
सोनम लववंशी
टीकमगढ़ के सरकारी अस्पताल की वह तस्वीर सिर्फ एक फोटो नहीं है, बल्कि हमारे तंत्र की निर्वस्त्र होती वास्तविकता है। एक मासूम बच्चा अपने पिता की सलाइन की बोतल थामे खड़ा है — न उसका मन समझ पा रहा है कि यह बोझ क्यों थमा दिया गया, न ही उसकी मासूम आंखों में इस व्यवस्था के लिए कोई सवाल है। वह सिर्फ निभा रहा है वह जिम्मेदारी, जो दरअसल, इस देश के स्वास्थ्य तंत्र को निभानी थी। यह दृश्य एक गहरी चुप्पी में लिपटा हुआ करुण क्रंदन है, जो हर संवेदनशील मन को झकझोर देता है। सरकारी अस्पतालों की बदहाली पर बातें नई नहीं हैं। पर समस्या यह है कि इन बातों का कोई अंत भी नहीं है। यह दृश्य टीकमगढ़ का है, पर क्या यह कहानी केवल वहां की है? झारखंड से लेकर राजस्थान, बिहार से लेकर मध्यप्रदेश तक, ऐसी अनगिनत कहानियां हर दिन जन्म ले रही हैं। कहीं स्ट्रेचर न मिलने पर लोग मरीज को लकड़ी की पटरी पर लाद कर लाते हैं, तो कहीं एंबुलेंस समय पर नहीं आती और मरीज की मौत दरवाजे पर ही हो जाती है। इन घटनाओं को देखने के बाद भी अगर हम व्यवस्था से सवाल नहीं पूछेंगे, तो किससे पूछेंगे? हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार का हिस्सा मानी गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अनेक बार स्पष्ट किया है कि स्वस्थ जीवन जीना नागरिक का मूलभूत अधिकार है। लेकिन जब सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी, उपकरणों का अभाव, दवाइयों की अनुपलब्धता और लापरवाह प्रबंधन के दृश्य रोजाना सामने आते हैं, तो यह पूछना जरूरी हो जाता है कि क्या यह संवैधानिक अधिकार केवल कागजों तक सीमित रह गया है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट पर नजर डालें तो भारत अपनी जीडीपी का केवल 2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 8 से 12 प्रतिशत तक है। भारत में प्रति 10,000 नागरिकों पर औसतन मात्र नौ डॉक्टर हैं, वहीं विकसित देशों में यह संख्या तीन से चार गुना अधिक है। हमारे अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या, विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपलब्धता, आपातकालीन सेवाओं की तत्परता सभी कुछ दयनीय स्थिति में है। टीकमगढ़ की घटना इसी ढांचे की गवाही देती है। यह दृश्य दरअसल, हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य तंत्र का ‘लाइव एक्स-रे’ है। व्यवस्था के दावों की हकीकत कुछ और ही है। कागजों पर तो योजनाओं की भरमार है। फिर चाहे वो आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, मिशन इंद्रधनुष, और न जाने कितनी घोषणाएं। पर जमीन पर सच्चाई यह है कि सरकारी अस्पतालों में या तो डॉक्टर नहीं मिलते या समय पर इलाज नहीं होता। मरीज को जीवन रक्षक दवाइयों के लिए भी बाजार की दौड़ लगानी पड़ती है, जबकि ये दवाइयां अस्पताल में मुफ्त मिलनी चाहिए थीं।
यह विडंबना ही है कि जिस देश ने कोविड महामारी के दौरान दुनिया को वैक्सीन देकर गौरव पाया, उसी देश में अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से लोग दम तोड़ते देखे गए। जिन गांवों में आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं पहुंचे, वहां स्वास्थ्य सेवाओं का सपना किसी बेमौसम बरसात जैसा है। देश की स्वास्थ्य प्रणाली की तुलना अगर हम स्कैंडिनेवियन देशों जैसे नॉर्वे, स्वीडन या डेनमार्क से करें, तो अंतर चौंकाने वाला है। वहां स्वास्थ्य सेवा सार्वभौमिक, मुफ्त और सुलभ है। सरकारी अस्पतालों में इलाज इतना उत्कृष्ट है कि निजी अस्पतालों की जरूरत ही नहीं पड़ती। वहीं भारत में अमीर और गरीब के इलाज में जमीन-आसमान का फर्क है। गरीबों के लिए सरकारी अस्पताल ही एकमात्र सहारा हैं, और जब वहां भी उन्हें इस तरह अपमानित होना पड़े, तो सवाल उठता है कि क्या हमारा गरीब होना ही सबसे बड़ा अपराध है?
टीकमगढ़ की यह तस्वीर दरअसल एक प्रतीक है उस व्यवस्था का, जिसने अपने कंधों से जिम्मेदारी का बोझ उतार कर बच्चों के मासूम हाथों में थमा दिया है। यह दृश्य केवल टीकमगढ़ के अस्पताल की दीवारों में नहीं कैद रहेगा; यह हमारे समाज की सामूहिक बेहोशी का आईना है। यह तस्वीर व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है, जो हमें याद दिलाती है कि घोषणाओं और योजनाओं से जीवन नहीं बचते, जीवन बचता है व्यवस्था के प्रति ईमानदारी से। यह भी याद रखना चाहिए कि स्वास्थ्य सेवा किसी सरकार की ‘चैरिटी’ नहीं है, यह जनता का अधिकार है। टैक्स के रूप में जनता जो भुगतान करती है, उसका सबसे पहला उपयोग नागरिकों के जीवन की रक्षा में होना चाहिए। पर जब अस्पतालों में सलाइन की बोतल पकड़ाने के लिए मासूम बच्चों का सहारा लिया जाए, तो सवाल उठता है कि क्या सरकारें अपना धर्म निभा रही हैं?
आखिर कब तक हम इन तस्वीरों को देखकर चुप रहेंगे? कब तक इन मासूम हाथों में जिम्मेदारी का बोझ थमाते रहेंगे? यह दृश्य केवल अस्पतालों की अव्यवस्था की नहीं, बल्कि हमारे संवैधानिक मूल्यों की भी हार है। यह उस सामाजिक करुणा की कमी का प्रतीक है, जो एक सभ्य समाज की पहचान होनी चाहिए। इस लेख को लिखते समय मन बार-बार टीकमगढ़ के उस बच्चे की ओर लौट जाता है। उसकी आंखों में झांकने पर एक अनकहा सवाल दिखाई देता है — “पापा को ठीक करने के लिए बोतल पकड़ना तो मेरी जिम्मेदारी नहीं थी न?” यह सवाल हम सब से है। यह सवाल सरकारों से है, नीतियों से है, और समाज से भी है। जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा, तब तक टीकमगढ़ की यह तस्वीर केवल एक खबर नहीं रहेगी, यह हमारी संवेदना पर लगा एक स्थायी धब्बा बन जाएगी।