पितृसत्ता के साये में महिला सुरक्षा!

Women's safety in the shadow of patriarchy!

सोनम लववंशी

भारत की आधी आबादी के लिए सुरक्षा आज भी एक अधूरा सपना बनी हुई है। पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज आंकड़े कहते हैं कि हर दिन औसतन 86 महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। यह आंकड़ा कोई नया नहीं है, लेकिन यह तो केवल दर्ज मामलों की गिनती है। हकीकत इससे कहीं अधिक डरावनी है, क्योंकि असंख्य घटनाएं शिकायत की दहलीज़ तक पहुँचती ही नहीं। सामाजिक कलंक, बदनामी का भय और न्याय की लंबी-थकाऊ प्रक्रिया महिलाओं को चुप करा देती है। यह चुप्पी अपराधियों को ताक़त देती है और पीड़िताओं को और असुरक्षित बना देती है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय वार्षिक महिला सुरक्षा रिपोर्ट और सूचकांक-2025 इस असुरक्षा को एक झलक में सामने लाता है। इस सूचकांक के अनुसार दिल्ली, पटना, जयपुर, कोलकाता, श्रीनगर, रांची और फरीदाबाद सबसे असुरक्षित शहरों की सूची में हैं। दूसरी ओर मुंबई, कोहिमा, भुवनेश्वर, विशाखापत्तनम और गंगटोक अपेक्षाकृत सुरक्षित माने गए हैं। यह अंतर केवल अपराध की घटनाओं का नहीं, बल्कि मानसिकता, नागरिक भागीदारी, पुलिस की जवाबदेही और बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता का है। गंगटोक और कोहिमा जैसे छोटे शहर यह दिखाते हैं कि जब समाज बराबरी को स्वीकार करता है और प्रशासन संवेदनशील रहता है, तब महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकती हैं।

सर्वेक्षण में शामिल 12,770 महिलाओं में से 60 प्रतिशत ने अपने शहर को सुरक्षित माना, लेकिन 40 प्रतिशत ने साफ कहा कि वे सुरक्षित नहीं हैं। कार्यस्थलों पर स्थिति थोड़ी बेहतर है और 91 प्रतिशत महिलाओं ने खुद को सुरक्षित बताया। मगर सार्वजनिक जगहों पर तस्वीर बदल जाती है। सात प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि उन्हें उत्पीड़न झेलना पड़ा और तीन में से दो महिलाओं ने शिकायत तक नहीं की। सार्वजनिक परिवहन में 29 प्रतिशत और अपने आस- पड़ोस में 38 प्रतिशत महिलाएं उत्पीड़न का शिकार हुईं। यानी वे जगहें जो जीवन का अनिवार्य हिस्सा हैं बस, ट्रेनें, गलियाँ और मोहल्ले। वहीं महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित साबित हो रही हैं। हालाँकि यह भी ध्यान देना चाहिए कि सवा अरब से अधिक की आबादी वाले देश में बारह-तेरह हजार महिलाओं पर आधारित यह सर्वेक्षण केवल एक झलक भर है। असली तस्वीर जानने के लिए लाखों नागरिकों की राय पर आधारित अध्ययन चाहिए। और सबसे ज़रूरी यह कि ऐसे अध्ययनों के निष्कर्ष केवल रिपोर्टों और प्रेस विज्ञप्तियों तक सीमित न रहें, राज्य सरकारें और संस्थाएँ उन पर ठोस कार्रवाई करें। वरना यह सब महज़ रस्म अदायगी बनकर रह जाएगा।

दरअसल यह मुद्दा सिर्फ अपराधियों का नहीं है, मुद्दा समाज की उस मानसिकता का है जो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने को अब भी तैयार नहीं। पितृसत्ता, स्त्री उपेक्षा और लैंगिक भेदभाव हमारी सोच में गहरे धंसे हुए हैं। जब तक लड़की और लड़के के लिए अलग-अलग मानक बने रहेंगे, तब तक असमानता से उपजे अपराध मिटेंगे नहीं। परिवार और स्कूल से ही बराबरी और संवेदनशीलता की शिक्षा शुरू करनी होगी। कानूनों को और सख्त बनाना ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि कानून लागू करने वाले तंत्र की जवाबदेही तय हो। पुलिस का रवैया संवेदनशील हो, शिकायत दर्ज करना आसान हो और न्याय की प्रक्रिया तेज़ और पारदर्शी हो। महिला आयोग और अन्य संस्थाओं को केवल बयानबाज़ी से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाने होंगे। बलात्कार, छेड़छाड़ और उत्पीड़न अलग-अलग घटनाएँ नहीं हैं, यह एक ही असुरक्षा का विस्तार हैं। आँकड़े और रिपोर्ट हमें आईना दिखाते हैं, लेकिन जब तक समाज उस आईने में झाँककर अपनी सोच और रवैया नहीं बदलेगा, तब तक कोई वास्तविक सुधार संभव नहीं। महिलाओं की सुरक्षा केवल प्रशासन का मसला नहीं है, यह सभ्यता की असली कसौटी है। घर से लेकर सड़क और कार्यस्थल तक अगर महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, तो किसी भी देश की तरक्की का दावा खोखला ही कहलाएगा।