
विजय गर्ग
जब भारत ने 1948 के लंदन ओलंपिक में भाग लिया तो पूरे दल में एक भी महिला खिलाड़ी नहीं थी. 78 सालों के बाद भी इस स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं आया है. खेल के क्षेत्र में भारत की लड़कियां आज भी संघर्ष कर रही हैं.
अमीषा रावत ने शारीरिक विकलांगता को अपने लिए कभी बाधा नहीं बनने दिया
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की रहने वाली अमीषा रावत के लिए पहाड़ों के पथरीले रास्ते उतनी बड़ी बाधा नहीं थे जितना उनके आस पास मौजूद लोग. शारीरिक विकलांगता की वजह से साथ पढ़ने वाले बच्चे न सिर्फ उन्हें लाचारी भरी निगाह से देखते थे बल्कि मजाक भी उड़ाते थे.
ऐसे लोगों को जवाब देने के लिए अमीषा ने अपने काम और सफलता को जरिया बनाया. अमीषा ने आगे चलकर न सिर्फ देश में अपने खेल (शॉट पुट) से नाम कमाया बल्कि पेरिस पैरालंपिक के लिए भी क्वालिफाई किया.
भारत में आज भी अमीषा जैसी तमाम लड़कियां हैं, जो न सिर्फ खेलों में बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं बल्कि देश के लिए सोने, चांदी और कांसे के तमगे भी ला सकती हैं. लेकिन सामाजिक रूढ़िवादिता, लैंगिक असमानता जैसे तमाम रोड़े उनके रास्ते की रुकावट बनते हैं.
आजादी के बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय दल में एक भी महिला खिलाड़ी नहीं था
खेलों में महिलाओं की भागीदारी
आजादी के बाद भारत में महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य रहा है. खेल का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है, जहां महिलाओं की भागीदारी न केवल शारीरिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत विकास के लिए जरूरी है, बल्कि यह सामाजिक रूढ़िवादिता को तोड़ने, लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और इसमें सफल करियर बनाने का एक शक्तिशाली माध्यम भी है.
बावजूद इसके खेलों का महाकुंभ माने जाने वाले ओलंपिक में महिलाओं की भागीदारी बमुश्किल ही पुरुषों के बराबर पहुंच पाई है. 2024 में हुए पेरिस ओलंपिक में भारत की तरफ से कुल 117 खिलाड़ियों ने भाग लिया, जिसमें 70 पुरुष और महज 47 महिलाएं थीं.
ओलंपिक की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, भारत की तरफ से ओलंपिक में शामिल होने वाली पहली महिला नोरा पॉली हैं, जिन्होंने 1924 में पेरिस ओलंपिक में टेनिस में भारत का प्रतिनिधित्व किया.
आजादी के बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय दल में एक भी महिला खिलाड़ी नहीं थी लेकिन 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में नीलिमा घोष, मैरी डिसूजा, डॉली नाजिर और आरती साहा ने देश का झंडा उठाया.
भारत में खेल और शारीरिक गतिविधि (एसएपीए) में भागीदारी के स्तर में लैंगिक असमानता बढ़ रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, मौजूदा समय में केवल 43 फीसदीभारतीयमहिलाएं ही सुझाई गई शारीरिक गतिविधियों में शामिल होती हैं. हालांकि, अगर आजकल का रुझान ऐसे ही जारी रहा, तो 2030 तक यह संख्या घटकर 32 फीसदी रह जाने की संभावना है.
एक नहीं, दो नहीं हजार समस्याएं
महिलाओं के लिए खेलों से दूरी घर से ही शुरू हो जाती है. ये कहना है डॉ. दिलप्रीत कौर का, जो खुद लंबे समय तक ट्रैक एंड फील्ड एथलीट रही हैं और पुणे की श्री बालाजी यूनिवर्सिटी के स्पोर्ट्स साइंस विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से बात करते हुए बताया, हर खेल की अपनी डिमांड होती है और बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए हमें उसके हिसाब से चलना पड़ता है. लेकिन कई बार लड़कियों को सिर्फ इसलिए रोका जाता है क्योंकि उन्हें छोटे कपड़े पहनने पड़ते हैं.
अल्मोड़ा की रहने वाली ज्योति तलवार बताती हैं कि उन्हें खेलने के लिए परिवार की तरफ से हमेशा सपोर्ट मिला लेकिन स्कूल में शिक्षकों का साथ नहीं मिलता था. उनकी टीचर अक्सर कहती थीं कि अगर दो नावों की सवारी की तो डूबना तय है.
ट्रैक एंड फील्ड में मास्टर डिग्री ले चुकी ज्योति ने न केवल दो नावों की सवारी की बल्कि उन्हें पार भी लगाया. ज्योति कहती हैं कि स्कूलों में ही अगर सही समय पर प्रतिभा की पहचान कर ली जाए तो भारत को बड़े स्तर पर अच्छे खिलाड़ी मिल सकते हैं.
