बढ़ता ही जा रहा है भाषाई विवाद , इसे रोकना जरुरी

The language dispute is increasing, it is necessary to stop it

अशोक भाटिया

एक बड़ी हिंदी भाषी आबादी होने के बावजूद महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर विरोध को हवा मिलती रही है। वजह है मराठी पहचान पर ज़ोर। स्थानीय राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाते आए हैं। इस समय विरोध इस हद तक बढ़ गया है कि मराठी के पक्षधर मारकुटाई तक उतर आए है जिसके विरोध में आज महाराष्ट्र में कई स्थानों पर बन्द का आयोजन किया जा है । मीरा रोड में मारवाड़ी व्यापारी के साथ हुई मारपीट की घटना पर जहां एक तरफ गुरुवार को बंद बुलाया गया है, वहीं बीजेपी, शिंदे सेना ने इस घटना की निंदा की है। हिंदीभाषी नेताओं ने मनसे कार्यकर्ताओं की तरफ से की गई भाषा के नाम पर मारपीट को गलत ठहराया है। नेताओं ने ने कहा कि मराठी सीखना जरूरी है, क्योंकि इससे लोगों को फायदा ही होगा, लेकिन मारपीट ठीक नहीं है।

दरअसल महाराष्ट्र में ये हिंदी विरोध आज की बात नहीं है बल्कि ये पचास के दशक से चला आ रहा है जो सियासी वजहों से रह- रहकर उफ़ान मारता रहा है। पचास के दशक में तत्कालीन बॉम्बे स्टेट जिसमें आज का गुजरात और उत्तर पश्चिम कर्नाटक भी आता था वहां एक अलग मराठी भाषाई राज्य बनाने की मांग को लेकर संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन शुरू हुआ। साठ के दशक में आंदोलन का असर दिखा। संसद ने दि बॉम्बे पुनर्गठन अधिनियम पास किया जिसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात दो अलग राज्य बने। इसके छह साल बाद जब बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की तो उनका घोषित लक्ष्य था, बैंक की नौकरियों और कारोबार में दक्षिण भारतीयों और गुजराती लोगों के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ मराठी मानुष को संरक्षण देना। मराठी भाषा, मराठी अस्मिता और मराठी लोगों के मुद्दे उठाकर शिवसेना ने महाराष्ट्र में गहरी पैठ बना ली। अस्सी के दशक में शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने दक्षिण भारतीयों और उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी उत्तर भारतीयों के खिलाफ लगातार रैली और आंदोलन किए। शिवसेना सत्ता में आई तो उसने दुकानों और संस्थानों में मराठी नेम प्लेट लगानी अनिवार्य कर दीं। बैंकों और सरकारी दफ़्तरों में भी मराठी में काम शुरू करवाया।

बाला साहब ठाकरे जी के निधन के बाद भी शिवसेना ने ये मुद्दा अपने हाथ में रखा जो उसे बाकी पार्टियों से अलग बनाता रहा। उधर शिवसेना से अलग हुए बाला साहेब ठाकरे जी के भतीजे राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने भी ये मुद्दा मज़बूती से थामे रखा। शिवसेना, एमएनएस के लिए हर चुनाव में ये मुद्दा वोटों से भी सीधे तौर पर जुड़ा रहा। शिवसेना दो फाड़ हुई तो दोनों ही पक्षों ने इसे हाथ से जाने नहीं दिया।

मराठी भाषा को लेकर ताज़ा विवाद इस साल मार्च में शुरू हुआ जब आरएसएस के वरिष्ठ नेता सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा कि मुंबई की एक भाषा नहीं है और ये ज़रूरी नहीं है कि मुंबई आने वाले हर व्यक्ति को मराठी सीखनी पड़े। इस बयान पर विपक्षी महाविकास अघाड़ी के दल बिफ़र गए। ख़ुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि मराठी राज्य की संस्कृति, इसे सीखना हर नागरिक का कर्तव्य है।

