साक्षात्कार-मनोहर मनोज, कोआर्डिनेटर, कैंपेन फार कंश्टीच्यूशनल स्टेटस
समाज में हो रहे तमाम बदलावों , अनेकानेक आंदोलनों तथा अनगिनत परिवर्तनों की आवाज मीडिया के जरिये पूरे जहान में अनुगूंजित होती रहती है। पर मीडिया में स्वयं मीडिया में कई तरह के जरूरी बदलाव को लेकर जल्दी कोई पहल नहीं हो पाती। चाहे मीडिया के सामाजिक सरोकारों को लेकर बाजार के दबाव में हो रहा क्षरण हो, लोकतांत्रिक सरोकारों के मार्ग की कई सारी सत्तावादी बाधाएं हों, मीडिया की संवैधानिक हैसियत की शून्यता हो तथा मीडिया की स्वतंत्रता के कई सारे अंतरविरोध हों, इसे लेकर मीडिया की आवाज दबी, बुझी व सुसुप्त दिखाई पड़ती है। इसका यदि कारण एक तरफ मीडिया मालिकों व मीडियाकर्मियों के आपसी हितों के बीच टकराव को माना जाए तथा मीडिया के अर्थशास्त्र का प्रतिकूल होना माना जाए तो दूसरी तरफ इसकी बड़ी वजह स्वयं मीडियाकर्मियों के बीच आपसी एकता के भाव का घोर अभाव होना रहा है।
लेकिन वरिष्ठ मीडियाकर्मी व लेखक मनोहर मनोज जो विगत में देश के युवा पत्रकारों के पहले राष्ट्रीय संगठन के संस्थापक अध्यक्ष रहे हैं ,मौजूदा मीडिया परिस्थितियों से बिना विचलित हुए, इसी साये में रहकर देश में समूची मीडिया को संवैधानिक दर्जा दिलाने हेतू पिछले एक साल से एक राष्ट्रीय हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। अभी तक वह देशभर के 5000 पत्रकारों व मीडियाकर्मियों के हस्ताक्षर ले चुके हैं। उनका कहना है कि वह देशभर केे करीब एक लाख पत्रकारों के हस्ताक्षर के साथ देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति , मुखय न्यायाधीश, प्रधानमंत्री व लोकसभा अध्यक्ष को मीडिया के संवैधानिक दर्जे की मांग का ज्ञापन सौपेंगे। हाल में रविवार ने मीडिया के संवैधानिक दर्जे की जरूरत क्यों आन पड़ी, इस मुद््दे पर उनसे बेबाक बातचीत की, प्रस्तुत है उसके मुखय अंश
मनोज जी मीडिया के संवैधानिक दर्जे को लेकर आपके इस राष्ट्रीय हस्ताक्षर अभियान की मुहिम के क्या मायने है? मीडिया को संवैधानिक दर्जा क्यों चाहिए, क्या अभी तक की मीडिया को मिली हैसियत या जिममेवारी आपको पर्याप्त नहीं लगती?
देखिए, कोई भी छत अपने नीचे चार खंभों के बिना खड़ी नहीं हो सकती। इसके लिए केवल एक दो तीन नहीं बल्कि चार स्तंभों की आवश्यकता पड़ती है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ मीडिया के चौथे स्तंभ के बिना लोकतंत्र की छत खड़ी नहीं की जा सकती। हालाँकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जरूर कहा जाता है, लेकिन यह आधिकारिक, संवैधानिक या कानूनी नहीं है। केवल तीन स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को ही संवैधानिक दर्जा प्राप्त है। यदि मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का आधिकारिक टैग मिल जाता है, तो इससे लोकतंत्र सबसे अधिक मजबूत होगा, लोकतंत्र अधिक जीवंत हो जाएगा और लोकतंत्र के शक्ति पृथक्कीकरण सिद्धांत को और अधिक स्पष्टता हासिल होगी।
लोकतंत्र बहु स्तरीय संस्थाओ की स्वायत्तता का नाम है, जिसमे सभी संस्थाएं एक-दूसरे का प्रतिरोध, नियंत्रण और संतुलन का कार्य करती हैं। और इस नियंत्रण और संतुलन कारक के तहत, लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभों की तुलना में मीडिया का कार्य वैसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
मीडिया को संवैधानिक दर्जा देने से क्या अंतर आ जाएगा। क्या अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार से ये चीजें पूरित नहीं हो पा रही है?
