‘वोटर अधिकार यात्रा’ ने उजागर किया विपक्ष का बिखरा चेहरा

‘Voter Rights Yatra’ exposed the scattered face of the opposition

अजेश कुमार

राहुल गांधी की अगुवाई में बिहार में चली ‘वोटर अधिकार यात्रा’ 1 सितंबर को पटना में समाप्त हो चुकी है। यह यात्रा 17 अगस्त को रोहतास जिले से शुरू हुई थी और करीब दो हफ्तों तक बिहार के अलग-अलग जिलों से गुजरते हुए विपक्षी राजनीति को एक साझा मंच पर लाने का प्रयास करती रही। इस यात्रा का मक़सद न केवल ‘वोट चोरी’ जैसे आरोपों को प्रमुखता से उठाना था, बल्कि चुनाव आयोग की पारदर्शिता और मतदाता सूची में चल रहे एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न) की प्रक्रिया को भी विपक्ष की केंद्रीय बहस का मुद्दा बनाना था।

यात्रा की सबसे बड़ी ख़ासियत यह रही कि इसमें कांग्रेस के साथ-साथ आरजेडी के तेजस्वी यादव और वाम दलों के नेता दीपांकर भट्टाचार्य भी लगातार शामिल रहे। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की मौजूदगी ने इसे राष्ट्रीय स्वरूप देने की कोशिश की, लेकिन राजनीति के इस मंच से ममता बनर्जी की अनुपस्थिति ने सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी इस यात्रा से दूर रहीं। यह दूरी केवल भौगोलिक नहीं थी, बल्कि राजनीतिक भी थी। उन्होंने प्रतीकात्मक तौर पर अपने दो सांसद यूसुफ पठान और ललितेश त्रिपाठी को पटना भेजा, लेकिन यह स्पष्ट था कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व राहुल गांधी की इस पहल से सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहता है।

जानकार कहते हैं कि ममता बनर्जी का रवैया समझना आसान नहीं है। वे चाहतीं तो ख़ुद इस यात्रा का हिस्सा बन सकती थीं, लेकिन उन्होंने जानबूझकर दूरी बनाए रखी। शायद इसलिए क्योंकि उन्हें कांग्रेस के साथ खड़े होने से अपने ही राज्य में राजनीतिक जोखिम दिखता है। दरअसल, पश्चिम बंगाल में 2026 के विधानसभा चुनाव बेहद अहम हैं। 2021 में भारी जीत के बावजूद ममता बनर्जी के सामने एंटी-इनकंबेंसी, बीजेपी का दबाव, और कांग्रेस-लेफ्ट के साथ स्थानीय स्तर पर सीधी टक्कर जैसी कई तरह की चुनौतियां हैं। ऐसे में राहुल गांधी के साथ मंच साझा करना ममता के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकता था।

बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। उससे ठीक पहले चुनाव आयोग ने एसआईआर की प्रक्रिया शुरू की है, जिसमें वोटर लिस्ट का गहन पुनरीक्षण किया जा रहा है। विपक्ष का आरोप है कि इस प्रक्रिया में बड़ी संख्या में वास्तविक मतदाताओं के नाम काटे जा सकते हैं, और यह सीधे तौर पर लोकतांत्रिक अधिकारों से खिलवाड़ होगा।राहुल गांधी ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। उन्होंने दावा किया कि पिछले लोकसभा चुनाव और कई विधानसभा चुनावों में व्यापक स्तर पर वोट चोरी हुई है। यही आरोप उनका राजनीतिक नैरेटिव बन चुका है। आरजेडी और वामपंथी दलों ने इस मुद्दे पर कांग्रेस का समर्थन किया। दिलचस्प बात यह है कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी टीएमसी ने भी एसआईआर पर आक्रामक रुख़ अपनाया है। ममता ने कहा है कि अगर एक भी असली वोटर का नाम काटा गया तो वे 10 लाख कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली में चुनाव आयोग का घेराव करेंगी।

यानी मुद्दा वही वोटरों के अधिकार की रक्षा से जुड़ा है, लेकिन जब बात राहुल गांधी की यात्रा की आई तो ममता ने दूरी बनाए रखी। यह दूरी विपक्षी एकता की संभावनाओं पर कई सवाल खड़े करती है। पश्चिम बंगाल और बिहार की राजनीति में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटरों की हिस्सेदारी लगभग 27 फ़ीसदी है। ममता बनर्जी के पास लंबे समय से यह वोट बैंक मज़बूती से रहा है।

