चुनावी रणभूमि से भाषा की मर्यादा, देश के विकास व आम जनमानस के हित के मुद्दे गायब क्यों?

Why are the issues of dignity of language, development of the country and interest of common people missing from the electoral battlefield?

दीपक कुमार त्यागी

“देश में लोकतंत्र के महापर्व लोकसभा चुनावों का बेहद महत्वपूर्ण दौर चल रहा है। देश व दुनिया के लोग भारत के भविष्य की तरफ बेहद उम्मीद से देख रहे हैं। देश के लोगों को उम्मीद है कि नयी सरकार देश में विकास की तेज गति को अनवरत जारी रखते हुए आम जनमानस के हित व भाईचारे को कायम रखते हुए, भारत को जल्द से जल्द विश्व गुरु बनाने के लिए काम करेगी। लेकिन चुनावों के इस दौर में अपनी-अपनी चुनावी नैया को पार लगाने के लिए पक्ष-विपक्ष के अधिकांश माननीय जिस तरह से भाषा की गरिमा को भूलते हुए, देश के मान-सम्मान व सामाजिक ताने-बाने तक को भी अपनी जीत के लिए दांव पर लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं, वह स्थिति देश के प्रत्येक देशभक्त नागरिक को झकझोर कर चिंतिंत करने वाली है। जिस तरह से इन सभी को बस यह चिंता रहती है की किसी भी तरह से उनकी चुनावी वैतरणी पार हो जाये और वह भारी बहुमत से जीत करके अगले पांच वर्ष तक तो कम से कम अपने व अपने परिवार के जीवन को सुरक्षित कर लें। वह स्थिति मानव, भाषा, क्षेत्र, जाति व धर्म आदि की विविधता से परिपूर्ण हमारे प्यारे भारत व लोकतांत्रिक व्यवस्था दोनों के लिए बिल्कुल भी उचित नहीं है।”

भारतीय राजनीति में गली मोहल्ले से लेकर के देश के सर्वोच्च पद तक के चुनावों में आम जनमानस के हितों को पूरा करने की बात का जिक्र हमारे सभी चुनाव लड़ने व लड़वाने वाले लोगों के द्वारा बार-बार ढिंढोरा पीट-पीट कर किया जाता है। इन चंद लोगों के लिए देशहित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की बात कहना एक बड़ा अहम चुनावी स्टंट बन गया है। लेकिन यह अलग बात है कि चुनाव जीतते ही देश व आम जनमानस के हित के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इन अधिकांश लोगों के लिए चुनावी वायदे मात्र एक चुनावी जुमला बन करके रह जाते हैं और देश पर सर्वस्व न्यौछावर करने की बात करने वाले यह लोग स्वयं पर ही सर्वस्व न्यौछावर करते हुए अपने हित साधने के लिए लिए देश को भी दांव पर लगाने से बाज नहीं आते हैं। वैसे देश के चुनावी रणों को देखा जाये तो हर स्तर के चुनावों में हमेशा कुछ तो लोकलुभावन वायदे व घोषणाएं हमेशा से ही रहती आयी है, जिन वायदों व घोषणाओं के झांसे में आकर के निष्पक्ष रहने वाला मतदाता किसी एक पक्ष को वोट दे कर के चुनावी समर में इनको जीत दिलवा देता है। लेकिन इस बार के लोकसभा चुनावों को देंखें तो पूरे चुनाव प्रचार में मेनिफेस्टो को छोड़ कर के अब तक आम जनमानस को ज्यादा कुछ वायदों का पिटारा हासिल नहीं हो पाया है। देश में अब तक के चरणों के संपन्न हुए लोकसभा के चुनाव प्रचार में गिरती भाषा की मर्यादा, उटपटांग, ऊल-जलूल, कपोल-कल्पित तथ्यहीन बातों व आरोप-प्रत्यारोप का जबरदस्त बोलबाला रहा है, जो प्रगतिशील भारत व सभ्य समाज के लिए किसी भी हाल में उचित नहीं हैं।

“इस बार के लोकसभा चुनावों के प्रचार में आम आदमी के हित के ज्वलंत मुद्दे भी “गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गये हैं” देश व आम आदमी के हित के वास्तविक मुद्दे ना जाने क्यों चुनावी रणनीतिकारों की नज़रों से पूरी तरह से गायब हो गये हैं। जनता का एक बड़ा वर्ग मानता है कि इस बार का पूरा लोकसभा चुनाव देश के मूल मुद्दों की जगह कपोल-कल्पित दिवास्वप्न वाले अटपटे मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और अधिकांश लोग तमाशबीन बनकर के बैठे ताली पीट-पीटकर तमाशा देख रहे हैं, जो देश व जनमानस के हित ठीक नहीं है।”

इस बार के लोकसभा चुनावों में देश में एक अजीबोगरीब माहौल देखने को मिल रहा है, देश के अधिकांश राजनीतिक दल जनता बीच जाते समय अपनी-अपनी पार्टी के मेनिफेस्टो की खूबियां बताने की जगह एक दूसरी पार्टी के मेनिफेस्टो की खामियों को गिनवाने में ज्यादा व्यस्त हैं। देश की चुनावी रणभूमि में अब तो पूरा का पूरा चुनाव प्रचार जाति-धर्म, आरक्षण व संविधान ख़तरे में है, पाकिस्तान जैसे विफल देश के कपोल-कल्पित खत़रे आदि के बिना सिर-पैर के मुद्दों में अट़क कर रह गया है। जो स्थिति भविष्य में देश की एकता, अखंडता, सर्वांगीण विकास और विकसित भारत के सपने में एक बड़ी बाधा बन सकती है।

वैसे जब कुछ माह पूर्व देश में जिस वक्त हमारे आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अयोध्या धाम में दिव्य व भव्य मंदिर में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक समारोह चल रहा था, तो उस वक्त अधिकांश लोगों को लगता था कि अबकी बार देश के लोकसभा के चुनावी समर में सनातन धर्म के सभी अनुयायियों के बीच जातियों की सीमाएं पूरी तरह से समाप्त हो जायेगी और लोकसभा चुनावों की रणभूमि में केवल और केवल विकास के मुद्दों पर जगह-जगह विस्तार से चर्चा होगी। जाति-धर्म, आरक्षण आदि पर बोले जाने वाले तरह-तरह के चुनावी जुमले इस बार पूरी तरह से चुनाव प्रचार से ग़ायब होंगे। लेकिन अफसोस जैसे-जैसे चुनावी रणभूमि में पक्ष-विपक्ष की सेनाएं आमने-सामने आयी वैसे-वैसे ही विकास व आम जनमानस से जुड़े मुद्दे ना जाने एक-एक करके कैसे कहां गायब हो गये और उनकी जगह जाति की आड़ में लोगों को बरगलाने वाले जहरीली बयानों ने ले ली, धर्म के नाम पर आम जनमानस की भावनाओं से खेलने वाले माहौल ने ले ली। जब चुनाव कुछ आगे बढ़ा तो देश में अचानक से ही आरक्षण ख़तरे में व संविधान ख़तरे में आ गया और सभी को उसी में उलझाकर के रख दिया। वैसे देखा जाये तो इस बार के चुनावों में देश को नयी दिशा देने का दंभ भरने वाले अधिकांश लोगों ने पूरे चुनाव प्रचार में आम जनमानस के हित को पीछे छोड़ करके समाज के आपसी प्यार व भाईचारे से ओतप्रोत सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की क़सम खा ली है। इन चंद लोगों ने अपने क्षणिक स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए जरा भी यह नहीं सोचा है कि उनके द्वारा बोयी जा रही इस बेहद ही जहरीली फ़सल का परिणाम भविष्य में देश के आम जनमानस को ना जाने कितने दशकों तक भोगना पड़ेगा और सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह रही हैं कि चुनाव आयोग की मशीनरी चुनाव प्रचार के दौरान इस सब पर लगाम लगाने में अब तक तो पूरी तरह से विफल रही है।