देखिए, मीडिया लोकतंत्र का एकमात्र स्तंभ है, जो त्वरित और प्रभावी ढंग से और लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में 24×7 कार्य करता है। इसके अलावा मीडिया अकेला स्तंभ है जो आम नागरिक के हवाले से अपनी बात कहता है, जबकि बाकी तीन स्तंभ अर्थात् विधायिका यानी एमपी एमएलए पार्षद अपने अपने निर्वाचन क्षेत्र विशेष के लोगों के हित विशेष की आवाज उठाते हैं, दूसरा कार्यपालिका यानी कैबिनेट और मंत्रालय अपने विभाग विशेष की ओर से कार्य करती हैं और तीसरा न्यायपालिका याचिकाकर्ताओं/वादी प्रतिवादी की ओर से केवल कार्य करती हैं। केवल मीडिया ही ऐसा है जो सभी पक्षों के लिए आवाज बनती हैं। वैसे भी लोकतंत्र के संचालन की बिना मीडिया के मौजूदगी की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
जहां तक संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है तो यह मीडियाकर्मी व मीडिया संगठन विशेष के लिए प्रदत्त नहीं है। यह देश के सभी नागरिकों के लिए है। परंतु भारत में करीब दो सौ सालों से एक संस्था का रूप ले चुकी मीडिया जो विगत में ना केवल आजादी के आंदोलन के अग्रदूत का कार्य कर रही थी बल्कि आजाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के संतुलन की एक बड़ी जरूरत बनी है, वह लिखित संविधान के बजाए इंगलैंड के अलिखित संविधान की तरह बस परंपरा से चालित हो रही है।
ऐसे में वह मीडिया जो मीडिया प्रतिष्ठान और मीडियाकर्मी की भूमिका में पूर्णकालिक रूप से कार्यरत है, उसे एक विशेष पहचान, हैसियत और जिममेदारी से नवाजना जरूरी है। दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान वाले देश भारत में लोकतंत्र के इतने बड़े स्टेकहोल्डर मीडिया के लिए कुछ भी उल्लिखित नहीं होना अचंभित करने वाली बात है।
वैसे समूची दुनिया में लोकतंत्र की शर्तो में तमाम बातों के अलावा मीडिया या प्रेस की आजादी की बातें अनिवार्य रूप से कही जाती है। लेकिन केवल प्रेस की आजादी के नारे से लोकतंत्र में मीडिया का समूचित स्वरूप तबतक परिलक्षित नहीं होगा, जब तक उसे संवैधानिकता का स्वरूप प्राप्त नहीं होगा। जबतक उसमे अधिकार के साथ जिममेदारी का भाव नहीं आएगा तबतक समाज व लोकतंत्र की विकृतियों का पर्दाफाश वह स्थायी व सतत भाव से कर नहीं कर सकती। अभी आप देखिए भारत में मीडिया को परंपरागत रूप से जो भी हैसियत प्राप्त था, उस पर भी अब बट्टा लग रहा है। संसद की कार्यवाही का पास लेने के लिए पत्रकारों को मार्च करना पड़ता है। मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी जो चंद सुविधाएं अरसे से दी जा रही थीं उसे भी छीन लिया गया है। यह कृत्य मीडिया को आर्थिक दृष्टि से अबला बनाना तो है ही बल्कि यह मीडिया का एक बड़ा अपमान है।
क्या आपको लगता है कि सोशल व डिजीटल मीडिया के बढते प्रभाव की वजह से मीडिया के संवैधानिक दर्जे की मांग ज्यादा जरूरी हो गई है?
