
अजय कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का बिगुल अभी पूरी तरह नहीं बजा है, लेकिन सियासी हलचलों ने पूरे राज्य में माहौल गरमा दिया है। इस बीच बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने रविवार को ऐसा फैसला सुनाया जिसने सभी बड़े गठबंधनों को चौंका दिया। मायावती ने साफ कर दिया कि बसपा न तो भाजपा-जदयू के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ जाएगी और न ही कांग्रेस-राजद के इंडिया गठबंधन में शामिल होगी। पार्टी सभी 243 सीटों पर अपने दम पर चुनाव लड़ेगी। यह ऐलान इसलिए भी अहम है क्योंकि बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों और गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी रहती है, और ऐसे में किसी बड़े दल का अकेले मैदान में उतरना कई समीकरणों को बदल सकता है। बसपा की जड़ें उत्तर प्रदेश की राजनीति में गहरी हैं, जहाँ दलितों के सहारे मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनीं। पार्टी ने हमेशा बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और कांशीराम के विचारों को आधार बनाया। लेकिन यूपी से बाहर बसपा का असर सीमित ही रहा। बिहार में 1990 के दशक और 2000 के शुरुआती वर्षों में बसपा ने जरूर कई सीटों पर ठीक-ठाक वोट बटोरे थे। 2010 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 3% वोट मिले थे, जो बाद में गिरते-गिरते 2020 में 0.38% पर आ गए। सीटों की बात करें तो बसपा अब तक बिहार विधानसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई है। 2020 में गोपालगंज जैसी कुछ सीटों पर बसपा ने मजबूत मुकाबला जरूर किया, लेकिन जीत हाथ नहीं लगी। यह इतिहास बताता है कि बिहार में बसपा की मौजूदगी तो है, लेकिन उसे वोटों को सीटों में बदलने की चुनौती हमेशा से रही है।
मायावती ने 2019 लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर 10 सीटें जीती थीं। यह बसपा के लिए बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन 2024 में जब पार्टी ने अकेले मैदान में उतरने का फैसला किया तो परिणाम शून्य रहा। यह अनुभव मायावती के लिए कड़वा था, लेकिन उन्होंने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि गठबंधन के सहारे मिली जीत टिकाऊ नहीं होती। यही कारण है कि अब उन्होंने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय गठबंधनों से दूरी बना ली है। उनका मानना है कि बसपा को अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा होना होगा, चाहे शुरुआत में नतीजे कमजोर ही क्यों न हों।बसपा ने इस बार बिहार को तीन जोन में बांटा है। हर जोन की जिम्मेदारी वरिष्ठ नेताओं को दी गई है ताकि संगठनात्मक स्तर पर मजबूती लाई जा सके। मायावती ने अपने भतीजे और राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद को बिहार की कमान दी है। आकाश सितंबर से ‘अधिकार यात्रा’ शुरू करेंगे, जिसमें दो दर्जन जिलों को कवर किया जाएगा। इस यात्रा का मकसद है दलित, अति पिछड़ा (EBC) और पसमांदा मुस्लिम समाज तक पहुँचना। बसपा का मानना है कि अगर इन वर्गों में सेंध लगाई जाए तो बिहार की राजनीति में जगह बनाई जा सकती है।