इसके अगले ही महीने अप्रैल में फडणवीस सरकार ने एक आदेश जारी किया जिसमें अंग्रेज़ी और मराठी मीडियम के स्कूलों में पहली से पांचवीं क्लास के छात्रों के लिए हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बना दिया गया। फिर क्या था विपक्षी दलों शिवसेना-यूबीटी, एनसीपी-शरद पवार और एमएनएस को विरोध के लिए नया बारूद मिल गया। उन्होंने इसे स्थानीय पहचान को कमज़ोर करने की साज़िश बताया और राष्ट्रीय एकता की आड़ में सांस्कृतिक एकरूपता को बढ़ावा देने की कोशिश बताया। विरोध को हवा मिली और नतीजा ये हुआ कि महाराष्ट्र सरकार को प्राथमिक स्कूलों में तीन भाषा के फॉर्मूले को वापस लेने को मजबूर होना पड़ गया।

बाद में महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में तीन-भाषा नीति के क्रियान्वयन से संबंधित दो सरकारी प्रस्तावों (जीआर) को वापस ले लिया है। विपक्षी दलों और नागरिक समाज की तीखी प्रतिक्रिया के बाद, इसे हिंदी थोपे जाने के रूप में देखा जा रहा है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने घोषणा की कि प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ। नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता वाली एक नई समिति भाषा नीति की विस्तार से फिर से जांच करेगी और तीन महीने के भीतर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। तब तक, 16 अप्रैल और 17 जून को जारी किए गए दोनों प्रस्तावों को रद्द कर दिया गया है।

विवाद तब शुरू हुआ था जब सरकार ने अप्रैल में एक जीआर जारी किया जिसमें अंग्रेजी और मराठी माध्यम के स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों के लिए हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बना दिया गया। शिवसेना (यूबीटी), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना सहित विपक्षी दलों ने इस नीति को क्षेत्रीय पहचान को खत्म करने और राष्ट्रीय एकीकरण की आड़ में सांस्कृतिक समरूपता को बढ़ावा देने का प्रयास बताया। हिंदी का विरोध केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है; तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों ने ऐतिहासिक रूप से अपनी मूल भाषाओं की कीमत पर हिंदी को बढ़ावा देने के किसी भी कथित प्रयास का विरोध किया है। यह विरोध सांस्कृतिक गौरव, ऐतिहासिक स्मृति और भाषाई समानता की चिंताओं के मिश्रण में निहित है। तमिलनाडु जैसे राज्यों में, 1960 के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलनों ने गहरी छाप छोड़ी, जिसने पीढ़ियों के लिए राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को आकार दिया। महाराष्ट्र में, मराठी पहचान के दावे ने हमेशा राजनीतिक विमर्श में केंद्रीय भूमिका निभाई है। इसे “राष्ट्रीय” एजेंडे के रूप में देखे जाने वाले किसी भी प्रयास के माध्यम से कमजोर करने का प्रयास अक्सर मजबूत भावनात्मक और राजनीतिक प्रतिक्रियाओं को भड़काता है। इन क्षेत्रों में मुख्य चिंता यह है कि हिंदी, जो पहले से ही केंद्र सरकार और राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुख है, को स्थानीय भाषाई संदर्भों की अनदेखी करने वाली शैक्षिक नीतियों के माध्यम से थोपा जा रहा है। आलोचकों का तर्क है कि जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों के छात्रों से हिंदी सीखने की अपेक्षा की जाती है, वहीं हिंदी भाषी छात्रों को मराठी, तमिल या कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाएँ सीखने के लिए कोई पारस्परिक प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। यह एकतरफा नीति दिशा हाशिए पर जाने और सांस्कृतिक क्षरण की भावना को बढ़ावा देती है। अपने मूल में, यह विवाद भारत की स्थायी चुनौती का प्रतिबिंब है: भाषाई विविधता के साथ राष्ट्रीय एकीकरण को कैसे संतुलित किया जाए।

भारत में भाषा संचार के साधन से कहीं अधिक है; यह पहचान, इतिहास और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक है। मुद्दा हिंदी सीखने का नहीं है, बल्कि जिस तरह से इसे पेश किया जाता है और इसमें विकल्पों की कमी है। स्वैच्छिक, रुचि-आधारित भाषा सीखना स्वागत योग्य है। हालाँकि, बाध्यकारी आदेश उल्टा असर करते हैं। आगे बढ़ते हुए, नीति को स्थगित करने और एक विशेषज्ञ पैनल बनाने का महाराष्ट्र का निर्णय सही दिशा में एक कदम है। यह भाषा शिक्षा जैसे संवेदनशील विषय पर संवाद, परामर्श और व्यापक सहमति की आवश्यकता को स्वीकार करता है। भारत की ताकत इसकी भाषाई विविधता में निहित है। भाषा के माध्यम से देश को एकजुट करने के प्रयासों को उस बहुलता का जश्न मनाना चाहिए न कि उसे दबाना चाहिए। जैसा कि डॉ। जाधव के नेतृत्व वाला पैनल अपना काम शुरू करता है, उम्मीद है कि यह एक ऐसी नीति की सिफारिश करेगा जो हर बच्चे के अपनी पसंद की भाषा सीखने के अधिकार को बनाए रखे।

दरअसल, ऐसा इसलिए हो रहा है कि आज अंतरराज्यीय रोजगार, शिक्षा और मनोरंजन आदि की चाहत में लोगों ने हिंदी सीखी है या इन्हीं कारणों से विस्थापन हुआ है। यदि हिंदी को थोपना होता, तो यह संविधान की मूल मंशा के अनुरूप आज देश की अनिवार्य राजभाषा होती, लेकिन यह सच्चाई किसी से नहीं छिपी है कि स्वतंत्रता के इतने साल बाद भी सरकारी कामकाज की भाषा स्वाभाविक रूप से अंग्रेजी ही है। जाहिर है कि हिंदी अपनी जमीन से आगे बढ़ रही है, ऊपर से थोपी नहीं गई है।

इस क्रम में हिंदी को लेकर कुछ बने-बनाए भ्रम से देश जितना जल्दी जल्दी निकल जाए, तो अच्छा होगा। सर्वप्रथम तो यही कि ‘हिंदी पट्टी’ जैसी कोई चीज वास्तविक धरातल पर नहीं है। यह सिर्फ ग्रियर्सन (1928) द्वारा प्रस्तावित ‘हिंदी बेल्ट’ का अनुवाद भर है, जिसे रामविलास शर्मा आदि सरीखे विद्वानों ने हिंदी में जड़भूत कर दिया। जिस बड़े क्षेत्र को ग्रियर्सन ने ‘हिंदी बेल्ट’ कहा था, उसी में से बिहार को ‘बिहारी भाषा’ वाला क्षेत्र बताया था। आज अगर इस भाषा को खोजा जाएगा, तो न तो वास्तव में कोई ‘बिहारी भाषा’ का अस्तित्व है और न ही ‘हिंदी बेल्ट’ का। वास्तव में इस पट्टी में हिंदी से अधिक प्यार पाने वाली दूसरी सैकड़ों भाषाएं हैं और ये सभी लोग हिंदी को उसी व्यावहारिकता के धरातल पर खड़ा होकर स्वीकार करते हैं, जैसे देश के दूसरे हिस्सों के लोग।

गौरतलब है कि जिस कथित हिंदी-पट्टी को हिंदी का ज्ञाता समझ लिया जाता है, वहां हिंदी को अलग से सीखा जाता है। यहां दूर-दराज के क्षेत्रों में आज भी हिंदी उसी तरह है, जैसे बांग्ला, असमिया और गुजराती आदि हो सकती है। यहां तक कि हिंदी का प्रांतीय स्वरूप अपने आप में भिन्न है, जो हिंदी के लोकतांत्रिक चरित्र का सबसे सुंदर उदाहरण है। दूसरी तरफ आज देश में हिंदी के नाम पर घोषित सरकारी-गैरसरकारी नौकरियों का अखिल भारतीयकरण तेजी से हुआ है। अब देश को जोड़ने, चलाने और जातीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए संवाहक भाषाओं की जरूरत हमेशा रहेगी और इसमें हिंदी सर्वाधिक उपयोगी है।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार