरकारी संस्थाओं के दुरूपयोग के बावजूद जिस तरह देश में इण्डिया गठबंधन के पक्ष में जनता की लहर दिखाई दे रही थी उसके बावजूद आख़िर किन कारणों से इण्डिया गठबंधन सत्ता से दूर रह गया ? जबकि पूरे देश की लगभग सभी सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी ने पहली बार 2024 के चुनाव में सबसे कम अर्थात केवल 327 सीटों पर चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने शेष सीटें इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों के लिये छोड़ीं तथा उनके अधिकांश उम्मीदवारों को विजयी बनाने हेतु कांग्रेस नेताओं ने पूरी मेहनत भी की। परन्तु इन सबके बावजूद इण्डिया गठबंधन कहीं अपने सहयोगी दलों के नेताओं के अड़ियल रवैय्ये तो कहीं कुछ नेताओं को कम आंकने तो कहीं अंतर्विरोध के चलते अपेक्षित सीटें नहीं हासिल कर सका।

उदाहरण के तौर पर बंगाल में बावजूद इसके कि तृणमूल कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा परन्तु यदि कांग्रेस ,तृणमूल कांग्रेस व वामपंथी दलों में पारदर्शी एकता हो जाती तो भाजपा ने 2019 में प्राप्त 18 सीटों के मुक़ाबले इसबार जो 12 सीटें जीती है वह अंतर् और भी कम हो सकता था और भाजपा के लिये दो अंकों का आंकड़ा छू पाना भी मुश्किल हो सकता था। दिल्ली और पंजाब को लेकर कुछ ऐसी ही उहापोह की स्थिति कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के बीच रही।उधर बिहार में पूर्णिया सीट को लेकर जिसतरह राष्ट्रीय जनता दाल द्वारा तंग नज़री का प्रदर्शन किया गया वह भी इण्डिया गठबंधन के सामाजिक न्याय व साम्प्रदायिकता हटाओ अभियान के नारे के विपरीत था। यहाँ पप्पू यादव की लोकप्रियता जगज़ाहिर थी। इस क्षेत्र में उनके द्वारा किये गये कार्यों को जनता सराह रही थी। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता से घबराकर और निश्चित रूप से अपने परिवार के राजनैतिक भविष्य की राह में रोड़ा समझ कर पप्पू यादव को आर जे डी द्वारा केवल ज़िद में इण्डिया गठबंधन का उम्मीदवार नहीं बनाया गया। आख़िरकार पप्पू यादव स्वतंत्र उम्मीदवार होने के बावजूद 5,67556 वोट हासिल कर अपनी विजय पताका फहराने में सफल रहे जबकि जबकि आर जे डी प्रत्याशी बीमा भारती ने महज़ 27,120 वोट हासिल कर इस बात की तस्दीक़ कर दी कि उनको प्रत्याशी बनाने का लालू परिवार का निर्णय पूरी तरह से ग़लत था। यहाँ बी एस पी ने भी भाजपा की सहायतार्थ अपना उम्मीदवार उतारा था जिसे केवल 10619 वोट ही मिले थे। अब यह पप्पू यादव की महानता है कि वे स्वतंत्र रुप से विजयी होने के बाद भी कांग्रेस से मिलकर इण्डिया गठबंधन के साथ खड़े हुये हैं। ऐसा ही संकीर्ण फ़ैसला 2019 के चुनाव में भी आर जे डी कर चुकी है जब उसने बेगूसराय से कन्हैया कुमार के विरुद्ध अपना उम्मीदवार खड़ा किया था परिणामस्वरूप कन्हैया व आर जे डी प्रत्याशी दोनों ही हार गये थे और भाजपा के फ़ायर ब्रांड नेता गिरिराज सिंह चुनाव जीत गए थे।