डॉ. दिलप्रीत कौर खेल के दौरान चोट लगने, कोचिंग और स्पॉन्सरों के अभाव, फंडिंग, मीडिया कवरेज और ह्यूमन परफॉर्मेंस लैब की कमी, जेंडर गैप और असुरिक्षत माहौल को भी बड़ा कारण मानती हैं. उन्होंने बताया कि भारत में जितने स्पोर्ट्स सेंटर हैं, वो फिलहाल काफी नहीं हैं. मौजूदा सेंटरों में इतनी कम जगह है कि ज्यादातर लड़कियों को खेल का खर्च उठाने के लिए परिवार से मदद लेनी पड़ती है. वो कहती हैं, “हम खर्च तब करते हैं जब मेडल आ जाता है. जबकि खर्च मेडल लाने से पहले करना चाहिए.”
स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एसएआई) की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार राष्ट्रीय उत्कृष्टता केंद्र के 24 सेंटरों पर महज 1,514 लड़कियां और एसएआई प्रशिक्षण केंद्रों में महज 1,383 लड़कियां हैं.
पीरियड्स भी एक बड़ी वजह
भारत में आमतौर पर पीरियड्स को लेकर जागरूकता का अभाव है और बात खेलों की हो तो तमाम भ्रांतियां मौजूद हैं. पैरा एथलेटिक्स कोच अभिषेक चौधरी भी यही मानते हैं. डीडब्ल्यू हिंदी से बात करते हुए उन्होंने बताया, ट्रेनिंग के दौरान कई बार ऐसा होता है कि हमें शारीरिक क्षमता का ध्यान रखते हुए शेड्यूल बनाना होता है लेकिन कई बार लड़कियां कोच को खुलकर बता नहीं पाती हैं.
वो यह भी कहते हैं कि भारत में ऐसे डॉक्टरों की कमी है जिन्हें खेल से जुड़ी चोटों या अन्य मामलों की जानकारी हो. उन्होंने कहा, हमारे एथलीट्स को अगर यूरोपीय देशों जैसी आधी सुविधाएं भी मिल जाएं तो हमारी लड़कियां न सिर्फ लड़कों से ज्यादा मेडल लाएंगी बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर स्थान दिलाएंगी.
पेरिस खेल गांव में मौजूद भारत के पैरा कोच अभिषेक चौधरी पैरा कोच अभिषेक चौधरी खेलों में लड़कियों की सक्रिय भागीदारी के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं
महिला कोच बेहतर या पुरुष कोच
इस सवाल का जवाब देते हुए अमीषा रावत ने हमें बताया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोचिंग एक महिला दे रही है या पुरुष. वो कहती हैं, हमारे देश में वैसे ही कोच की कमी है इसलिए पहले तो कोच मिलना ही बड़ी बात होती है.
अभिषेक भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. वो कहते हैं, “मैं कई महिला खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देता हूं. फर्क सिर्फ इससे पड़ता है कि आप अपने खेल को लेकर कितने सीरियस हैं और क्या हासिल करना चाहते हैं.”
स्टेट ऑफ स्पोर्ट्स एंड फिजिकल एक्टिविटी रिपोर्ट (2024) के अनुसार, शारीरिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी कम है. 40 फीसदी महिलाएं घरेलू कामों को ही एक शारीरिक गतिविधि के रूप में देखती हैं और 12 फीसदी से कम महिलाएं ऐसी एक्सरसाइज करती हैं जिससे मांसपेशियों मजबूत होती हैं.
शारीरिक शोषण बड़ी वजह
आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार, दस सालों (2010-2020) के दौरान स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एसएआई) में यौन उत्पीड़न की 45 शिकायतें दर्ज हुईं, जिनमें से 29 कोचों के खिलाफ थी. असुरक्षा का यह भाव महिलाओं को खेलों से दूर करने का एक कारण बनता है.
यौन उत्पीड़न को लेकर भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ देश के पहलवानों का प्रदर्शन चर्चा में रहा था. एसएआई की वेबसाइटपरमौजूदजानकारी के अनुसार, संसदीय कार्य मंत्रालय की तरफ से नॉमिनेट किए जाने वाले तीन संसद सदस्यों में से एक नाम बृज भूषण शरण सिंह का भी है.
कैसे सुधरेंगे हालात
सरकार की ‘खेलो इंडिया’ जैसी पहलें और विभिन्न राज्यों में महिला खेल अकादमियों का विकास महिला एथलीटों को अवसर प्रदान कर रहे हैं. पेरिस ओलंपिक में महिला खिलाड़ियों की भागीदारी भी लगभग 40 फीसदी तक पहुंच गई है और विभिन्न महिला लीगों में महिलाएं सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं लेकिन फिर भी काफी काम किया जाना बाकी है.
आजादी के बाद से भारत में खेलों में महिलाओं की भागीदारी ने एक लंबा सफर तय किया है. पीटी उषा, कर्णम मल्लेश्वरी, साइना नेहवाल, एमसी मैरी कॉम, पीवी सिंधु, मीराबाई चानू, मनु भाकर जैसी कई लड़कियों ने देश को गौरवान्वित किया है और लाखों बच्चियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हैं.
अभिषेक चौधरी कहते हैं कि खेलों में मौजूद भ्रष्टाचार, मूलभूत सुविधाओं की कमी, ट्रेनिंग और साजो-सामान की कमी, बेहतर मेडिकल सुविधाओं और अच्छी नीयत के बिना लड़कियों को आगे ले जाने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता.