
कामकाजी स्त्रियाँ सिर्फ ऑफिस से नहीं लौटतीं, बल्कि हर रोज़ एक भूमिका से दूसरी में प्रवेश करती हैं—कर्मचारी से माँ, पत्नी, बहू, बेटी तक। यह कहानी अनुपमा की है, जो बाहर की तेज़ दुनिया और घर की नर्म ज़िम्मेदारियों के बीच अपनी पहचान तलाशती है। उसकी मुस्कान में थकान है, पर शिकायत नहीं। वह सबके लिए लौटती है—रिश्तों को सींचने, उम्मीदें जगाने और हर शाम को रौशन करने। कहानी एक साधारण स्त्री के असाधारण संघर्ष और भीतर पलते सपनों की कोमल परतें खोलती है।
प्रियंका सौरभ
दिल्ली की एक साधारण सी हाउसिंग कॉलोनी में रहने वाली अनुपमा की सुबह हर दिन ठीक पांच बजे शुरू होती है। अलार्म नहीं बजता, फिर भी उसकी आंख खुल जाती है। ऐसा लगता है जैसे वर्षों की आदत अब शरीर में समा चुकी हो। चाय का पानी गैस पर रखते हुए वो बालकनी में रखे गमलों को देखती है—कुछ सूखे, कुछ मुस्कुराते हुए। शायद वो गमले उसकी ही तरह हैं—कम बोलते हैं, पर सबके लिए जीते हैं।
पति अभी तक सो रहे हैं, बच्चे भी। सासू माँ मंदिर से लौटकर तुलसी के पास दीपक जला रही हैं। अनुपमा रसोई में घुसती है, जहां समय एक और रूप ले लेता है—सबका टिफिन, दवाई, प्रेस किए हुए कपड़े और दिन की फाइलें। सबकुछ क्रम में। सब कुछ तय। उसकी सुबह सिर्फ उसकी नहीं होती—वो सबके दिन की शुरुआत बन जाती है।
उसका मन कई बार एक अजीब किस्म की बेचैनी से भर उठता है। कभी वह आइने में अपने चेहरे को देखती है, तो लगता है, यह वही चेहरा है जो कभी कॉलेज में कविताएं सुनाया करता था? कभी दोस्तों के साथ ठहाके लगाता था? अब तो चेहरा एक मुखौटा बन चुका है, जिसमें भावनाएं अंदर कहीं गहरी दब चुकी हैं।
अनुपमा सचिवालय में सेक्शन ऑफिसर है। पद ठीक-ठाक है, तनख्वाह भी। मेट्रो की भीड़ में रोज़ वो अपने जैसे कई चेहरों से टकराती है—कामकाजी स्त्रियाँ, जो बाहर जितना कमाती हैं, घर में उतना ही ज़्यादा खो देती हैं। ऑफिस में वो तेज़ काम करती है—समय से फाइलें निपटाती है, मीटिंग में सुझाव देती है, जूनियर की मदद करती है। सब उसे एक “आदर्श कर्मचारी” मानते हैं।
उसकी मेज पर हमेशा ताज़ा फूल होते हैं, जो वह खुद सुबह लगाती है। ऑफिस में उसकी पहचान एक सुलझी हुई, दृढ़, और व्यवस्थित महिला की है। पर कोई नहीं जानता कि इस व्यवस्थितता के पीछे कितनी अव्यवस्थित रातें, गहरी थकान और अनसुने आंसू छिपे हैं।
हर मीटिंग में वह मुस्कुराती है, पर जब टेबल के नीचे उसका पैर थकावट से हिलता है, तो कोई नहीं देखता। सहकर्मी जब लंच पर गपशप करते हैं, अनुपमा फोन पर बच्चों के स्कूल की चिंता करती रहती है—कभी यूनीफॉर्म नहीं आया, कभी परीक्षा की तैयारी अधूरी है।
जब अनुपमा शाम को घर लौटती है, तब उसकी असली ड्यूटी शुरू होती है। वो घड़ी उतार कर मेज पर रख देती है। यह उसका तरीका होता है खुद को याद दिलाने का—अब यह समय उसका नहीं है। ये घर का है। वो रसोई में घुसती है, और गैस पर तरकारी के साथ अपने सपनों को भी धीमी आंच पर रख देती है।
अब उसके हाथ में माउस नहीं, सब्जी का चाकू है। अब मीटिंग की चर्चाएं नहीं, बच्चों के होमवर्क हैं। ऑफिस में उसे “मैडम” कहा जाता है, पर यहां वह सिर्फ “मम्मी” है—कभी बहू, कभी बेटी, कभी पत्नी। उसकी पहचान कई टुकड़ों में बँटी होती है, पर सबमें वो पूरी होती है।
वह अपने कमरे की अलमारी खोलती है और वहाँ रखे पुराने शेरवानी के बक्से, बच्चों के खिलौने और एक डायरी को देखती है। उस डायरी में उसकी कई अधूरी कविताएं हैं, जिन्हें उसने तब लिखा था जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ था। वह पन्ने पलटती है, कुछ पढ़ती है, फिर मुस्कुरा देती है।
अनुपमा की थकान उसकी पीठ में नहीं, उसकी मुस्कान में होती है। जब वो सबको खाना परोस रही होती है, तब कोई नहीं देखता कि उसका मन कितना भूखा है—एक चुपचाप संवाद के लिए, एक गर्म चाय के कप के लिए जिसे वो अकेले पी सके।
कभी-कभी वह खिड़की से बाहर देखते हुए सोचती है—क्या कोई उसके लिए भी कभी खाना बनाता है? क्या कोई उसके माथे पर हाथ रखकर पूछता है, “आज बहुत थक गई हो न?” पर नहीं, वह जानती है, उसे सबकी माँ, सबकी पत्नी, सबकी बहू बने रहना है। वो खुद के लिए बस वो 5 मिनट चुरा पाती है जब सब सो चुके होते हैं।
उसकी सहेली माया ने एक दिन कहा था, “तू रो क्यों नहीं लेती कभी?” और अनुपमा हँस पड़ी थी—“समय कहाँ है?”
