पहलवान, सरकार, देश और नेतृत्व

सीता राम शर्मा ‘चेतन’

पुरानी कहावत है – सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते । देश के कुछ आंदोलनकारी पहलवान भूल-सुधार कर घर लौट आए हैं पर भूल-सुधार की यह आशा सरकार से करना व्यर्थ है । रही बात देश की ( देश अर्थात जनमानस ) तो वह ऐसी परिस्थितियों में सदैव लाचार रहा है । इस परिप्रेक्ष्य में जनमानस का एकमात्र आंशिक अधिकार, कर्तव्य और दायित्व मतदान करना ही रह गया लगता है । मतदान अयोग्य, अपराधी और भ्रष्टों के चुनाव की विवशतापूर्ण स्थिति में अपने नेतृत्व और अपनी सरकार को चुनने के लिए । फिर नेतृत्व हो या सरकार, उसका अपना एक पुराना चरित्र है । विशेषाधिकार है । अहंकार है । वह कहने-सुनने, देखने-दिखाने और अपनी थोथी सैद्धांतिकता का शोर मचाने के लिए चाहे जो कहे, उसकी वास्तविकता निरंकुशता है । संवेदनहीनता है । स्वार्थलोलुपता है । देश से पहले अपना नफा-नुकसान है । उसकी धर्मनिरपेक्षता की, लोकतांत्रिकता की, देशभक्ति की, कर्तव्यनिष्ठता की, संवैधानिकता की, सैद्धान्तिकता की अपनी एक अलग वैचारिकता और व्यवहारिकता है । जिस पर उसका विशेषाधिकार है । उसे वह जब चाहे जैसे चाहे किसी भी रूप में ढाल सकता है । अपनी उस निरंकुशता को लेकर उसका बहुत स्पष्ट मत यह होता है कि अपनी दबंगता और ढीठता में वह सदैव शत-प्रतिशत सही ही होता है क्योंकि उसे लगता है कि वह कभी गलत तो हो ही नहीं सकता । क्योंकि वह सत्ता में है, वह सरकार है और सरकार चाहे जो करे, सही ही होगा । उसके पास गलत को सही कहने का अधिकार है । वह अपनी निर्धारित अवधि का सर्वोच्च स्वामी है । स्वतंत्र भारत की हर सरकार, केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, होती तो सरकार ही है, उसका यही इतिहास है और वर्तमान भी । उदाहरण के रूप में पूर्ववर्ती युपीए सरकार के समय के बहुचर्चित निर्भया कांड, अन्ना आंदोलन और बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान सत्ता की कार्यशैली का जिक्र करें या फिर वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हुए किसान आंदोलन और अभी चलते पहलवान आंदोलन के दौरान सत्ता की कार्यशैली का, महान धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक केंद्र सरकारों की नीति और गति एक जैसी रही है । राज्य सरकार के रूप में पश्चिम बंगाल की वर्तमान तृणमूल सरकार का नाम ही काफी है और इसमें आश्चर्य की कोई बात भी नहीं, क्योंकि मैंने पहले ही बता दिया है कि वह केंद्र की हो या राज्य की, चाहे किसी भी दल की हो, है तो सरकार ही । निरंकुशता उसका स्वभाव है और विशेषाधिकार भी । जिसका अपना एक निश्चित समय है । उसमें किसी का कोई अधिकार नहीं । कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता । चाहे वह उसे बनाने वाला जनमानस ही क्यों ना हो । रही बात न्यायपालिका की, तो वह तो बेचारी पुराने मुकदमों के ढेर से ही ढेर है । उसकी न्याय अवधि ही उसका सबसे बड़ा अन्याय है, जिससे वह अनवरत पीड़ित रहने को अभिशप्त है । यूं भी अंधी प्रतिमा से त्वरित न्याय की अपेक्षा व्यर्थ है । आज के विषयगत संदर्भ में अत्यधिक निरंकुश कांग्रेसी केंद्रीय सत्ता और उसके आपातकाल जैसे अपवाद की बात करना फिलहाल ठीक नहीं।

