बेगम अख्तर की पुण्यतिथि 30 नवंबर को-‘आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब…’

Begum Akhtar's death anniversary on November 30 - 'You used to say that crying won't change your destiny...'

‘ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता…’

विवेक शुक्ला

राजधानी दिल्ली में 1974 में सर्दी का असर थोड़ी जल्दी महसूस होने लगा था। दिन छोटे और ठंडे हो चले थे। कनॉट प्लेस के नरूलाज होटल के बाहर मल्लिका-ए-गज़ल बेगम अख्तर के करीब दो दर्जन चाहने वाले उनका ऑटोग्राफ लेने के लिए इंतजार कर रहे थे। तारीख थी 15 अक्तूबर 1974। बेगम अख्तर राजधानी प्रवास के दौरान इधर ही ठहरती थीं। उन्हें उसी शाम को विज्ञान भवन में अपना कार्यक्रम पेश करना था। बेगम अख्तर विज्ञान भवन जाने से पहले अपने शैदाइयों से मिलीं। उनके विज्ञान भवन में पहुंचते ही वहां हलचल बढ़ गई। उनका सबको इंतजार था।

कुछ लम्हों के बाद जब बेगम अख्तर मंच पर आईं तो बेकरार श्रोता झूम उठे। लाल साड़ी में वो बेहद खूबसूरत लग रही थीं। उनके नाक में चमकती सोने की लौंग और उंगलियों में अंगूठियां दूर से दिखाई दे रही थीं। मुस्कुराते चेहरे के साथ वो मंच पर आईं और अपने चाहने वालों का स्वागत किया।

संगतकारों ने तबला-हारमोनियम बजाना शुरू किया तो बेगम अख्तर ने सुदर्शन फाकिर की लिखी गज़ल ‘आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया…’ गाकर महफिल की शुरुआत की। उनके गाते ही विज्ञान भवन ‘वाह-वाह’ से गूंजने लगा।

बेगम अख्तर ने पहली ग़ज़ल खत्म करने के बाद श्रोताओं को सांस लेने का भी मौका भी नहीं दिया। फिर उन्होंने अमर ग़ज़ल गानी शुरू कर दी- ‘यूं तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती है आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया…।’ बेगम अख्तर पूरे जोश में थीं। सूर साधक और संगीत के कार्यक्रम आयोजित करने वाले अमरजीत सिंह कोहली ( स्मृति शेष) भी विज्ञान भवन मौजूद में थे। कोहली जी बताते थे, ‘वो दिल्ली में बेगम अख्तर की यादगार महफिल थी। उनकी सुरीली आवाज ने सबको मदहोश कर दिया था।’

अब रात के 10 बज चुके थे और बेगम अख्तर ने अपनी मशहूर ग़ज़ल ‘मेरे हमनफस मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनके दगा न दे…’ गाना शुरू किया। श्रोता सुरूर में आ चुके थे। सारा माहौल गज़लमय हो चुका था। बेगम अख्तर गाते वक्त मंद-मंद मुस्कुरा भी रही थीं। इस गजल को उन्होंने करीब 40 मिनट तक गाया। इसके बाद उन्होंने कुछ देर तक विश्राम किया। लेकिन कोई अपनी सीट से हिलने को तैयार नहीं था। सब ग़ज़ल की महफिल में डूबे हुए थे। इसके बाद उनके चाहने वाले गुजारिश करने लगे कि वो ‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते …’ गजल अवश्य सुनाएं। उन्होंने श्रोताओं की मांग को सहर्ष माना।

उस महफिल का आखिरी नगीना थी— ‘ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता…।’ बेगम अख्तर और उनकी सोने सी आवाज़ के दीवाने तृप्त हो चुके थे। आखिरी ग़ज़ल गाते हुए वो पूरी तरह छाई हुई थीं। इस ग़ज़ल ने उनके शैदाइयों को पागल कर दिया था।

महफिल रात 12 बजे के आसपास खत्म हुई। बेगम अख्तर की परफॉर्मेंस से संतुष्ट श्रोता जब विज्ञान भवन से बाहर निकले तो घुप अंधेरा था। सड़कें सुनसान। वो अलग और शांत दिल्ली थी। देर रात को बसें नहीं मिलती थीं, निजी गाड़ियां बहुत कम लोगों के पास होती थीं। कई लोग पैदल मार्च करते हुए ही अपने घर चले गए। उस यादगार महफिल के मात्र दो हफ्ते बाद ही, 30 अक्टूबर 1974 को बेगम अख्तर का अचानक निधन हो गया। विज्ञान भवन की महफिल उनकी साबित हुई। जाहिर है, उनके लाखों चाहने वालों के लिए ये बड़ा झटका था। बेशक, बेगम अख्तर भारतीय संगीत की अमर हस्ती हैं। फैज़ाबाद में जन्मीं, उन्होंने बचपन से ही संगीत की दुनिया में कदम रखा। पारंपरिक ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से नई ऊँचाई दी। उनकी गायकी में दर्द, प्रेम और जीवन की गहराई झलकती है, जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती है।

उनकी शुरुआती जिंदगी संघर्षपूर्ण रही।

माँ की मृत्यु के बाद, उन्होंने पटना में उस्ताद इमदाद खान से संगीत सीखा। बेगम अख्तर ने महिलाओं के लिए संगीत जगत में नई राह खोली। 1945 में शादी के बाद भी उन्होंने मंच नहीं छोड़ा। पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुईं। उनकी गायकी में सूफी प्रभाव और लोक संगीत की मिठास है, जो आज भी प्रासंगिक है। वो अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज आज भी जीवंत हैं। बेगम अख्तर न केवल गायिका थीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की धरोहर। उनकी आवाज़ दर्द की भाषा बोलती है।