पूर्वोत्तर के मतदाता कौन सी इबारत लिखेंगे?

ऋतुपर्ण दवे

साल 2023 भारत के लिए चुनाव के लिहाज से बेहद अलग होगा। 9 राज्यों के चुनाव होने हैं। तीन राज्यों में घोषणा के साथ शंखनाद हो चुका है। राजनीतिक गलियारों में राज्यों के नतीजों से आम चुनाव के लिए नब्ज टटोली जाती है। कभी सत्ता का सेमीफाइनल तो कभी जनता के मिजाज बताकर देखा जाता है। 2024 में आम चुनाव होने हैं। वैसे भी दुनिया में लोकतंत्र के लिहाज से भारत की खास पहचान है। हर साल और हर मौसम में कहीं न कहीं और कोई न कोई चुनाव होता रहता है। यही हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की खूबसूरती है और मजबूत जनादेश की व्यवस्था भी।

पूर्वोत्तर के राज्य त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में चुनावी ऐलान के साथ राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ गई है। जिन तीनों विधानसभाओं में चुनाव हैं और सभी में 60-60 सीटें हैं। विधानसभाओं के लिहाज से नगालैंड का 12 मार्च, मेघालय का 15 मार्च और त्रिपुरा का 22 मार्च को कार्यकाल समाप्त हो रहा है। वहीं त्रिपुरा में 16 फरवरी को जबकि नगालैंड-मेघालय में 27 फरवरी को एक-एक चरण में मतदान होगा। नतीजे 2 मार्च को आएंगे।

त्रिपुरा में 2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा जीती और 25 साल से शासन कर रहा लेफ्ट बेदखल हुआ। बिप्लब कुमार देब मुख्यमंत्री बने। 2022 में चौंकाने वाला निर्णय को मशहूर भाजपा ने बिप्लब देब की जगह राज्यसभा सदस्य डा. माणिक साहा को नया मुख्यमंत्री बना नया दांव खेला। इससे यह चुनाव बेहद रोचक होंगे। यहां 1967 से विधानसभा चुनाव हो रहे हैं जिसमें 6 दशकों तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और कांग्रेस एक दूसरे के धुर विरोधी रहे। 2018 तक दोनों में राजनीतिक भिड़ंत होती थी। लेकिन भाजपा के पैर जमाते ही हालात बदले। अब 50 साल से ज्यादा पुराने धुर विरोधी यानी सीपीएम जो 35 साल और कांग्रेस जो 18 साल सत्ता में रहने के बाद अब गठबन्धन को मजबूर हैं। वजह भाजपा को सत्ता से रोकने के लिए दूसरा चारा नहीं है। वहीं 2018 में शून्य से शिखर तक पहुंची भाजपा की राहें भी उतनी आसान नहीं दीखती क्योंकि जिस इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा यानी आईपीएफटी के साथ गठबंधन कर सत्ता में पहुंची थी उसकी मंशा पर भरोसा नहीं है। एक ओर जहां बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन जारी रहने की बात हो रही है। लेकिन एक अन्य क्षेत्रीय पार्टी टिपरा मोथा ने 2021 में त्रिपुरा ट्राइबल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल यानी टीटीओडीसी चुनावों में ‘ग्रेटर टिपरालैंड’ की मांग के साथ सफलतापूर्वक जीत हासिल कर अपनी अहमियत दिखा दी जिससे सियासी जमीन काफी मजबूत हुई। अब, आईपीएफटी टिपरालैंड नाम से अलग राज्य की मांग कर सियासी ताकत बढ़ा रहा है। दोनों की मांगे कमोवेश एक सी हैं इसीलिए कवायद दोनों को एकजुट रखने की है। लेकिन टिपरा मोथा प्रमुख प्रद्योत देब बर्मा की त्रिपुरा की राजनीति में नया विकल्प बनने की चाहत संबंधी कुछ इशारों से भाजपा की चिन्ता बढ़ गई है। त्रिपुरा का सियासी दंगल बेहद दिलचस्प होता दिख रहा है।

मेघालय में 2018 में नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी 20 और भाजपा ने 2 सीट जीत गठबंधन सरकार बनी। कांग्रेस 21 सीट जीत सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी सत्ता तक नहीं पहुंच सकी। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी यानी यूडीपी को 8, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी पीडीएफ को 2 सीटें मिली। एनपीपी के कोनराड संगमा मुख्यमंत्री बने। लेकिन जैसा कि अमूमन होता है, चुनाव पूर्व जोरदार राजनीतिक उथल-पुथल जारी है। अब एनपीपी-भाजपा के बीच दरार की बातें सुनाई दे रही हैं। थोड़ा पहले एनपीपी के दो, तृणमूल कांग्रेस के एक और एक निर्दलीय यानी 4 विधायक भाजपा में चले गए जबकि कांग्रेस के 12 विधायकों ने तृणमूल का दामन थामा तो कुछ एनपीपी में चले गए जिससे 2 कांग्रेसी विधायक ही बचे हैं उनके भी दलबदल की चर्चा है। इससे सियासी समीकरण गड़बड़ा गया। संभावना है कि एनपीपी और भाजपा दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ें। यहां भाजपा, कांग्रेस, टीएमसी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के अलावा तमाम क्षेत्रीय दल भी ताल ठोंक रहे हैं। फिलाहाल नेशनल पीपुल्स पार्टी, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट, हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, गारो नेशनल काउंसिल, खुन हैन्नीवट्रेप राष्ट्रीय जागृति आंदोलन, नार्थ ईस्ट सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, मेघालय डेमोक्रेटिक पार्टी भी चुनाव में सक्रिय है। यहां 36 सीटों में महिलाओं की जनसंख्या पुरुषों से अधिक है। लेकिन राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी ना के बराबर है। हो सकता है इस बार यह भी मुद्दा बने।

नगालैंड में तो अनोखी सरकार है। विपक्ष है ही नहीं। सभी ने मिलकर सरकार बना डाली और चलाई। लेकिन वहां की मूल समस्या पर प्रभावी कुछ न होना अब चुनावी रण में चिन्ता का विषय है। वैसे भी अपनी अलग तरह की राजनीति को लेकर नागालैण्ड सुर्खियों में रहता है। इसके बावजूद पक्ष-विपक्ष दोनों मतदाताओं के लिए खास हैं क्योंकि विपक्ष है ही नहीं! इस बार मतदाताओं के विवेक की अग्निपरीक्षा है। पिछले चुनाव में नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी यानी एनडीपीपी ने 17 सीटें तो भाजपा ने 12 जीती थीं। जबकि एक अन्य पार्टी नेशनल पीपल्स पार्टी यानी एनपीए ने 27 सीट जीतीं। चुनाव बाद भाजपा और एनडीपीपी ने मिलकर सरकार बनाई तो नगा पीपुल्स फ्रंट यानी एनपीएफ के अधिकतर विधायकों ने भी एनडीपी को साथ दे दिया जिससे उनके केवल 4 विधायक बचे। आखिर चारों सरकारो के साथ हो लिए और एक नया समीकरण बना यानी सभी सत्तापक्षीय हो गए। नई सरकार के लिए नए-पुराने गठबंधन की फिकर सभी को सता रही है। जहां भाजपा एनडीपीपी के साथ गठबंधन करेगी तो राष्ट्रीय जनता दल ने कई सीटों पर चुनावी संभावनाओं को टटोल भाजपा की चिन्ता बढ़ा दी। वहीं अपने खोए जनाधार को मजबूत करने खातिर कांग्रेस भी पीछे नहीं है। विरोधियों से मंत्रणा कर पकड़ मजबूती हेतु सक्रिय है। 2013 में 8 और 2018 में एक भी सीटें नहीं जीतने वाली कांग्रेस नई उम्मीदों को टटोल रही है। यदि चर्चाओं पर ध्यान दें तो कांग्रेस पार्टी चर्च और नेशनल नागा पॉलिटिकल ग्रुप्स यानी एनएनपीपी से बात कर रही है। ये नागा विद्रोही समूह मतदाताओं पर खासा प्रभाव रखते हैं। नागालैण्ड में लोग नागा शांति समाधान के पक्षधर हैं। कांग्रेस इसी का फायदा उठाना चाहती है और चुनावी वायदों में बिजली, सड़क, उद्योग, नौकरियों पर फोकस के साथ समान विचारधारा व धर्मनिरपेक्ष गठबंधन पर नजरें टिकाए है। इस इसाई बहुल राज्य में मजबूत हिन्दू विरोधी रुख तो नागा शांति वार्ता में देरी भी अहम मुद्दे हो सकते हैं।

चुनावी ऐलान के साथ ही वहां राजनीतिक हलचलें जबरदस्त हैं। यूं तो इन पूर्वोत्तर में कभी कांग्रेस तो कहीं वाम का दबदबा रहा। लेकिन स्थानीय समस्याओं से पनपे क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों को चुनौती तो पेश की लेकिन भाजपा ने उनसे हाथ मिला अपना दबदबा खूब बढ़ाया। वहीं घाटे में कांग्रेस रही। अब नए समीकरणों और हालातों में देखना है कि पूर्वोत्तर राज्य क्षेत्रीय या राष्ट्रीय दल किसके साथ जाते हैं? वैसे तीनों राज्यों के चुनाव बेहद अहम और दिलचस्प जरूर होंगे लेकिन केवल इन्हें ही केन्द्र की सत्ता का सेमीफाइनल या लिटमस टेस्ट कहना जल्दबाजी होगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)