
अजय कुमार
बिहार की सियासत में इन दिनों मखाना किसानों का मुद्दा गरमाया हुआ है। यह फसल, जिसे बिहार का गौरव कहा जाता है, अब राजनीतिक दलों के लिए वोट का हथियार बन चुकी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी वोटर अधिकार यात्रा के दौरान कटिहार जिले के मखाना खेतों में उतरकर किसानों की दुर्दशा को जोर-शोर से उठाया। 23 अगस्त 2025 को घुटनों तक पानी में खड़े होकर उन्होंने मखाना किसानों के साथ न सिर्फ उनकी मेहनत को देखा, बल्कि उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश भी की। सोशल मीडिया पर साझा किए गए उनके वीडियो और बयानों ने बिहार की सियासत में हलचल मचा दी। राहुल ने कहा कि बिहार दुनिया का 90 प्रतिशत मखाना पैदा करता है, लेकिन मेहनत करने वाले किसान और मजदूर, जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़े समुदायों से हैं, मुनाफे का सिर्फ एक प्रतिशत ही कमा पाते हैं। बाजार में मखाना 1000 से 2000 रुपये प्रति किलो बिकता है, लेकिन किसानों को नाममात्र कीमत मिलती है, और सारा लाभ बिचौलियों की जेब में चला जाता है।
राहुल ने बिहार की एनडीए सरकार और केंद्र की सरकार पर किसानों के साथ अन्याय करने का आरोप लगाया। उन्होंने वादा किया कि अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी, तो मखाना किसानों को बिचौलियों से मुक्त कर उनकी उपज को सीधे बाजार तक पहुंचाया जाएगा। इस दौरान उनके साथ विकासशील इंसान पार्टी के नेता मुकेश सहनी भी थे, जो मल्लाह समुदाय से आते हैं और खुद को इस समुदाय का बेटा कहते हैं। सहनी की मौजूदगी ने इस यात्रा को और भी राजनीतिक रंग दिया, क्योंकि मल्लाह समुदाय बिहार की सियासत में अहम भूमिका निभाता है। यह समुदाय मखाना उत्पादन वाले क्षेत्रों में प्रभावशाली है और अन्य पिछड़े वर्गों को अपने साथ जोड़ने की ताकत रखता है। सहनी, जो कभी एनडीए के साथ थे और अब महागठबंधन का हिस्सा हैं, 2025 के विधानसभा चुनाव में बड़ी भूमिका की उम्मीद कर रहे हैं। चर्चा है कि वे 60 सीटों की मांग कर रहे हैं और डिप्टी सीएम पद पर नजर गड़ाए हुए हैं। अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं, तो सियासी पाला बदलने की संभावना भी बनी हुई है।
राहुल गांधी का मखाना किसानों की दुर्दशा पर बोलना और बिचौलियों को दोष देना सियासी तौर पर तो आकर्षक है, लेकिन इसमें एक विरोधाभास भी दिखता है। देश के सभी किसान बिचौलियों की मार झेलते हैं, और इस समस्या से निपटने के लिए केंद्र सरकार 2020 में तीन कृषि कानून लेकर आई थी। इन कानूनों का मकसद था कि किसान अपनी उपज को मंडियों के बाहर सीधे खरीदारों, जैसे निजी कंपनियों या रिटेलरों को बेच सकें। इससे बिचौलियों की भूमिका कम हो सकती थी, और मखाना जैसे उत्पादों को किसान बेहतर कीमत पर बेच सकते थे। लेकिन कांग्रेस ने इन कानूनों का जमकर विरोध किया था। उस वक्त राहुल ने कहा था कि मंडियों का कमजोर होना छोटे किसानों को नुकसान पहुंचाएगा। अब वही राहुल मखाना किसानों की कम कीमत की शिकायत को बिचौलियों से जोड़ रहे हैं। यह सवाल उठता है कि अगर बिचौलियों से मुक्ति की बात वे आज कर रहे हैं, तो कृषि कानूनों का विरोध क्यों किया? यह विरोधाभास उनकी बातों को सियासी रंग देता है। मखाना किसानों की शिकायत है कि उनकी उपज 400-750 रुपये प्रति क्विंटल खरीदी जाती है, जबकि बाजार में यह 900-1600 रुपये प्रति क्विंटल बिकती है। अगर किसानों को सीधे बाजार तक पहुंच मिले, तो उनकी आय बढ़ सकती है।
