क्या भाजपा लौट सकेगी पारदर्शी पार्टी चुनाव में?

भूपेन्द्र गुप्ता

कांग्रेस पार्टी ने अंततः संगठन के चुनाव करवा ही लिए और मलिकार्जुन खड़गे राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए हैं।इस बहाने गैर गांधी के नारे और वंशवाद का दुष्प्रचार भाजपा के हाथ से छिन गया है।वे इसे अभी तक तुरुप के पत्ते की तरह उपयोग करते थे।कांग्रेस ने भाजपा के सामने अब नया नेरेटिव गढ़ने की चुनौती रख दी है।

वर्ष 1980 में जनता पार्टी को तोड़कर बनी भाजपा में चुनाव की कभी परंपरा नहीं रही।वे हमेशा एक ‘चालक अनुवर्तते’ के सिद्धांत पर एक व्यक्ति के पीछे आंख बंदकर चलने के आदी रहे हैं।भाजपा के प्रसव काल में ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण से धोखा करने और दोहरी सदस्यता के नाम पर पार्टी तोड़ने का दाग उस पर लग चुका था।

इस नकारात्मक छवि से बाहर निकलने के लिये भाजपा ने ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का नारा दिया और वर्ष 2000 में पार्टी चुनाव की घोषणा कर दी।चुनाव के हालातों और परिणामों ने भाजपा का चैन लूट लिया ।उन्हें समझ में आ गया कि लोकतंत्र उनकी थाली का भोजन नहीं है।

इन चुनावों में राजस्थान में बनवारी लाल शर्मा अध्यक्ष बने लेकिन भैरों सिंह शेखावत और रामदास अग्रवाल में जमकर संघर्ष हुआ। भैरोसिंह शेखावत को खुली चुनौती का सामना राजस्थान में करना पड़ेगा यह कल्पनातीत था।पार्टी में आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया था ।बंगाल में केंद्रीय नेतृत्व द्वारा थोपे गए असीम घोष के चक्कर में तपन सिकदर ने त्यागपत्र दे दिया था। असीम घोष को पारस दत्ता की जगह स्थापित करने की कीमत पार्टी को चुकानी पड़ी। कर्नाटक में बासवराज पाटिल को लाने में कुमार, धनंजय और अनंत के बीच भीषण युद्ध हुआ । इस टकराव में अंत में अनंत के व्यक्ति के रूप में पाटिल को अध्यक्ष बनाया गया।

उत्तरप्रदेश में शांत रहने वाले राजनाथ सिंह को कुर्मी नेतृत्व ने चुनौती दे दी।

दिल्ली में तो भारी तोड़फोड़ हुई मांगेराम गर्ग को अध्यक्ष बनाने की मुहिम का जबरदस्त विरोध हुआ। इसी तरह मध्यप्रदेश में विक्रम वर्मा चुनाव में उतरे और जीतकर अध्यक्ष बने। तब सुंदरलाल पटवा ने विक्रम वर्मा को कुशाभाऊ ठाकरे का उम्मीदवार मानकर उनका जमकर विरोध किया था।क्या कोई सोच सकता था कि जिन्हें भाजपा का पितृपुरुष कहा जाता है उन्हें भी सर शैया पर लिटाने के लिये पार्टी तैयार थी।पार्टी पर कब्जा करने के इस द्वंद में भाजपा ने महसूस किया कि पार्टी विद डिफरेंस का नारा और लोकतंत्र का लबादा ओढ़ने की यह कवायद भाजपा को महंगी पड़ सकती है। इसलिए उन्होंने 2000 के बाद चुनावों से तौबा कर ली और लोकतंत्र की खिड़की से फिर कभी झांककर नहीं देखा।

लगभग हर प्रदेश में बगावत हुई,दफ्तरों में तोड़फोड़ हुई। भारतीय जनता पार्टी को लगा कि चुनाव के चक्कर में उनकी पार्टी का सत्यानाश बैठ सकता है इसलिए उन्होंने आम सहमति का रास्ता निकालकर चुनाव पर हमेशा-हमेशा के लिए विराम लगा दिया। लोकतंत्र से तौबा करना भाजपा की मजबूरी थी क्योंकि उसके पास महत्वाकांक्षा की इस तेज रफ्तार गाड़ी को नियंत्रित करने का कोई मेकेनिज्म नहीं था।वे यह भी जान गये थे कि भले वे सेवाशाही का नारा लगाते हैं किंतु उनका संगठन मेवाशाही के रास्ते पर चल पड़ा है। जिस पर लोकशाही का कोई अर्थ ही नहीं है।

इन सबके विपरीत असहमतियों का सामना करने और कुछ कुछ छोड़कर सर्वसम्मति बनाने का मेकेनिज्म कांग्रेस को विरासत में मिलता है। खुली अभिव्यक्ति और असहमतियों को सर्व सम्मति बनाना उनके रोजमर्रा का काम है।

किसी भी पार्टी में लोकतंत्र की स्थापना और चुनाव की प्रक्रिया हमेशा सहमतियां और असहमतियों को टकराव के लिए उत्प्रेरित करतीं हैं किंतु इस टकराव को समाधान की ओर ले जाना जितना चुनौती पूर्ण है उतना ही चुनाव परिणामों को स्वीकार करने की सहमति बनाना कष्टकर है। कठिनाईयां होते हुए भी कांग्रेस ने इन चुनौतियों का सामना किया और समन्वय की राह बनाई ।यह केवल कांग्रेस के बस की ही बात थी।

इस चुनाव के माध्यम से कांग्रेस पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी के सामने मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में एक दलित चेहरा सामने रख दिया है। वे वरिष्ठ सांसद है , लगातार 9 चुनाव जीतने वाले जनप्रिय नेता भी हैं। अब भारतीय जनता पार्टी के हाथ का वंशवाद और आंतरिक लोकतंत्र का हथियार खंडित हो चुका है।

कांग्रेस ने चुनाव के माध्यम से जी-23 की चुनौती भी समाप्त कर दी है। सहमतियों असहमतियों के बवंडर को झेला है और लोकतंत्र को अपनाया है।भाजपा कह रही है कि ये नाटक था मगर क्या भाजपा में नाटक के तौर पर ही सही , ऐसे चुनाव कराने का साहस है?यह प्रश्न समय का तकाजा है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)