उत्तर प्रदेश में बीजेपी को इस चुनाव में तगड़ा झटका लगा है। यहाँ भाजपा को 33 सीटें हासिल हुई हैं जबकि समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीतीं। इस तरह एन डी ए को कुल 36 सीटें मिलीं जबकि इण्डिया गठबंधन 43 सीटें जीतने में सफल रहा। यहाँ भी मायावती ने अपना स्टैंड काफ़ी पहले से स्पष्ट कर दिया था कि वे इण्डिया गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। वे यह भी जानती थीं कि उनका एक भी उम्मीदवार विजयी नहीं होगा परन्तु वे इण्डिया गठबंधन को नुक़्सान पहुंचाकर भाजपा के लिये अप्रत्यक्ष रूप से फ़ायदेमंद ज़रूर साबित हो सकती हैं। वैसे भी मायावती अब अपने राजनैतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। लिहाज़ा अपनी इस अंतिम राजनैतिक पारी के दौरान वे ई डी व सी बी आई के जाँच के दायरे में आने से बची रहें, मात्र यही उनकी सफलता है। इसी लिये उन्होंने भाजपा के हक़ में ज़बरदस्त चुनावी पारी खेली और प्रदेश की लगभग सभी 80 सीटों पर बहुजन समाज पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारे। मक़सद साफ़ था, इण्डिया गठबंधन को नुक़्सान पहुँचाना जोकि अनेक सीटों पर हुआ भी। इस स्थिति से निपटने के लिये इण्डिया गठबंधन को चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी को अपने साथ जोड़ने का सुनहरा अवसर था। चंद्रशेखर स्वयं चाहते भी थे। परन्तु यहाँ भी इण्डिया गठबंधन नेतृत्व ने संकीर्णता दिखाई और नगीना संसदीय क्षेत्र से उनके विरुद्ध बहुजन समाज पार्टी ने तो अपना प्रत्याशी उतारा ही परन्तु समाजवादी पार्टी ने भी अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। परन्तु पूर्णिया की ही तरह यहाँ की जनता ने भी अपने मतों से यह साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी का निर्णय ग़लत था। क्योंकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मनोज कुमार को मात्र 1,02,374 वोट मिले जबकि विजयी चंद्रशेखर ने 5,12,552 प्राप्त किये।

मायावती की ‘इंडिया गठबंधन’ में शामिल न होने की ‘व्यक्तिगत मजबूरी’ के बाद गठबंधन के नेताओं को पूरी ईमानदारी व उदारता के साथ चंद्रशेखर को अपने साथ जोड़ना चाहिये था। इंडिया गठबंधन के लिये कितना अच्छा होता यदि आज चंद्रशेखर उर्फ़ रावण विपक्षी गठबंधन के सांसद होते। यहाँ यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि जितना नुक़्सान मायावती ने इंडिया गठबंधन को पहुँचाया यदि चंद्रशेखर भी सभी 80 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतार देते तो आज उत्तर प्रदेश के परिणामों पर जश्न मनाने वाले सपा नेताओं के चेहरे लटके हुये होते। परन्तु नई पार्टी और नया नेता होने के नाते उन्हें कम करके आँका गया। आख़िरकार उनकी जीत ने यह साबित कर दिया कि भविष्य में उनसे जो भी दल बात करे वह उनकी राजनैतिक हैसियत व जनाधार को नज़रअंदाज़ हरगिज़ न करे। भविष्य में भी यदि इंडिया गठबंधन को एकजुट रहना है तो उसे स्वार्थी राजनीति से ऊपर उठकर देश,संविधान की रक्षा,साम्प्रदायिक सौहार्द की ख़ातिर कांग्रेस की तरह सीटों के बंटवारे को लेकर क़ुर्बानियां देनी पड़ेंगी। 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन की इसतरह की जो और भी कमज़ोर कड़ियाँ रहीं उनपर भी पूरी ईमानदारी से व स्वार्थ से ऊपर उठकर चिंतन करना पड़ेगा।