
सोनम लववंशी
घर जले। माँ रोई। बेटियां डर से छिप गईं। बच्चे सवाल कर रहे हैं—“पापा, हमारा कसूर क्या था?” और पापा चुप हैं, क्योंकि जवाब सरकार के पास नहीं है। जवाब अदालतों के पास नहीं है। जवाब मीडिया के पास नहीं है। जवाब ‘धर्मनिरपेक्षता’ की नकली माला जपने वालों के पास नहीं है। यहां कसूर सिर्फ इतना है कि वो हिन्दू हैं… और वो बंगाल में हैं। मुर्शिदाबाद के धुलियान से जो तस्वीरें आई हैं, वो केवल एक हिंसा की कहानी नहीं हैं, वो उस साजिश का पर्दाफाश हैं, जो सालों से बहुसंख्यकों के खिलाफ बुना जा रहा है। भीड़ आई, घर जलाए, मंदिर तोड़े, मां-बहनों की चूड़ियां टूटीं, और पीछे सिर्फ दर्द और खामोशी रह गई। पुलिस आई नहीं और जब आई, तो पहले पीड़ितों को धमकाया, फिर एफआईआर लिखने से इनकार कर दिया। कुछ जगह तो रिपोर्ट लिखने के बजाय कहा गया कि “चुपचाप गांव छोड़ दो।” ऐसे में सवाल यही है क्या यही लोकतंत्र है? क्या यही ‘जनता की सरकार’ है?
ममता बनर्जी, आप चिल्ला-चिल्लाकर ‘शांति’ की अपील कर रही हैं। लेकिन शांति की कीमत कौन चुका रहा है? हिन्दू। हर बार हिन्दू! आपके राज्य में मंदिर जलते हैं, हिन्दू घर उजड़ते हैं, और आपकी सरकार उन्हें ही “संदिग्ध” मानती है। आप मस्जिदों की सुरक्षा के लिए फोर्स तैनात करती हैं, लेकिन मंदिर की दीवारों पर कालिख पोतने वालों को “गुमनाम भीड़” बता देती हैं। मुर्शिदाबाद के धुलियान, सुति और समशेरगंज की राख से उठती यह कहानी कोई एक दंगे की दास्तां नहीं है। यह उस पूरे तंत्र का चीरहरण है, जो बहुसंख्यकों की पीड़ा को ‘प्रिविलेज’ बताकर उन्हें चुप रहना सिखा रहा है। इस देश में अल्पसंख्यक अधिकारों की ढाल इतनी मोटी हो गई है कि उसमें बहुसंख्यकों की चीखें दबकर मर जाती हैं। तभी तो कहीं कोई दो सिरफिरे मस्जिद की छत पर चढ़ जाएं, तो पूरा देश ‘फासीवाद’ का हल्ला मचाने लगता है। लेकिन जब दर्जनों हिन्दू परिवारों को उनके ही घरों से खदेड़ दिया जाए, तो वही देश चुप हो जाता है। क्योंकि यहां ‘हिन्दू होना’ अब अपराध बन चुका है। क्योंकि यहां सेक्युलरिज़्म का मतलब है, मुस्लिम की सुनो, हिन्दू को सहने दो।
धुलियान में सिर्फ घर नहीं जले हैं। वहां न्याय जला है। वहां संविधान जला है। वहां इंसानियत की लाशें बिछी हैं और सबसे शर्मनाक बात यह है कि राष्ट्रीय मीडिया ने इस खबर को कोने में दबा दिया, जैसे यह कोई छोटी-मोटी लड़ाई हो। हकीकत यह है कि यह ‘जनसंहार’ था। सजा सिर्फ एक चीज़ की मिली और वह थी भगवा पहचान की। एक हिंदू मां अपने पाँच साल के बेटे को गोदी में लेकर भागी थी, नंगे पांव, धूप में, एक बोरी में अपने बचे हुए कपड़े और देवी की टूटी हुई मूर्ति लेकर। क्या आपने उसकी आंखों में झांका है? क्या आपने उस बच्चे से पूछा कि वो अब किस स्कूल में जाएगा? या उसका बचपन किस राख से खेलते बीतेगा? और ये सिर्फ धुलियान नहीं। बीरभूम, कूचबिहार, मालदा हर जिले में यही कहानी दोहराई जा रही है। हर जगह हिन्दू परिवार पलायन कर रहे हैं, जैसे 1947 फिर से लौट आया हो। फर्क सिर्फ इतना है कि अब देश बंट नहीं रहा, देश ‘बंटा हुआ’ है—तुष्टिकरण और चुप्पी में।
जिस तरह ममता सरकार ने एक विशेष वर्ग को खुली छूट दे रखी है, वह संविधान का नहीं, कट्टरता का शासन है। ‘जय श्रीराम’ कहने पर जेल, लेकिन धार्मिक नारों के नाम पर हिंसा करने वालों को संरक्षण—क्या यही आपकी तृणमूल इंसाफ है? यह प्रश्न सिर्फ बंगाल का नहीं है। यह प्रश्न भारत के हर कोने का है। अगर आज बंगाल में हिन्दू पर हमले होते हैं और आप चुप रहते हैं, तो कल यही आग महाराष्ट्र में जलेगी, परसों यूपी में, और फिर आपके दरवाजे तक आएगी। तब मत कहिएगा—”हमें पता नहीं था।” क्योंकि सच्चाई ये है कि आपको सब पता है। बस आप डरते हैं। या शायद आप इतने ‘सभ्य’ बन चुके हैं कि असलियत को देखने की ताकत नहीं बची।
बंगाल का रक्तरंजित इतिहास नया नहीं है। 1946 का नोआखाली, 1971 का पलायन, 2013 का कैनिंग, 2021 का चुनाव बाद का नरसंहार हर बार यही कहानी दोहराई गई है। और हर बार वही चुप्पी। वही साज़िश। वही पीड़ा। 2021 से अब तक सांप्रदायिक हिंसा की 137 से अधिक घटनाएं दर्ज हुई हैं, जिनमें से अधिकांश में एक विशेष समुदाय को बचाया गया और दूसरे को निशाना बनाया गया। इस बार भी ऐसा ही हुआ। रिपोर्ट के अनुसार, हिंसा से पहले शुक्रवार की नमाज के बाद जुलूस निकला, जिसमें “वक्फ की संपत्ति हमारी है” जैसे नारे लगे। फिर 30 से ज्यादा मोहल्लों में आगजनी शुरू हो गई। वैसे ये समस्या सिर्फ ममता बनर्जी की तुष्टिकरण की राजनीति नहीं है, बल्कि उस पूरे राष्ट्र की भी है जो इस अन्याय पर मौन है। सोशल मीडिया पर जरा भी हिंदू हित की बात करो, तो ‘राइट विंग’ की मोहर लग जाती है। ऐसे में देश को तय करना होगा कि क्या वह अपने मूल धर्म और संस्कृति को सिर्फ वोटबैंक की राजनीति के आगे झुकाकर देखेगा, या फिर ग़लत को ग़लत कहने का साहस करेगा? क्योंकि अब वक्त आ गया है कि हम पूछें—धुलियान की राख में दबी वो चीख़ें कौन सुनेगा? वो औरतें जो आधी रात को बच्चों को लेकर भागीं, उनका अपराध क्या था? जो सरकार अपने नागरिकों को सुरक्षा न दे सके, वह किस नैतिकता से शासन करती है? और क्या इस देश में अब भी हिंदू होना एक अपराध है? ऐसे अनगिनत सवाल हैं। जिन्हें आप मुखर स्वर दीजिए, वरना याद रखिएगा जब आपकी बारी आएगी, तब भी कोई नहीं बोलेगा।