अमरपाल सिंह वर्मा
तकनीक ने हमारे जीवन को जितना आसान किया है, उतना ही जटिल भी बना दिया है। सोशल मीडिया और एआई के में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक नया और खतरनाक रूप डिजिटल हिंसा के रूप मेंं उभरा है। किसी महिला की निजी तस्वीर या वीडियो उसकी अनुमति के बिना वायरल कर देने, एआई से फर्जी वीडियो बनाकर बदनाम करने या किसी पोर्न वीडियो में किसी महिला का चेहरा जोड़ देने जैसी घटनाएं अब आम होती जा रही हैं। यह हिंसा केवल इंटरनेट की स्क्रीन तक सीमित नहीं रहती है बल्कि यह महिलाओं की मानसिक स्थिति, सामाजिक पहचान, पेशेवर जीवन और पारिवारिक रिश्तों तक को हिला देती है। ऐसे मामलों में मीडिया से संवेदनशील रिपोर्टिंग की अपेक्षा बढ़ गई है।
कई मामलोंं में देखा गया है कि ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग करते समय मीडिया अक्सर वही गलती करता है जो समाज में मुद्दे की गंभीरता से अनजान व्यक्ति करते हंै। मीडिया की खबरों में पीडि़ता को ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। कई बार खबरों में ऐसे शीर्षक दिखते हैं जो डिजिटल हिंसा की घटना को अपराध के बजाय ‘ट्रोलिंग’ या ‘ऑनलाइन बदमाशी’ के तौर पर पेश करते हैं। मीडिया में ‘महिला का वीडियो लीक’ या ‘प्रेमी ने झगड़े के बाद वीडियो वायरल कर लिया बदला’ जैसे हैडिंग इसकी गवाही देते हैं। कई बार नेताओं को बदनाम करने के लिए बनाए जाने वाले फेक वीडियो और फोटो मेंं ऐसे महिलाओं के चेहरे लगा दिए जाते हैं, जिनका ऐसे मामलों से दूर-दूर का वास्ता नहीं होता है। जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उसके दृष्टिगत डिजिटल हिंसा महज ट्रोलिंग नहीं मानना चाहिए बल्कि यह उससे कहीं अधिक गंभीर मानवाधिकारों का गंभीर हनन भी है। ऐसे मामले महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में पीछे धकेल देते हंै। कई पीडि़ताओं को नौकरी खोनी पड़ती है, समाज में अपमान झेलना पड़ता है और मानसिक आघात से गुजरना पड़ता है। यह महिलाओं के लिए केवल व्यक्तिगत संकट नहीं है बल्कि सामाजिक संकट है क्योंकि इस कारण महिलाओं को डर के कारण ऑनलाइन या सार्वजनिक मंचों से गायब होना पड़ता है। न जाने कितनी बच्चियों की पढ़ाई ऐसे मामलों के कारण छुड़ा दी जाती है।
जब समस्या गंभीर हो रही है तो मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। पत्रकारिता केवल घटना बताने का माध्यम नहीं है बल्कि यह समाज को दिशा देने का माध्यम है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) ने डिजिटल हिंसा पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के लिए स्पष्ट गाइडलाइन जारी की है। इस गाइडलाइन के अनुसार पत्रकारों को चाहिए कि वे पीडि़ता को दोषी ठहराने से बचें और अपराधी की सक्रियता को स्पष्ट रूप से उजागर करें। कभी यह न कहें कि वीडियो लीक हो गया क्योंकि इससे अपराधी की भूमिका धुंधली हो जाती है। गाइडलाइन के अनुसार सही भाषा होगी=वीडियो को बिना सहमति के प्रसारित किया गया। इसी तरह ‘रिवेंज पोर्न’ या ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ जैसे शब्दों से भी बचना चाहिए क्योंकि ये शब्द न केवल सहमति का भ्रम पैदा करते हैं बल्कि विषय को कामुक बनाकर पीडि़ता को शर्मिंदा भी करते हैं। इनकी जगह ‘अंतरंग सामग्री का गैर-सहमति प्रसारण’ या ‘बाल यौन शोषण सामग्री का प्रसार’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाने चाहिए।
गाइडलाइन के मुताबिक मीडिया को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी साक्षात्कार से पहले पीडि़ता की सूचित सहमति ली जाए और उसकी पहचान पूरी तरह सुरक्षित रखी जाए। यदि पीडि़ता नाम या चेहरा उजागर नहीं करना चाहती तो इसका सम्मान करना पत्रकारिता की मूल नैतिकता है। साथ ही, रिपोर्टिंग के दौरान सनसनीखेज न बनाया जाए क्योंकि इस तरह की भाषा या प्रस्तुति न केवल पीडि़ता को दोबारा आघात पहुंचा सकती है बल्कि अपराधियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित भी कर सकती है। डिजिटल हिंसा पर रिपोर्टिंग करते समय पत्रकारों को केवल पीड़ा पर नहीं बल्कि समाधान और संघर्ष पर ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के तौर पर वे ऐसे ऐप्स, अभियानों या संस्थाओं की जानकारी दे सकते हैं जो डिजिटल हिंसा को रोकने के लिए काम कर रहे हैं। मीडिया इस विषय को केवल ‘घटना’ की तरह नहीं, बल्कि ‘समाज में बदलाव के अवसर’ की तरह पेश करे। पत्रकारिता में भाषा सबसे बड़ा हथियार है। अगर शब्दों का प्रयोग सोच-समझ कर किया जाए तो वही शब्द किसी पीडि़ता की गरिमा को बचा सकते हैं। सही रिपोर्टिंग वही है जो अपराधी की जवाबदेह ठहराए न कि पीडि़ता की गलती ढूंढे। डिजिटल हिंसा मौजूदा दौर मेंं सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। तकनीक के इस युग में जब आभासी और वास्तविक दुनिया की सीमाएं मिट चुकी हैं, तब पत्रकारिता को और भी सजग और संवेदनशील होना पड़ेगा। मीडिया यदि गरिमा, सहानुभूति और तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग करे तो वह न केवल पीडि़ताओं की आवाज बनेगा बल्कि इससे समाज में समानता और सम्मान की संस्कृति को भी बढ़ावा मिलेगा। इससे साइबर हमलावरों को भी हतोत्साहित करने मेंं मदद मिलेगी।





