
नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों की जटिलता किसी से छिपी नहीं है। दोनों देशों की राजनीति, कूटनीति और सामाजिक दृष्टिकोण का असर हर क्षेत्र पर पड़ता है, और खेल भी इससे अछूते नहीं रहे। जब-जब दोनों देशों के खिलाड़ी मैदान पर आमने-सामने आते हैं, तब खेल की प्रतिस्पर्धा से अधिक राजनीति की छाया हावी हो जाती है। भारत ने लंबे समय से पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय क्रिकेट श्रृंखला खेलने से परहेज़ किया है, लेकिन एशिया कप, वर्ल्ड कप अथवा आईसीसी की अन्य प्रतियोगिताओं में मुकाबले होते रहे हैं। यही नीति आज सवालों के घेरे में है कि जब हम द्विपक्षीय श्रृंखला से परहेज़ करते हैं तो बहुपक्षीय प्रतियोगिताओं में आमना-सामना क्यों स्वीकार करते हैं? यह विरोधाभास केवल खेल तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह भारत की व्यापक कूटनीतिक छवि और खेल संस्कृति पर भी प्रश्नचिह्न खड़े करता है।
खेल और कूटनीति का संगम
खेल को अक्सर “खेल” ही रहने देने की बात कही जाती है। इसे आपसी भाईचारे, सौहार्द और मैत्री का सेतु माना जाता है। किंतु जब देशों के संबंध तनावपूर्ण हों, जब सीमाओं पर गोलियां चल रही हों, जब आतंकवाद की छाया लगातार बनी हो, तब खेल भी राजनीति के घेरे में आ जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच यही स्थिति है। पुलवामा या उरी जैसे आतंकी हमले हों, या सीमापार घुसपैठ की घटनाएँ- हर बार यह सवाल उठता है कि क्या हमें पाकिस्तान के साथ क्रिकेट, हॉकी या अन्य खेलों में शामिल होना चाहिए? भारत की नीति इस मामले में उलझनभरी रही है। द्विपक्षीय क्रिकेट श्रृंखला तो 2012 के बाद से पूरी तरह ठप है, लेकिन आईसीसी टूर्नामेंट्स में दोनों टीमें खेलती रही हैं। इस दोहरे रवैये को कई विशेषज्ञ अव्यावहारिक मानते हैं। यदि पाकिस्तान से खेल संबंध पूरी तरह समाप्त करने हैं तो बहुपक्षीय टूर्नामेंट्स में भी भागीदारी पर पुनर्विचार होना चाहिए, और यदि खेल को राजनीति से अलग रखना है तो द्विपक्षीय श्रृंखलाएँ भी पुनः शुरू होनी चाहिए।
ओलंपिक और वैश्विक दबाव
हाल ही में भारत ने ओलंपिक 2036 और राष्ट्रमंडल खेल 2030 की मेज़बानी की दावेदारी प्रस्तुत की है। यदि भारत पूरी तरह पाकिस्तान से खेल संबंध तोड़ देता, तो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति और अन्य वैश्विक खेल संस्थाएँ भारत पर दबाव डाल सकती थीं। वैश्विक खेल संस्थाएँ इस बात पर जोर देती हैं कि राजनीति और खेल को अलग रखा जाए। यही कारण है कि भारत ने पाकिस्तान के साथ खेल संबंधों को पूरी तरह समाप्त नहीं किया। यदि भारत ने ऐसा किया होता, तो उसकी मेज़बानी की संभावनाएँ धूमिल हो सकती थीं। यानी भारत की नीति कहीं न कहीं खेल-राजनीति के दबावों और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छवि के बीच संतुलन साधने की कोशिश है। यह संतुलन अक्सर उलझनभरा और विरोधाभासी प्रतीत होता है।
खिलाड़ियों पर असर
इस उलझन का असर सबसे अधिक खिलाड़ियों पर पड़ता है। भारतीय क्रिकेटर, जो दुनिया की सबसे समृद्ध लीग- आईपीएल में खेलते हैं, उन्हें पाकिस्तान के खिलाड़ियों के साथ खेलने का अवसर नहीं मिलता। वहीं, बहुपक्षीय टूर्नामेंट्स में अचानक पाकिस्तान का सामना करना पड़ता है। इससे खिलाड़ियों पर मानसिक दबाव और राजनीतिक अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं। एक सामान्य मैच भी “करो या मरो” की स्थिति में बदल जाता है। दोनों देशों के खिलाड़ियों की प्रतिभा, आपसी सीख और साझा अनुभव राजनीतिक दीवारों के कारण सीमित रह जाते हैं। यह विडंबना ही है कि राजनीति की बलि चढ़कर खिलाड़ी आपसी मित्रता और प्रतिस्पर्धा के अवसरों से वंचित होते हैं। खेल, जो संस्कृतियों को जोड़ने और दूरियों को मिटाने का माध्यम हो सकता था, वह अलगाव का प्रतीक बन जाता है।
दर्शकों और जनमानस की मानसिकता
भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले मैच केवल खेल नहीं रह जाते। वे राष्ट्रीय अस्मिता, आक्रोश और गौरव का प्रतीक बन जाते हैं। हर चौका-छक्का या विकेट एक राजनीतिक बयान की तरह देखा जाता है। मीडिया इसे और भड़काता है, जिससे खेल की स्वस्थ भावना पीछे छूट जाती है। भारत-पाक मैच किसी युद्ध की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं। परिणामस्वरूप दर्शकों का खेल से मिलने वाला आनंद तनाव, गुस्से और जुनून में बदल जाता है। यदि खेल को वास्तव में भाईचारे का माध्यम बनाना है, तो जनमानस को भी परिपक्व बनाना होगा। जीत-हार से अधिक महत्व खेल भावना और आपसी रिश्तों को देना होगा।
कूटनीतिक लाभ या हानि?