मखाना किसानों की समस्याएं सिर्फ बिचौलियों तक सीमित नहीं हैं। यह फसल बिहार के मिथिलांचल और सीमांचल क्षेत्रों में उगाई जाती है, जो 100 से अधिक विधानसभा सीटों को प्रभावित करती है। मखाना की खेती बेहद मेहनत भरी है। पानी में डूबकर काले खोल वाले बीज निकालने से लेकर सुखाने, भूनने और पैकेजिंग तक का काम श्रमसाध्य है। किसान आज भी पुरानी तकनीकों पर निर्भर हैं। आधुनिक मशीनरी, पर्याप्त ऋण, और फसल बीमा की कमी उनकी परेशानियों को बढ़ाती है। सरकार ने मखाना बोर्ड की स्थापना की घोषणा की है, जिसके लिए 100 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है। यह बोर्ड मखाना उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन को बढ़ावा देने का वादा करता है। लेकिन इसकी स्थापना में देरी हो रही है, और जमीनी स्तर पर बदलाव अभी नजर नहीं आ रहा। किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज, जैसे ‘सुवर्ण वैदेही’, उपलब्ध कराए जा रहे हैं, जिससे प्रति हेक्टेयर 16 से 28 क्विंटल तक उत्पादन हो रहा है। साथ ही, मखाना विकास योजना के तहत 75 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है, जिसका अधिकतम लाभ 72,750 रुपये प्रति हेक्टेयर है। लेकिन इन योजनाओं का असर अभी पूरी तरह दिखना बाकी है।
मखाना बिहार की सियासत में अब एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। यह फसल 36,727 हेक्टेयर में उगाई जाती है और 56,400 टन उत्पादन देती है। इसे मुख्य रूप से मल्लाह और अति पिछड़े समुदाय उगाते हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। एनडीए इसे वैश्विक सुपरफूड के रूप में प्रचारित कर रही है। मखाना को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाने की कोशिश की जा रही है, जैसे विदेशी मेहमानों को मखाना भेंट करना। मखाना बोर्ड को मिथिलांचल और सीमांचल के 72 विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए की स्थिति मजबूत करने का रणनीतिक कदम माना जा रहा है। लेकिन बोर्ड की स्थापना में देरी से किसानों में असंतोष है। कुछ नेताओं ने बोर्ड को सीमांचल में स्थापित करने की मांग उठाई है, जिसे सत्ताधारी दल ने सियासी नौटंकी करार दिया। यह विवाद दिखाता है कि मखाना अब सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि सियासी मुद्दा भी है।
राहुल गांधी का मखाना किसानों पर दांव सियासी रणनीति का हिस्सा है। वे मखाना बोर्ड की प्रगति पर सवाल उठाकर सरकार को घेर रहे हैं। उनकी कोशिश सीमांचल और मिथिलांचल के मुस्लिम और पिछड़े समुदायों के वोट साधने की है। खासकर सीमांचल, जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है, वहां कांग्रेस अपनी पैठ बढ़ाना चाहती है। मल्लाह समुदाय इस खेल में अहम कड़ी है। यह समुदाय न सिर्फ मखाना उत्पादन में सक्रिय है, बल्कि सियासी तौर पर भी जागरूक है। परंपरागत रूप से यह समाजवादी दलों के साथ रहा है, लेकिन अब सहनी जैसे नेता इसे महागठबंधन की ओर ले जा रहे हैं। सहनी की पार्टी 2020 में एनडीए के साथ थी और तीन सीटें जीती थीं, लेकिन बाद में उनके विधायक सत्ताधारी दल में चले गए। अब सहनी महागठबंधन के साथ हैं, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा और सियासी गणित उन्हें फिर से पाला बदलने के लिए प्रेरित कर सकती है।
मखाना किसानों का मुद्दा बिहार की सियासत में नया रंग भर रहा है। यह सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। राहुल गांधी की यात्रा और एनडीए की योजनाएं, दोनों ही किसानों के नाम पर वोट की खेती कर रही हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या किसानों की स्थिति में वास्तविक बदलाव आएगा? आधुनिक तकनीक, न्यूनतम समर्थन मूल्य, और बाजार तक सीधी पहुंच से ही मखाना किसानों की जिंदगी बदल सकती है। बिहार का मखाना दुनिया में अपनी पहचान बना सकता है, बशर्ते सियासत से परे ठोस कदम उठें। उम्मीद है कि 2025 का चुनाव इस दिशा में कुछ नया लाएगा, और मखाना किसान अपनी मेहनत का सही फल पा सकेंगे।