अंधकार से लड़कर ही तो मिल पाता हैं, उजियारों का मुकाम

नरेंद्र तिवारी

जीवन अँधियारों और उजियारों का सयुंक्त प्रक्रम हैं। अंधेरे-उजाले को हम मनुष्यों ने सुख-दुख, आशा-निराशा की भावनाओं का एहसास दें रखा हैं। यहीं एहसास वह भाव हैं, जिसने इंसान को जगत के करोड़ों जीव-जंतुओं में अलग पहिचान दी हैं। जंहा मॉनव हैं, वहां भावों का, एहसासों का, भावनाओं और संवेदनाओं का बड़ा महत्व हैं। जिन मनुष्यों में प्रेम, आदर, सम्मान का भाव नहीं वह पशुतुल्य हैं। दुख जीवन का अंश हैं, यह जीवन का अंधियारा पक्ष हैं। यही दुख व्यक्ति को हालातो से लड़ने की प्रेरणा देतें हैं। अंधियारों से उजियारो तक पहुचने की लड़ाई का नाम ही तो जीवन संघर्ष हैं। दुख से सुख प्राप्त करने के लिए लड़ी गयी लड़ाई ही व्यक्ति के जीवन के महत्वपूर्ण संघर्ष के क्षण हैं, स्मृतिपल हैं, चिर स्थाई यादें हैं। यह वह पल हैं जब मनुष्य अपने जीवन मे छाए अंधेरों से लड़कर सुख प्राप्ति की कामनाएं करता हैं अपने जीवन की कठिनाइयों से निजात पाने की कोशिश करता हैं। इन्हीं दुखों या यूँ कहें की मनुष्य जीवन की समस्याओं से लड़ने के लिए मॉनव ने परिवार और समाज जैसी इकाइयों का निर्माण किया। परिवार और समाज ने सामूहिक कल्याण की भावनाओं को मूर्त रूप देने के लिए राष्ट्र रूपी इकाई का गठन किया। नागरिकों की सामूहिक चेतना से बने राष्ट्र निर्माण के भाव के पीछे नागरिकों की समस्याओं के निराकरण का सामूहिक प्रयास छुपा हुआ हैं। एक बालक जिस प्रकार अपने माता-पिता से आशा रखता है की वें उसके दुख-दर्द को उसकी समस्याओं को दूर कर भविष्य का मार्ग प्रसस्त करेंगें। उसी प्रकार एक नागरिक अपने राष्ट्र से जीवन की कठिनाइयों को आसान बनाने की आशा, अपेक्षा ओर विश्वास रखता हैं।
दीपावली उत्सव भी तो अंधियारे से उजियारे की और चलने, सतत बढ़ने की प्रेरणा का पर्व हैं। दीपावली अमावस की काली रात को मनाई जाती हैं। अमावस की रात में दीपावली को मनाने के पीछे भी शायद अंधेरों से लड़ने का भाव छुपा हैं। भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण विश्व में हजारों-लाखों बरसों से दीपोत्सव का यह पर्व श्रीराम के 14 वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने के उल्लास के रूप में मनाया जाता हैं। यह पर्व दीपावली के एक दिन पूर्व राक्षक नरकासुर का भगवान कृष्ण द्वारा किये वध के कारण भी मनाया जाता हैं। यह पर्व जिस उत्साह के साथ अयोध्या में मनाया जाता हैं। गौकुलवासी भी इसे उतने ही उत्साह से मनाते आ रहें हैं। प्रकाश का यह पर्व मनुष्य जीवन मे उजास लाने का पर्व हैं। मनुष्य समाज शुरूवातीं दौर में वस्तुओं का विनिमय कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। अब रुपयों का चलन हैं। दीपावली तब भी मनाई जाती थी जब समाज मे रुपयों का चलन नहीं था। अब अपनी आवश्यकताओं के लिए मनुष्य को रुपयों की आवश्यकता पड़ती हैं। सदियों से एक विशाल जनसमुदाय महालक्ष्मी की आराधना, पूजा कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की मांग ही तो करता हैं। वह ऐश्वर्य और समृद्धि प्राप्ति की प्रार्थना करता हैं। वर्तमान युग मे धारणा है, कि खुशियों को रुपयों से खरीदा जा सकता हैं। यह धारणाए कितनी सच है, यह तो नही कहा जा सकता हैं किन्तु विद्वानों का मत है कि धन से खुशियों का, आनन्द का कोई लेना देना नहीं हैं। जब रुपयों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था तब भी मनुष्य आनन्दित हुआ करता था। रुपयों के प्रादुर्भाव ने मनुष्य के आनन्द को कम जरूर कर दिया हैं, इसने मॉनव जीवन की चिंताओं को बढ़ाया हैं। इस दौर में एक बड़े वर्ग का अभी भी यह मानना हैं कि माल है तो ताल हैं। यह वर्ग धन से निर्मित बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के वातानुकूलित कमरों में अत्यंत सुविधायुक्त जीवन को ही महालक्ष्मी की कृपा मानकर चलता हैं। जीवन के ऐशो आराम से युक्त यह वर्ग भौतिक सुख सुविधाओं के संग्रहण को ही जीवन की प्रगति मानता हैं। नए जमाने के बहुत से लोग खुशी को धन का गुलाम समझते हैं। किंतु आनन्द, प्रसन्नता, ठहाके, खुशी तो सुदूर जंगल की झोपड़ियों में भरपूर महसूस होतीं हैं। यहां एहसास भी है, भाव भी हैं, संवेदनाएं भी हैं, अपनत्व का जो भाव ग्रामीण परिवेश में दिखाई देता हैं, वह शहरों में निर्मित क्रांकीट ऊंची-ऊंची इमारतों में नहीं हैं। यहां तो स्वार्थ है, लालच है, गला काट प्रतिस्पर्धा हैं। जो प्रेम और अपनत्व का भाव गांव के खेतों, खलियानों, पीपल की छांव में हैं वह ओर कही नही मिलता इसे रुपयों से नहीं खरीदा जा सकता हैं। गांव में खेतों को हलने, बखरने, जोतने ओर कटाई हेतु सामूहिक प्रयास किये जातें है। यह एक दूजे के सहयोग से जीवन मे उजास लाने का सामूहिक प्रयास भर हैं। यही है, असल मे वास्तविक दीपो का उत्सव प्रकाश की आगवानी का पर्व। दीपावली के दिन महालक्ष्मी की पूजा समुद्र मंथन में शरद पूर्णिमा पर याने दीप पर्व के 15 दिन पूर्व महालक्ष्मी के प्रकट उत्सव के कारण की जाती हैं। अमावस्या की काली अंधेरी रात में दीपावली की कल्पना अंधेरी राहों से गुजरकर प्रकाश रूपी मंजिल की प्राप्ति का संदेश हैं। इस पर्व पर धन संपदा प्राप्ति की कामनाएं तो की ही जाती है, खुशहाल जीवन, निरोगी काया की कामनाएं भी की जाती हैं। वर्तमान के इस दौर में धनप्राप्ति की लिप्सा में मनुष्य सभी सीमाओं को लांघ रहा हैं। लालच, बेईमानी, लूट, खसोट, भ्रष्टाचार से कमाए धन के साथ बुराइयों का हुजूम भी आ टपकता हैं। यह बुराई रोगों, व्याधियों ओर कलह के रूप में सामने आती हैं। महालक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए साधनों की पवित्रता एवं पवित्र भावनाओं की जरूरत हैं। यह धन प्राप्ति की अनिवार्य शर्त हैं। अनुचित साधनों से एकत्रित धन संपदा अपने साथ रोग, व्याधियों, कलह ओर आफत को आमंत्रित करतीं हैं। समाज मे लालच ओर स्वार्थों से एकत्रित धन संपदा के मालिकों की स्थिति को निकट से देखने पर बनावटी चकाचौंध तो दिखती हैं, इस चकाचौंध में शांति कहीं खो जाती है, अपनत्व का भाव खत्म हो जाता है, मतलबी रिश्ते नजर आतें है। जब प्रजातंत्र नहीं था, तब सत्ता के लिए लड़ाई इसी ऐशोआराम की प्राप्ति के लिए ही तो होती थी। जंहा बेटा सत्ता के लिए अपने बाप की गर्दन पर ही तलवार चलाने से गुरेज नहीं करता था। हर मनुष्य को हक़ है कि वह अपने कर्म से लक्ष्मी का आह्वान करें, धन संपदा प्राप्त करें। इस प्राप्त सम्पदा को परिवार समाज और राष्ट्र की सेवा में लगाएं। एक दूसरे का ख्याल रखकर ही हम सबकी दीपावली मना सकते हैं। नीरज की इन पंक्तियों की तरह ‘जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।’ यही पवित्र कामनाएं जो धरा के अन्धकार को दूर करने के भाव रखती हैं। इस धरती पर दीपावली की सोच को उजागर करती हैं। प्रकाश की ओर चलने की सोच, उजालों की ओर बढ़ने की सोच, सोच अंधेरों से लड़ने का साहस प्रदान करने की, यही सोच तो मनुष्य को कठिनाइयों से लड़ने की प्रेरणा देती हैं। अंधेरों से लड़कर ही उजालों के मुकाम पर पहुचा जा सकता हैं। उजियारों तक पहुचने का ओर कोई छोटा रास्ता नहीं हैं। दीपावली सुख, ऐश्वर्य ओर वैभव प्राप्ति की कामनाओं का दिवस हैं। यह कामना भारत मे हमेशा से सम्पूर्ण धरा के लिए की जाती रहीं हैं। जगत की खुशहाली की मंगलकामनाएँ करना ही तो दीपावली का असल सन्देश हैं।