देखिए तकनीकी व डिजीटल मीडिया के आगमन से ठीक है आज हर नागरिक सिटीजन पत्रकार की भूमिका में है। लेकिन इनके जरिये जन समस्याओं को परोसा तो जा सकता है, लेकिन सूचना, जानकारी व विचार विश£े षण की प्रामाणिकता की अपेक्षा इनसे नहीं की जा सकती। ऐसे में हमे औपचारिक मीडिया जो लोकतंत्र के इस महती कार्य में अपने मूल मान्यताओं के साथ हर पल कार्यरत हैं, उसे आरोहित करने के बजाए उसका तिरोहित करना लोकतंत्र का गला दबाना है। ऐसे तो विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका का भी डिजीटल स्वरूप तैयार कर लें तो फिर ये कोई बात तो नहंी हुई।
मीडिया को जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है, वह संविधान के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों में से एक है, जो सभी लोगों के लिए है। पर लोकतंत्र के निगरानीकर्ताओं का केवल इससे काम नहीं चलेगा । हम मीडिया की संवैधानिकता के बजाए मीडिया की स्वतंत्रता पर जरूर चर्चा करते रहे हैं लेकिन हकीकत में कानूनी और संवैधानिक स्थिति के अभाव की वजह से मीडिया निहित स्वार्थी तत्र्वों मसलन राजनीतिक दल/उद्योगपति/पूंजीपति/माफिया के शिकंजे में जाकर उनके द्वारा दरअसल स्थापित, संचालित और शासित हो रही है। दूसरी ओर, संवैधानिक स्थिति के अभाव में मीडिया आम जनता व समाज के कई मुद्दों के प्रति जवाबदेह नहीं रह पाती जिसकी काफी जरूरत है। अंतत: मीडिया संबंधित निहित स्वार्थों द्वारा प्रचार अंग के रूप में उपयोग की जाती हैं। इसके अलावा मीडिया अपनी आर्थिक प्राणवायु के लिए उपभोक्ता बाजारों की धुन पर भी नाचने पर विवश होती हैं। इस वजह से मीडिया में बड़े आराम से सभी प्रकार की मनगढ़ंत, सनसनीखेज, कामुक, नग्नता, पक्षपातपूर्ण, प्रचार और पीआर सामग्री को प्राथमिकता दी जाती है।
ऐसे में मीडिया को यदि संवैधानिक स्थिति प्रदान की जाती तो यह मीडिया मालिकों और मीडियाकर्मियों को अधिक जिम्मेदार, जवाबदेह, नैतिकता से प्रेरित बनाने के साथ मीडियाकर्मियों के कई पेशेवर और सामाजिक हितों को भी सुरक्षित करती। इसके अलावा मीडिया की संवैधानिक स्थिति न केवल मीडिया कर्मियों को कई प्रकार के जोखिम, असुरक्षा, अनिश्चितता और पेशे की कई बाधाओं से बचाएगी, बल्कि यह लाखों मीडिया कर्मियों को सममान, गौरव, आश्वासन और निश्चितता की भावना भी प्रदान करेगी।
आप अभी मीडिया के संवैधानिक दर्जे के लिए क्या कर रहे हैं। अबतक आपने देश के किन किन जगहों पर किन किन मीडिया समूहों को इस बाबत विश्वास में लिया है? क्या मीडिया संगठनों की तरफ से आपको समर्थन मिल रहा है?