भारत के नीति-निर्माताओं का तर्क है कि पाकिस्तान से द्विपक्षीय खेल न खेलने का निर्णय आतंकवाद के विरुद्ध सख्त रुख का हिस्सा है। यह पाकिस्तान पर दबाव बनाने की रणनीति है। किंतु वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान इससे अधिक प्रभावित नहीं होता। वह अन्य देशों के साथ क्रिकेट खेलता रहता है। उलटे, भारत की नीति को “चुनिंदा” और “राजनीतिक” कहकर आलोचना की जाती है। वहीं, भारत जब पाकिस्तान के साथ बहुपक्षीय टूर्नामेंट्स में खेलता है, तो उसका कठोर रुख कमजोर पड़ता दिखता है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश जाता है कि भारत अपने सिद्धांतों पर अडिग नहीं है। इस प्रकार यह नीति न तो पूरी तरह राजनीतिक है, न पूरी तरह खेल-प्रधान। परिणामस्वरूप भारत को अपेक्षित कूटनीतिक लाभ नहीं मिलता।
खेल को राजनीति से अलग रखने की आवश्यकता
इतिहास गवाह है कि खेल ने कई बार देशों के बीच रिश्तों को नया मोड़ दिया है। “पिंग-पोंग डिप्लोमेसी” के जरिये अमेरिका और चीन के रिश्तों में बदलाव आया। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति के बाद खेल ने वहाँ राष्ट्रीय एकता का सूत्रपात किया। ऐसे उदाहरण बताते हैं कि खेल यदि स्वतंत्र रूप से खेले जाएँ तो वे दुश्मनी की दीवारों को गिराने में सक्षम होते हैं। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी यही अपेक्षा की जा सकती है। यदि दोनों देशों के बीच नियमित खेल प्रतिस्पर्धाएँ हों, तो शायद कटुता का कुछ अंश कम हो। खिलाड़ियों और दर्शकों के बीच संवाद बढ़ेगा और यह एक नया सामाजिक-सांस्कृतिक सेतु गढ़ सकता है।
भारत को अब यह तय करना होगा कि वह खेल को किस दृष्टिकोण से देखना चाहता है। यदि खेल को राजनीति का औजार बनाना है, तो फिर पूरी तरह स्पष्ट नीति होनी चाहिए, न द्विपक्षीय खेल और न बहुपक्षीय। लेकिन यदि खेल को राजनीति से अलग मानना है, तो द्विपक्षीय श्रृंखला पुनः शुरू की जानी चाहिए। आधे-अधूरे कदम केवल विरोधाभास और असमंजस को जन्म देते हैं। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि मीडिया और जनमानस खेल को युद्ध का पर्याय न बनाएँ। खिलाड़ियों को खेल की स्वस्थ भावना के साथ खेलने दिया जाए। सरकार को चाहिए कि वह खेल और कूटनीति के बीच संतुलन बनाते हुए स्पष्ट और व्यवहारिक नीति बनाए।
भारत-पाक खेल संबंध केवल क्रिकेट या ओलंपिक तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे इस उपमहाद्वीप की सामूहिक मानसिकता, कूटनीतिक सोच और सामाजिक मनोवृत्ति को प्रतिबिंबित करते हैं। जब तक भारत अपनी नीति को स्पष्ट और सुसंगत नहीं बनाता, तब तक यह द्वंद्व बना रहेगा। खेल, राजनीति से परे जाकर शांति और भाईचारे का माध्यम बन सकता है, बशर्ते हम उसे सचमुच खेल की तरह देखें।