अमानवीयता हेतु मानवीयता पर विचार क्यों?

शिशिर शुक्ला

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भारत में मृत्युदंड के तरीके अर्थात फांसी की सजा के विकल्प पर विचार करने हेतु एक समिति के गठन के संकेत दिए गए हैं। खास बात तो यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायस्थल के द्वारा ऐसा निर्णय केवल इसलिए लिया गया है ताकि मृत्युदंड का कोई ऐसा विकल्प तलाशा जा सके जोकि अपेक्षाकृत कम दर्दनाक एवं अधिक मानवीयतापूर्ण हो। दूसरे शब्दों में यदि यह कहा जाए कि शीर्ष अदालत के द्वारा जघन्य अपराध के दोषियों के लिए यातनारहित मृत्यु का तरीका ढूंढा जा रहा है तो कुछ गलत न होगा। जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड दिये जाने की व्यवस्था तो बहुत प्राचीन काल से विद्यमान है। हम अपने धर्मग्रंथों रामायण एवं महाभारत में वर्णित विभिन्न घटनाओं पर विचार करें तो भी निष्कर्ष यही निकलता है कि गंभीर अपराधों का परिणाम दोषी को मृत्युदंड के द्वारा ही भुगतना पड़ता था। आज की स्थिति भी यही है कि भारत में हत्या एवं बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्यों के लिए मृत्युदंड के रूप में फांसी की व्यवस्था है। न्याय व्यवस्था के लचीलेपन का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वर्ष 2009 में तमिलनाडु में सात वर्ष के बच्चे के अपहरण एवं हत्या के दोषी के मृत्युदंड को सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बीस वर्ष के आजीवन कारावास में सिर्फ इस तर्क के आधार पर तब्दील कर दिया गया कि अपराधी होने के बावजूद भी उसमें सुधार की संभावना विद्यमान है।

16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में घटित निर्भया कांड को हम में से शायद ही कोई जीवन में भूल पाएगा। हैवानियत की नग्नता एवं दर्दनाक चीखों से युक्त इस निर्मम घटना ने पूरे देश को दहला कर रख दिया था। ध्यातव्य तो यह है कि एक ऐसा कांड जिसमें पशुता की सभी हदें पार कर दी गई हों, उसका इंसाफ होने में सात वर्ष तीन माह और तीन दिन लग गए, वो भी पीड़िता की मां के द्वारा की गई तमाम जटिल कानूनी कोशिशों के बाद। इसे कहीं न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था की कमी कहा जाए अथवा आवश्यकता से अधिक लचीलापन, कि वारदात के होने एवं दोषी को सजा मिलने के बीच एक लंबा समयान्तराल होता है, जिसमें पीड़ित अथवा पीड़िता के परिजनों को न्याय की प्रतीक्षा के साथ-साथ उसे हासिल करने के लिए जी जान लगानी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका में मृत्युदंड हेतु फांसी के तरीके को क्रूर, तकलीफदेह एवं अमानवीय बताते हुए ऐसे किसी तरीके को अपनाए जाने की मांग की गई है जोकि मानवीय गरिमा को कायम रखने वाला हो। न्यायालय के द्वारा केंद्र सरकार से ऐसे वैज्ञानिक डेटा की उपलब्धता को लेकर प्रश्न किया गया है जो मृत्यु के विभिन्न तरीकों में होने वाले कष्ट के मापन से संबंधित हो। याचिकाकर्ता से एक प्रश्न तो निश्चित रूप से किया ही जाना चाहिए कि क्या किसी बहन अथवा बेटी के जीवन से खिलवाड़ करने वाले हैवान के द्वारा उस कष्ट के विषय में तनिक भी विचार किया गया था जोकि पीड़िता के द्वारा तड़प तड़प कर सहा गया। कटु सत्य तो यह है कि आए दिन कभी मासूम बच्चियों से, तो कभी किशोरियों से होने वाले जघन्य अपराध केवल और केवल इस वजह से होते हैं क्योंकि अपराधी इसके परिणाम को लेकर निश्चिंत रहता है। उसके अंदर अपराध के दंड को लेकर तनिक भर भी खौफ नहीं है। क्या हमारे कानून एवं न्याय व्यवस्था का इतना लचीला होना उचित है कि निर्भया कांड का वह आरोपी जिसने सर्वाधिक घृणित एवं दरिंदगीपूर्ण कृत्य को अंजाम दिया, केवल नाबालिग होने के कारण सजा से बच गया। 26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले का आरोपी जिसने सैकड़ों निर्दोषों को मौत के घाट उतारकर मुंबई के कई स्थानों को रक्तरंजित कर दिया, चार वर्ष के बाद फांसी के तख्ते तक पहुंच पाया।

हमें यह मानना होगा कि कहीं न कहीं हमारी न्याय व्यवस्था एवं अपराधियों के प्रति उसका रवैया जरूरत से ज्यादा नरम है। कल्पना करें कि फांसी के स्थान पर मृत्युदंड का कोई आसान विकल्प उपलब्ध हो जाने एवं उसे लागू कर दिए जाने पर उसका परिणाम क्या होगा। अपराधियों का अपराध के प्रति हौसला बढ़ने के अतिरिक्त इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। कानून व्यवस्था की यदि बात की जाए तो इस मामले में उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निस्संदेह एक रोल मॉडल हैं।अपराधियों के प्रति उनकी जीरो टॉलरेंस की नीति एवं तुरंत फैसले का रवैया पूर्णतया अनुकरणीय एवं अद्वितीय है। जब तक अपराधी के अंदर अपराध के दंड को लेकर डर व खौफ नहीं जगेगा, तब तक हत्या व बलात्कार जैसे घृणित कृत्य अपराधियों के लिए एक खेल की भांति बने रहेंगे और परिणामतः तब तक अपराधमुक्त समाज व राष्ट्र की कल्पना व्यर्थ ही होगी। सर्वोच्च न्यायालय को जोकि न्याय का अंतिम व सर्वोच्च द्वार है, ऐसा निर्णय लेना चाहिए जिससे हम अपराधमुक्त होने की दिशा में कदम बढ़ा सकें।