अमर नाथ तिवारी
हमारे पुरखे जब इन पहाड़ों में आए तो ये घने जंगल रहे होंगे।उन्होंने सामुहिक रूप से रहना और मिलकर कार्य करना शुरू किया।उन्होंने ऐसी जगहें रहने को चुनी जो भूस्खलन, जंगली जानवरों से और यहां तक भूकंप से भी सुरक्षित थी।साथ थे सदा जीवी जल श्रोत और पास ही जरूरत पूरी करने के जंगल…
इन पहाड़ों को आबाद करके उन्होंने खेतों में बदला और रास्ते बनाए।उन्होंने ऐसी फसलें उगाई जिनके कारण तमाम आपदाओं, अकाल और युद्धों के दौरान भी लोग भूख से नहीं मरे। एक दूसरे के काम आना और एक पहचान के साथ जीवन चलता रहा।जिसमें शामिल रही, उनकी आस्थाएं।जिनमें प्रकृति ही सर्वोच्च शक्ति बनी रही।उनके अनुभव इतने वैज्ञानिक थे, कि हरेक चोटी पर उन्होंने कोई न कोई मंदिर बनाकर जलागम को बचाने का कार्य किया। नॉले, धारे और पोखरों, खालों की पूरी श्रृंखला बनाई और दीर्घकालिक व्यवस्था बनाकर पीढ़ियों तक अपनी आबादी को सुरक्षित किया।
नदी, जंगलों, जड़ी बूटियों, फसलों और शिकार के उनके नियम थे और साथ ही आंतरिक स्वास्थ्य रक्षा से लेकर सुरक्षा तक की व्यवस्था भी उनकी बनाई थी।
शिक्षण के लिए घर घर तमाम पुराने ग्रंथ और सामुहिक शिक्षण के लिए भागवत कथाएं थी।अभिव्यक्ति के लिए रामलीला से लेकर हरीश चंद्र, कृष्ण जन्म जैसे नाटक थे।प्रेम, प्यार मनुहार के लिए होली और अंधकार के विरुद्ध सामुहिक प्रयास का त्यौहार बनी दिवाली।हरेक फसल का अपना त्यौहार और पशुओं तक को सम्मान देने की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए खतडूवा जैसे त्यौहार बनाए।नदी स्नान, मेले मिलन केंद्र बनाए और जीवन की सार्थकता को उच्च स्तर देने का नाम था पैदल तीर्थ यात्रा…
सबकी व्यवस्था थी, शिल्पकार, कलाकार, भिक्षुक, साधु और यात्रियों तक की..
यह सब बहुत लंबे अनुभवों के बाद खड़ा एक स्वावलंबी ग्राम्य व्यवस्था थी और अपने प्रति अन्याय के विरुद्ध लड़ने की भी व्यवस्था थी।
इसीलिए कोई राजा, कोई जमींदार कोई दबंग बांध नहीं पाया हमारे पहाड़ी पुरखों को अपनी दादागिरी से….
न्याय के लिए पंच परमेश्वर और व्यवस्था थी, भूमि प्रबंधन के लिए पट्टी की…
यह सब अंग्रेजों और उसके दलालों ने छीना, आजादी के बाद भी अंग्रेजीदा अफसरों ने लोगों की स्वतंत्रता को अपने नियमों से बाधित किया।जहां वे काबिज थे, उनके पुरखों की जगहें थी। एक रेखा कागज में डाली और बताया कि यह अब सरकारी है।नेता और पार्टियों ने कहा सरकार सब कुछ करेगी और फिर लोगों को झूठे भ्रमजाल में फंसाकर उनसे उनके हरेक अधिकार को छीन लिया…
कभी पुछि कर, कभी वनों की हकदारी, कभी घोड़ा पालकी तो कभी बंधुवा व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले लोगों की वही पीढ़ी चिपको, नशा नहीं रोजगार दो, उत्तराखंड पर्वतीय राज्य दो जैसी लड़ाई का भाग बनी रही…
व्यवस्था हमारी थी, हमारे लोगों ने अपनी आजादी से कभी समझौता नहीं किया और किसी और की आजादी पर कभी प्रतिबंध भी नहीं लगाया।
गांधी जी ने इसे खूबसूरत फूल कहा। जिसकी जड़ें खोदकर अंग्रेजों ने देखने की कोशिश की लेकिन फिर उसे रोपा ही नहीं।
आजादी के 75साल बाद और राज्य बनने के इन 23सालों के बाद हमारे पास उजड़े, जन हीन गांव हैं।वन्य प्राणियों भरे चीड़ के जंगल हैं।बेहिसाब लूट मचाती पंचायती व्यवस्था है और एक दूसरे से दूर होता, व्यक्तिवादी सामुदायिक जीवन है , बर्बाद नदियां, जंगल और जहरीले होते खेत हैं।ऐसी पीढ़ी है जिसको मिट्टी में हाथ लगाने से शर्म आती है।
जो कुछ खोया है, उसे इसलिए याद किया जाना चाहिए ताकि जिनके अंदर उम्मीद शेष है वे अपनी जड़ों में अंकुर खोज सकें।
जिनको नया समाज बनाने की धुन है, वे बुनियाद के निशानों से कुछ नव निर्माण कर सकें और खोजें कि क्या मौजूद था यहां के समाज के अंदर…..
वो आदर्श समाज नहीं होगा लेकिन मिलकर लड़ने की शक्ति रखने वाला साहसी समाज, अपने जीने के साधनों, संसाधनों को बचाने वाला समाज, अपनी अगली पीढ़ियों तक अपने हिस्से का सुरक्षित हिमालय सौंपने वाला समाज तो था ही….
बहुत कुछ खो गया है।जो बचा है उसे एकत्र करके अगली पीढ़ियों को सौंपना जरूरी है।
हमारी पीढ़ी ने आग, वनों से लकड़ी चारा, गागर से पानी और जीने की ग्राम्य व्यवस्था से आज मोबाइल, बुलेट ट्रेन, हवाई जहाज तक की यात्रा कर ली है।हमने झोड़ा, भगनौल से गरबा और राम यात्रा तक देख लिया है।हमारे पास आज लोक के वे नायक तो मौजूद नहीं हैं जिन्होंने बहुत कुछ किया था, पर अभी भी राम गाड़ है, राम गंगा है, कोसी सरयू,काली,गगास, पनार और आधी अधूरी गंगा तो है ही….
नंदा है, गौरा है और रामलीला नाटकों को करने वाली, गांव गांव भागवत करके लोक शिक्षण करने वाली व्यास टोलियां तो हैं ही और मौजूद हैं हमारे अपने लोक के ग्राम्य देवता और उनके थान…..
जितना है, उसे बचाकर अगली पीढ़ियों को सौंपना भी हमारी ही पीढ़ी की जिम्मेदारी है। गंगा हिमाल के परिजनों को फिर से जुटना होगा।यह सृजन का आंदोलन ही अगली पीढ़ियों को सुरक्षित और समृद्ध हिमालय सौंप सकता है।