देखिए देश के मीडिया की अभी जो अनस्तित्व सरीखी स्थिति है वह मीडियाकर्मियों में आपसी एकता नहीं होने की वजह से है। अधिकतर मीडियाकर्मी इस भाव में जीते हैं कि वे भी राजनीतिक विचारधारा के एक हिस्से हैं। ठीक है हर व्यक्ति अपने पेशे के अलावा मतदाता भी है जो किसी एक उममीदवार या दल को अपना मत देता है। पर मीडियाकर्म एक पेशा है और सबसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक संरचना में उसकी एक अहम जिममेदारी है जैसे कि न्यायपालिका की है। पर अधिकतर मीडियाकर्मी ये भूल जाते हैं कि राजनीतिक विचारधारा या आइडियोलाजी के बजाए उनके लिए मीडिया की अपनी आइडियोलाजी ज्यादा महत्वपूर्ण है। अत: हर मीडियाकर्मी मीडिया की आइडियोलाजी को ओढे बिछाए और उसके इकोसिस्टम में रहें जो उनके लिए पहले जरूरी है। मीडिया की आइडियोलाजी ये कहती है कि हर सही को सही, हर गलत को गलत, हर अनाचार व्याभिचार भ्रष्टाचार कदाचार और अत्याचार का प्रतिकार किया जायें, हर अन्याय अराजकता शोषण जुल्म सितम के खिलाफ स्टैंड लिया जाए। उस स्टैंड में चाहे आप कलम डालें या कैमरा डाले यही उनका लोकतांत्रिक गौरव है और यही उनका ब्रेड एंड बटर भी है। पर दूर्भाग्य ये है कि राजनीतिक गुटों की तरह मीडिया भी पूरी तरह गुटों में विभक्त हो गया है। इस कार्य में मीडिया प्रतिष्ठान भी शामिल हैं, मीडियाकर्मी भी शामिल हैं और मीडियाकर्मियों का संगठन भी शामिल हैं।
अभी देश के अधिकतर मीडिया संगठन कृषकाय दिखते हैं, मीडिया के मुद्दों की पूरी समझ के साथ साथ सिस्टम समाज और सरकार के सामने अपनी बातों को प्रभावी ढंग से वे कह नहीं पाते। दूसरी बात ये हैं कि मीडिया की भीड़ ज्यादा हो गई है जिसमे गैर गंभीर मीडिया का हिस्सा ज्यादा है और जो गंभीर मीडिया है वह समाज के अन्य मुद्दों की तरह अपने मीडिया के मुद्दे पर अपनी दृष्टि का फलक विस्तृत नहीं कर पा रहा है।
पिर भी मैने पिछले एक साल के दौरान कई मीडिया संगठनों व प्रेस क्लबों के पदाधिकारियों से मुलाकात व बात की हैं। इस बाबत मैं मुंबई, लखनउ, जयपुर, झांसी, भोपाल, वाराणसी , पटना और दिल्ली के प्रेस क्लबों से संपर्क किया है। इसके अलावा सैकड़ों जिला प्रेस क्लबों व संगठनों से संपर्क किया है। मैने देश के करीब एक दर्जन मीडिया शिक्षण संस्थानों के हजारों छात्रों से भी संवाद किया है। इस दौरान मुझे ये लगा कि मीडिया के तमाम मुद्दे को लेकर एक हालीस्टिक सोच नहीं है, विभ्रम है।
आपको पत्रकारों व पत्रकार संगठनों का मीडिया के संवैधानिक दर्जे की इस मुहिम पर कैसा रेस्पांस मिला है? अभी तक कितने मीडियाकर्मियों ने इस अभियान के लिए अपना हस्ताक्षर दिया है।
देखिए मैं अबतक करीब पांच हजार मीडियाकर्मियों का इस मुहिम के समर्थन में हस्ताक्षर ले चुका हूं। लेकिन मैं आपको बताउं अधिकतर मीडियाकर्मियों को इस बात का अंदाजा नहीं है कि मीडिया की मौजूदा हैसियत क्या है और मीडिया के संवैधानिक दर्जे से क्या बदलाव आएगा। हमारे देश में मीडिया का इकोसिस्टम ऐसा है जिसमे अधिकतर मीडियाकर्मी मीडिया के बड़े लोकतांत्रिक आदर्शों और मान्यताओं की भावभूमि से अनुरंजित व प्रेरित नहीं दिखते। उनके लिए मीडिया प्रतिष्ठान एक दोयम दर्जे की प्राइवेट नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं है जिसमे वे जितने समझौते कर सकें या बारगेनिंग कर सके, अपने पद वेतन और प्रतिष्ठा को लेकर, अपने बाइलाइन व बाइट को लेकर बस वही तक उनकी कर्म व दृष्टि संघर्षरत दिखती रही है। कहने के लिए ये कह सकते हैं कि अपने मीडिया प्रतिष्ठान की वर्किग कंडिशन्स और अपनी नौकरी की असुरक्षा मीडियाकर्मियों को सोचने को जरूर विवश करती है। बाकी चीजें उनकी अपेक्षाओं के दायरे में ना तो समाहित होती है और ना ही इसके बाहर उनकी सोच जा पाती । ठीक है कि मीडियाकर्मी अपनी रोज रोज की खबरों के पालीटिकल पर्यावरण को लेकर अपनी पेशेवर जरूरतों के दबाव में अपनी निगाह जरूर फैलाते हैं।
दूसरी बात ये है कि अधिकतर मीडियाकर्मी ये समझते हैं कि मीडिया की संवैधानिकता का मतलब मीडिया का सरकार का नियंत्रण में आ जाना है। कई लोग यह भी मानते हैं कि संवैधानिकता का मतलब आकाशवाणी व दूरदर्शन की तरह का मीडिया हो जाना है। इस पर मैं उन्हें कहता हूं कि सरकार नियंत्रित या स्वामित्व मीडिया व संवैधानिक मान्यता प्राप्त मीडिया में जमीन आकाश का अंतर है।
मीडिया की संवैधानिकता का मीडिया के निजी या सरकारी स्वामित्व से कोई लेना देना नहीं है । इसका मतलब मीडिया के कर्म, मर्म, प्रभूता , हैसियत , जिम्मेदारी , फर्ज , दायरा, नैतिकता, गरिमा, मर्यादा, पेशेवर सुरक्षा और उनके अपने इन्टाइटलमेंट से हैं। ठीक वैसे ही जैसी हैसियत लोकतंत्र में न्यायपालिका को मिली है।
मीडिया की संवैधानिकता को लेकर अधिकतर मीडियाकर्मी कई सवाल करते हैं। इनके उत्तर के क्रम में जब सारी बातें विस्तार से व सभी परस्पर सवालोंं को सुलझाने के उपरांत ही मीडिया को लेकर उनकी कई बेमानी धारणाएं दूर हो पाती हैं। तब जाकर वह मीडिया के संवैधानिक दर्जे की मांग से सहमत हो जाते हैं। अधिकतर मीडियाकर्मी इस सवाल पर स्वयं आगे आने के बजाए दूसरे से अपेक्षा करते हैं। मीडिया संगठन अपने सदस्य मीडियाकर्मियों की सुरक्षा, नौकरी, वेतन वगैरह को लेकर अपने मांगे जरूर करते हैं पर इन्हें मंगवाने में देश के सभी मीडिया संगठन बुरी तरीके से विफल हैं। देश की राजधानी दिल्ली के पीआइबी मान्यता प्राप्त पत्रकारों क ा संगठन अभी तक मीडिया की छीनी गई रेल कन्सेशन मांग को नहीं मनवा पाया । पत्रकारों की बीमा, पेंशन व पेशेवर सुरक्षा की मांग तो दूर की कौड़ी है। मुझे लगता है कि मीडिया में एक विराट नेतृत्व, दृष्टि व कार्ययोजना का अभाव है। मीडियाकर्मी बस इस व्यवस्था में केवल अपनी व्यक्तिगत जगह तलाशने में ही परेशान है, समझौताबद्ध है और अनैतिक बनने के लिए भी विवश है। यह घोर विडंबनाजनक है।
क्या आपको लगता है कि दुनिया के अन्य लोकतंत्रों में मीडिया को संवैधानिक हैसियत प्राप्त है?
देखिए दुनिया का सबसे बेहतरीन लोकतंत्र अमेरिका है। वहां के छोटे से लिखित संविधान में मीडिया के लिए भले अलग उल्लेख नहीं है, पर वहां के लोकतंत्र के इतिहास व परंपरा में मीडिया का एक गौरवशाली स्थान है। प्रेस ने वहां के लोकतंत्र के कई विकारों खासकर भ्रष्टाचार के प्रति बड़े क्रूसेडर की लड़ाई लड़ी है। ट्रंप जैसे शक्तिशाली राष्ट्रपति भी अपने पिछली बार के कार्यकाल में एक मीडिया कार्यालय मे जाकर हाथ जोड़ते नजर आए। सवाल यहां मीडिया की हनक का नहीं है, मीडिया के महत्व का है जिसके पास सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति आने को विवश है। इसी तरह इंगलैंड में मीडिया के अस्तित्व की बात करें तो यह ऐसे ही है जैसे वहां के लोकतंत्र का है। वहां मीडिया स्वतंत्र के साथ सबल भी है और समझौताबद्ध नहीं है। वे सरकार क ा चारणगान नहीं करते है। लेकिन भारत जो दुनिया क ा सबसे बड़ा लोकतंत्र व सबसे बड़ा लिखित संविधान वाला देश है वहां मीडिया की हैसियत अलिखित क्यों है? यहां परंपरा से चली आ रही मीडिया की हैसियत भी हाशिये पर क्यों चली गई है? यहां मीडिया चारणगान के लिए क्यों विवश है? यहां या तो औपचारिक मीडिया अंधसमर्थन में तल्लीन है और जो मीडिया डिजीटल प्लैटफार्म पर है वह अंधविरोध में मशगूल है। मीडिया की बिटविन दी लाइन की मौलिक अवधारणा विलुप्त हो चुकी है। मीडिया के स्वस्थ व सत्य जनमत निर्माण की भूमिका समाप्तप्राय दिखती है।
आपके लिए मीडिया की संवैधानिक हैसियत का प्रारूप क्या है। क्या यह महज सैद्धांतिक या यूटोपियन परिकल्पना है या इसे जमीनी स्वरूप दिया जा सकता है?
देखिए मीडिया को लोकतंत्र का एक अविभाज्य रूप मानक र एक सांगठनिक स्वरूप में संविधान में वैसे उपबंधित करने की जरूरत है जैसे विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका व और कई संस्थाओं को लेकर संविधान के संबंधित आर्टिकल्स में उल्लेखित किया गया है। इसमे कार्य अधिकार क्षेत्र के साथ साथ तीन और चीजें लानी जरूरी है। पहला कि देश में एक मीडिया आयोग बनाया जाए ठीक वैसे कि जैसे विधि आयोग, चुनाव आयोग और सूचना आयोग हैं। इसके तहत देश में अखबार रेडियो, टीवी , डिजीटल,सोशल मीडिया और फिल्मों को लेकर इनके हर पहलू पर चिंतन मंथन सुझाव नीति निर्माण व संस्था निर्माण हों। हम बता दे देश में 1960 और 70 के दशक में दो बार प्रेस आयोग बनाया गया है। पर अब इस पर कोई नहीं सोच रहा।
और दूसरा कि हर एक दशक में एक नयी मीडिया नीति निरूपित होनी चाहिए जिससे समय के अनुसार मीडिया के मिशन, उद्योग, तकनीक, अर्थशास्त्र, प्रचलन व व्यापक कोड आफ एथिक्स तथा लाइसेंसिंग के दिशा निर्देश का एक ब्लू प्रिन्ट तैयार हो। साथ साथ इसमे विज्ञापन के पक्ष का पूरा नीतिगत व कार्यगत मामला भी समिमलित हो। संपादकीय व विज्ञापन दोनो पहलू को आमने सामने लाए हम एक संतुलित मीडिया नीति का निरूपण कर ही नहीं सकते। मीडिया की संवैधानिक स्थिति के लिए सबसे पहले एक नई राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाई जानी चाहिए जिसमें संपादकीय और विज्ञापन दोनों भाग शामिल हों, उसके बाद एक नए मीडिया आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।