कई बार वो सोचती है—क्या वो सचमुच लौटती है? या सिर्फ चलती रहती है—एक रूप से दूसरे रूप में, एक भूमिका से दूसरी में।
वो रसोई में लौटी है, पर खुद में नहीं। वो गमलों के पास जाती है, जो अब भी प्यासे हैं। वो उन्हें पानी देती है। जैसे खुद को सींच रही हो। वो अलमारी खोलती है—पुराने खत मिलते हैं, कुछ अधूरी कविताएँ, एक टूटी हुई चूड़ी। जैसे खुद से मुलाक़ात हो रही हो। पर फिर किसी की पुकार आती है—”मम्मी!” और वो फिर लौट जाती है।
उसकी रसोई में मसालों की खुशबू होती है, पर वह जानती है कि उसमें उसके अधूरे सपनों की गंध भी है। वह बच्चों के टिफिन तैयार करते हुए अपनी लिखी एक पुरानी पंक्ति याद करती है—“मैं माँ नहीं होती तो शायद कवि होती।” फिर खुद से कहती है, “शायद माँ होना ही सबसे बड़ी कविता है।”
अनुपमा जैसी स्त्रियाँ सिर्फ घर नहीं लौटतीं। वो खुद को सबसे पहले छोड़ आती हैं। वो सांझ के दीये जलाने के लिए लौटती हैं, सूखे पौधों को पानी देने के लिए, बीमार माँ-बाप की देखभाल के लिए, रूठे बच्चों को मनाने के लिए।
वो कभी थकती नहीं, या कहें कि थक कर भी थकान की इजाज़त नहीं लेतीं। उनके लिए रिटायरमेंट कोई विकल्प नहीं, क्योंकि उनके काम को कोई सरकारी कैटेगरी में नहीं गिना जाता।
पति के लिए अनुपमा एक आदर्श पत्नी है, सास के लिए एक भरोसेमंद बहू, बच्चों के लिए सुपरमॉम। पर अनुपमा के लिए अनुपमा क्या है? शायद यही एक सवाल है जो हर स्त्री अपने भीतर चुपचाप पूछती है, हर दिन, हर रात।
एक दिन ऑफिस से लौटते समय अनुपमा की सहेली माया मिली। माया ने कहा, “तू लिखती क्यों नहीं? तेरी आँखों में इतनी कहानियाँ हैं।”
अनुपमा मुस्कुरा दी, “वक़्त कहाँ है माया?”
“बस 10 मिनट रोज़,” माया ने कहा।
उस दिन रात को, सबके सो जाने के बाद, अनुपमा ने डायरी निकाली और पहली पंक्ति लिखी:
“काम से लौटकर स्त्रियाँ, काम पर लौटती हैं…”
फिर धीरे-धीरे वह कविता कहानी बनती गई। हर दिन की थकान शब्द बनती गई। वो लिखती रही—बच्चों की कॉपियों के बीच, सब्ज़ी काटते हुए, रात की चुप्पियों में। और फिर एक दिन, उसी डायरी से उसकी पहचान फिर से बन गई—”अनुपमा, लेखिका”।
वह अब महीने में एक कविता प्रकाशित करती है। स्त्रियाँ उसके लेखों को पढ़ती हैं, मेल भेजती हैं—“आपने तो हमारी ज़िंदगी लिख दी।” अनुपमा तब मुस्कुराती है, जैसे उसे खुद से एक छोटा सा पुरस्कार मिल गया हो।
स्त्रियाँ कभी लौटती नहीं, वे हर जगह होती हैं। अनुपमा की कहानी लाखों स्त्रियों की कहानी है—जो अपने सपनों को चूल्हे पर धीमी आंच पर पकाती हैं, जो ऑफिस से लौट कर घर की बैठक में ही नहीं, रिश्तों के हर कोने में फिर से खड़ी हो जाती हैं।
वो लौटती हैं, पर खुद के लिए नहीं। वो लौटती हैं सबके लिए—हर रिश्ते की दरार भरने, हर दर्द को छिपाने, हर उम्मीद को जिलाने।
असल में स्त्रियाँ लौटती कहाँ हैं? वो तो वहीं होती हैं—हर समय, हर जगह, हर रूप में।
अब अनुपमा जानती है कि उसका लौटना दरअसल एक और यात्रा का आरंभ है—जहाँ वो सिर्फ दूसरों के लिए नहीं, बल्कि अब अपने लिए भी धीरे-धीरे लौटने लगी है।