बिहार की राजनीति हमेशा जातीय समीकरण पर टिकी रही है।राज्य में दलितों की आबादी करीब 16% है।अति पिछड़े वर्ग (EBC) करीब 20% हैं। मुसलमान लगभग 17% हैं, जिनमें पसमांदा मुस्लिम सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं।ये तीनों वर्ग मिलकर बिहार की लगभग आधी आबादी बनाते हैं। राजद यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिका है, जदयू कुर्मी-कोइरी और अति पिछड़ों पर, भाजपा ऊपरी जातियों और शहरी मतदाताओं पर। ऐसे में बसपा का दांव है कि दलित, अति पिछड़े और पसमांदा मुस्लिम को जोड़कर वह ‘तीसरा विकल्प’ बने। मायावती के ‘मायावती मॉडल’ में जाटव/रविदास समाज को कोर वोट मानकर बाकी जातियों को भी साथ लाने की योजना है।हालांकि आंकड़े बताते हैं कि बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती वोट को सीट में बदलने की है। 2020 चुनाव में पार्टी ने कई सीटों पर 10-15 हजार वोट हासिल किए, लेकिन जीत नहीं सकी। इसका कारण यह है कि बिहार में दलित वोटों का बंटवारा पहले से ही जदयू, राजद और कांग्रेस के बीच है। वहीं, मुस्लिम वोट पर राजद और कांग्रेस का दबदबा है। ऐसे में बसपा को वोट शेयर बढ़ाने के लिए जमीनी स्तर पर लंबे संघर्ष की जरूरत होगी।
मायावती के इस ऐलान ने इंडिया गठबंधन में बेचैनी बढ़ा दी है। विपक्ष को डर है कि बसपा के मैदान में उतरने से दलित और मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा, जिसका सीधा फायदा भाजपा-एनडीए को मिल सकता है। यही स्थिति 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भी देखी गई थी, जब बसपा और अन्य छोटे दलों ने वोट काटकर भाजपा को बढ़त दिलाई। विश्लेषकों का मानना है कि 2025 में भी अगर बसपा 2-3% वोट हासिल कर लेती है, तो कई सीटों पर नतीजे बदल सकते हैं। बिहार की राजनीति में कई बार 2-3 हजार वोट का अंतर तय करता है कि जीत किसकी होगी। बिहार चुनाव में केवल एनडीए और इंडिया गठबंधन ही नहीं, बल्कि कई छोटे दल भी सक्रिय हो चुके हैं। लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने आरक्षण पर गीत लॉन्च करके प्रचार अभियान शुरू कर दिया है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के ओमप्रकाश राजभर भी बिहार में तीसरे मोर्चे की संभावनाएं तलाश रहे हैं। इन सबके बीच बसपा का अकेले उतरना यह संकेत देता है कि बिहार में इस बार मुकाबला केवल दो गठबंधनों के बीच सीमित नहीं रहेगा।
आकाश आनंद पर मायावती ने बड़ी जिम्मेदारी डाली है। यह न केवल बिहार चुनाव की चुनौती है बल्कि उनके नेतृत्व कौशल की भी परीक्षा है। अगर आकाश आनंद अपनी ‘अधिकार यात्रा’ और संगठनात्मक पकड़ से बसपा को कुछ सीटें दिलाने में सफल रहते हैं, तो यह उनके राजनीतिक करियर का मजबूत आधार बनेगा। वहीं अगर परिणाम निराशाजनक रहे तो विपक्ष बसपा को वोटकटवा पार्टी बताने से पीछे नहीं हटेगा मायावती का यह ऐलान केवल चुनावी रणनीति नहीं बल्कि एक बड़ा राजनीतिक संदेश भी है। उन्होंने साफ कर दिया कि बसपा किसी भी गठबंधन की मोहताज नहीं है। पार्टी बाबा साहेब के मिशन और कांशीराम की सोच के सहारे अपनी स्वतंत्र पहचान बनाएगी। यह दांव जोखिम भरा जरूर है, लेकिन इससे बसपा की छवि मजबूत हो सकती है।
बिहार चुनाव 2025 में बसपा का यह कदम तय करेगा कि पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जमीन कैसे मजबूत करती है। अगर दलित, अति पिछड़ा और पसमांदा मुस्लिम समाज बसपा के साथ खड़ा होता है तो आने वाले समय में बिहार की राजनीति का नया समीकरण उभर सकता है। लेकिन अगर यह दांव विफल हुआ तो बसपा की स्थिति और कमजोर हो सकती है।फिलहाल इतना तय है कि मायावती ने बिहार चुनाव को लेकर बड़ा दांव खेला है। यह दांव सत्ता दिलाए या न दिलाए, लेकिन सियासी संदेश जरूर देगा कि बसपा अब समझौते की राजनीति से बाहर निकलकर अपनी अलग पहचान के साथ मैदान में है।