यदि हमारे पास राष्ट्रीय कानून आयोग जैसी संस्था है, तो हमारे पास मीडिया आयोग जैसी संस्था क्यों नहीं होनी चाहिए, जो पीआईबी, आरएनआई, डीएवीपी, पीसीआई, प्रसारण परिषदों, आइएनएस आदि मीडिया के कई लाइसेंसिंग/विनियमन प्राधिकरण/के साथ समन्वय कर सकें और मीडिया के विभिन्न पहलुओं के संबंध में नीतियों/कानूनों/प्रौद्योगिकियों का सुझाव प्रदान कर सकें।
इसके अलावा मीडिया में बार काउंसिल की तरह एक प्रोफेशनल सर्टिफिकेशन काउंसिल भी होनी चाहिए, जो देश में कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक मौजूद तीनों श्रेणियों के मीडियाकर्मियों यानी पूर्णकालिक मीडियाकर्मी, अंशकालिक मीडियाकर्मी और फ्रीलांसर का प्रमाणन कर उनके विभिन्न पेशेवर हितों को चिन्हित कर सके।
मीडियाकर्मियों व मीडियामालिकों के परस्पर हितों को लेकर आपकी सोच क्या है?
मेरी समझ से देश के मीडिया कर्मियों को कॉलेज शिक्षकों/प्रोफेसरों के समान सभी वेतन/भत्ते सुविधाएं उनके पदनाम के आधार पर प्रदान की जानी चाहिए। आश्चर्य है कि मीडिया एक बौद्धिक कर्म है पर इनका संगठन व वेतनमान श्रमजीविता के आधार पर निर्मित किया जाता है। मीडिया स्वामियों की बात करें तो सबसे पहले मैं कहूंगा कि इनकी संखया बेलगाम तरीके से बढना ठीक नहीं है । इनकी संखया ऐसे बढ रही है मानो ये कोई किराने की दूकान हों । देश में लोकतंत्र का यह तकाजा है कि छोटे लघु मघ्यम अखबारों पत्रिकाओं व चैनलों की स्थापना व परिचालन का एक बड़ा इकोसिस्टम विकसित हो, पर इसमे वही होने चाहिएं जो फूल टाइम मीडिया वर्क करते हों, गंभीर कं टेन्ट परोसते हों और रिपोर्टिंग व शोढ की गुणवत्ता का उच्चतर मानक फालो करते हों। मेरे हिसाब से विज्ञापन नीति प्रसार संखया या टीआरपी मात्रा के बजाए संपादकीय गुणवत्ता, राजनीतिक निष्पक्षता और स्वस्थ जनमत के निर्माण पर आधारित होनी चाहिए।
अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह बयान बड़ा स्वागत योग्य है जब उन्होंने मुंबई में आइएनएस के नये भवन के उदघाटन अवसर पर यह कहा कि आगामी 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने में पत्र पत्रिकाओं की भूमिका बेहद प्रभावकारी होगी। यानी मतलब साफ है कि मीडिया असल रूप में आधनिक समाज, सिस्टम, सरकार का एक अविभाज्य अंग है जिसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान में स्थान देकर व उसे सशक्त स्वरूप प्रदान कर भारतीय लोकतंत्र द्वारा समूची दुनिया के लोकतंत्रों में मीडिया की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करने का कौल लेना होगा।