अब सीधी बात इस चिंतन और विमर्श के कारण, पिछले कुछ दिनों से देश में चर्चा में रहे पहलवान आंदोलन की । जिसमें राष्ट्रीय कुश्ती संघ के मुखिया बृजभूषण शरण सिंह, जो भाजपाई सांसद हैं, उन पर कुछ महिला पहलवानों द्वारा अत्यंत गंभीर ( क्षमा कीजिएगा, अत्यंत गंभीर सिर्फ संदिग्ध पीड़ितों के लिए है, सत्ता के लिए तो कतई नहीं ) आरोप लगाए गए थे, उससे जुड़ी गतिविधियों और कार्रवाईयों पर थोड़ी चर्चा भर करनी है । चर्चा भर इसलिए कि इससे ज्यादा कुछ करने की औकात आम आदमी की है भी नहीं । फिर जिन बहन-बेटियों ने, जो वर्षों तक अपनी और अपने परिवार समाज की मान मर्यादा का ख्याल कर अब तक चुपचाप रही थी, सत्ता के बहरे कान उनकी ही चित्कार पुकार नहीं सुन समझ पा रहे थे तो मेरे जैसे छोटे हाशिए के लेखक की क्या सुनेंगे ? बेशक वैश्विक मंचों पर देश के तिरंगे की आन-बान और शान बढ़ाने वाली इन बहन-बेटियों से भी न्याय मांगने के दौरान कुछ गलतियां हुई हैं, पर उसका कारण भी सत्ता का प्राथमिक बहरापन और अहंकार ही रहा है । फिर जब विश्वासी, जिम्मेवार और उदार दिखाई देती सत्ता ही बहरी बन गई हो तो विपक्ष, जो पिछले कुछ वर्षों से पूरी तरह पथभ्रष्ट हो देश का विपक्ष और विरोधी तक बन गया हो, आग में अपना पूर्ण प्रदूषित षड्यंत्रकारी घी तो डालेगा ही । बिना किसी बुझवल और कहावत के साफ शब्दों में कहा जाए तो महिला पहलवानों के गंभीर शिकायतों के साथ सामने आते ही, केंद्र सरकार को पूरी तरह गंभीर होकर उनकी बात सुननी चाहिए थी । यदि विलंब हुआ भी तो धरना-प्रदर्शन के बाद तो उसे अवश्य ही पूरे मामले का संज्ञान लेना चाहिए था । क्षमा कीजिएगा, मेरा तो स्पष्ट मत है कि इस मामले के प्रकाश में आने के बाद लाख व्यस्तता और विवशता के बावजूद खुद केंद्रीय नेतृत्व, जो उच्च स्तरीय राष्ट्रीय गतिविधियों में बेहद सजग और संवेदनशील माना जाता है, खुद उसे आगे चलकर त्वरित तेज और सख्त कार्रवाई ( चाहे दोषी आरोपी निकलता या आरोपकर्ता ) का निर्देश देना चाहिए था । पर अफसोस लाख अच्छाईयों के बावजूद वह जनमंच पर किसान आंदोलन की तरह एक बार फिर पूरी तरह सरकार के अंहकार से ग्रसित रहा । बेशक केंद्र सरकार और केंद्रीय नेतृत्व की संवेदनहीनता, दंभता, निर्दयता और पापी निष्क्रियता के दुष्परिणाम स्वरुप महिला आंदोलनकारी बहन-बेटियों से कई भूलें हुई हो, वो गलत तथा षड्यंत्रकारी शक्तियों के बहकावे में चली गई हो, उन्होंने देश के कानून और न्यायपालिका पर भरोसा करने की बजाय उग्रता से लेकर देश विरोधी गतिविधियों और मांगों ( बिना पर्याप्त साक्ष्य और न्यायिक सुनवाई के संदिग्ध आरोपी को गिरफ्तार करने की मांग तथा राष्ट्रीय मेडल को गंगा में बहाने के प्रयत्न ) तक का सहारा लिया हो, पर अब लगता है कि यदि वे उस हद तक नहीं जाती तो क्या उन्हें न्याय मिल पाता ? जिसकी थोड़ी ही सही अब संभावना दिखाई देती है । यदि इतना कठोर विरोध ना होता तो वह जरुरी और पर्याप्त कार्रवाई होती, जिससे आरोपी के विरुद्ध कई साक्ष्य सामने आ रहे हैं । अब कम से कम अंतरराष्ट्रीय रेफरी जगबीर सिंह के बयान के बाद तो प्रथम दृष्टया यही लगता है कि आरोपी बृजभूषण शरण सिंह दोषी रहे हैं । जगबीर सिंह के बयान के बाद का विलंब अब समझ से परे है ! हालांकि अच्छी बात यह है कि इस मामले में फिलहाल चलती जांच प्रक्रिया से पहलवानों में संतुष्टि का भाव है और उन्होंने जांच से संतुष्ट होकर ये कहा है कि अब वे अपनी लड़ाई सड़क की बजाय न्यायालय में लड़ेंगे ।

अंतिम निष्कर्ष और जरुरी बात यह कि आम और खास जनता के अत्यंत संवेदनशील और बड़े मामलों में आज भी सत्ता और नेतृत्व इतना संवेदनहीन, पक्षपाती और दोषी की भूमिका में रहने को विवश क्यों है ? सत्ता और दलगत स्वार्थ अपराधी और अन्यायी के साथ कब तक ? और शांतिपूर्ण तथा नैतिक जनांदोलनों के प्रति सत्ता और उसके शासकों में जन विरोधी, गैर जरुरी, पापी अहंकार और लंबी उदासीनता क्यों ? अमृत काल में देश के हर क्षेत्र में जरुरी और क्रांतिकारी बदलाव लाती, स्वतंत्र भारत की सबसे सशक्त, सफल और जिम्मेवार मोदी सरकार को सत्ता की इस कमजोरी से यथाशीघ्र मुक्ति पानी चाहिए । देश बदलने के साथ-साथ सत्ता का जनपक्षीय चरित्र बदलना अब जरुरी हो गया है क्योंकि इसके बिना हर बदलाव अंततः आधा अधूरा और निरर्थक ही सिद्ध होगा । मुझे लगता है कि सत्ता के इस चरित्र को बदलने की जिम्मेवारी भी अब मोदी की ही है और इसके लिए अब उन्हें यह सोचना और समझना चाहिए कि किसान और पहलवान आंदोलन पर उनकी बेबसी के कारण क्या थे ? न्याय के रास्ते में अड़चनें थी या लगाई जा रही थी ? दोनों ही मामलों में निर्णय लेने में विलंब क्यों हुआ ? कुशल नेतृत्व और एक संवेदनशील सरकार होने के नाते इन सवालों के उत्तर और भविष्य के लिए उन कारणों का समाधान खोजना जरूरी है । यदि वे ऐसा कर पाए तो यह जनता, देश और मोदी सरकार के साथ भविष्य की भाजपा के भी हित में होगा । बहरहाल जिस तरह कई बार वे पदक विजेता कुछ खिलाड़ियों से मिलते हैं, देर से और बिना शोर-शराबे के ही सही, खुद को पीड़ित बताती महिला पहलवान बहन-बेटियों से उन्हें राष्ट्रीय अभिभावक के रुप में तत्काल अवश्य मिलना चाहिए । उनके लिए त्वरित न्याय की व्यवस्था तो अवश्यमेव होनी ही चाहिए ।