बिहार में राहुल गांधी की यात्रा में मुस्लिमों की बड़ी भागीदारी देखी गई। जगह-जगह मुस्लिम समुदाय के लोग कांग्रेस और आरजेडी के कार्यक्रमों में नज़र आए। यह ममता के लिए चिंता का विषय हो सकता है। उन्हें आशंका है कि राहुल गांधी की आक्रामक राजनीति अगर मुस्लिम वोटरों पर असर डालने लगी तो इसका असर बंगाल तक पहुंच सकता है। याद रखना होगा कि 2021 के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस और वामदलों ने मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने की कोशिश की थी, हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली, लेकिन राहुल गांधी का यह नया अभियान भविष्य में समीकरण बदल सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन की कमान भले ही साझा हो, लेकिन असली चेहरा तेजस्वी यादव का है। 2020 के चुनाव में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी और कांग्रेस-लेफ्ट ने भी कुछ सीटें जीती थीं।

राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर, बिहार में महागठबंधन की जीत होती है तो श्रेय तेजस्वी यादव को जाएगा, लेकिन हार होने पर इसका ठीकरा राहुल गांधी और अखिलेश यादव पर भी फोड़ा जाएगा। यही वजह है कि ममता बनर्जी इस यात्रा से दूर रहीं, क्योंकि हार की सूरत में उनके ऊपर भी राजनीतिक दाग़ लग सकता था।यानी ममता का निर्णय महज़ रणनीतिक नहीं बल्कि जोखिम प्रबंधन भी है। वे चाहती हैं कि बिहार की राजनीति में उनके नाम का न जुड़ना ही उनके लिए सुरक्षित रहेगा। साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए बनाए गए इंडिया गठबंधन की एकता पर शुरू से सवाल उठते रहे हैं। टीएमसी और कांग्रेस के बीच तकरार लोकसभा चुनावों में भी साफ दिखाई दी थी। दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच मतभेद किसी से छिपे नहीं हैं। ऐसे में, राहुल गांधी की यात्रा विपक्ष को एकजुट करने का मंच बन सकती थी, लेकिन ममता और केजरीवाल की गैरमौजूदगी ने यह साफ कर दिया कि गठबंधन अब भी ढीला-ढाला समझौता ही है।

यात्रा में अखिलेश यादव और स्टालिन की मौजूदगी ने कांग्रेस को साउथ और यूपी से समर्थन का संदेश दिया, लेकिन बंगाल और दिल्ली जैसे राज्यों से दूरी ने यह दिखाया कि विपक्ष के भीतर क्षेत्रीय दल अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से कदम उठा रहे हैं। ममता की दूरी की एक ऐतिहासिक वजह भी है। पश्चिम बंगाल और बिहार की राजनीति का रिश्ता कभी बहुत मधुर नहीं रहा। लालू प्रसाद यादव से ममता का पुराना मतभेद किसी से छिपा नहीं है। रेल मंत्री रहते हुए दोनों नेताओं के बीच कई मुद्दों पर सार्वजनिक विवाद हुए थे।

इस पृष्ठभूमि में ममता का बिहार की राजनीति से दूरी बनाना कोई नई बात नहीं है। वे अपने राज्य के मुद्दों पर ही फोकस करना चाहती हैं और राष्ट्रीय राजनीति में केवल उतना ही निवेश करती हैं, जितना उनकी पार्टी के लिए फायदेमंद हो। ममता बनर्जी 2011 से लगातार सत्ता में हैं। लंबे शासन का एक असर यह भी है कि राज्य में एंटी-इनकंबेंसी का माहौल धीरे-धीरे गहराने लगता है। भ्रष्टाचार, घोटाले, और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे विपक्ष के लिए हथियार बने हुए हैं। इस स्थिति में अगर ममता कांग्रेस के साथ बहुत ज़्यादा निकटता दिखातीं तो यह संदेश जाता कि वे विपक्षी गठबंधन पर निर्भर हैं, जबकि बंगाल में वे अभी भी अपनी मजबूत एकल पहचान बनाए रखना चाहती हैं। यही कारण है कि उन्होंने यात्रा से दूरी बनाई और केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व भेजा।

भले ही ममता बनर्जी और केजरीवाल ने दूरी बनाई हो, लेकिन राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा ने बिहार में कांग्रेस को नया ऊर्जा स्रोत दिया है। कांग्रेस के झंडे, राहुल गांधी के नारे और जनता की मौजूदगी ने यह संकेत दिया कि पार्टी अभी भी अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है। यह यात्रा राहुल गांधी के लिए भी एक नेतृत्व परीक्षण थी। वे दिखाना चाहते थे कि कांग्रेस केवल चुनावी गठबंधन का हिस्सा भर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए सड़क पर उतरने वाली पार्टी भी है।

कुल मिलाकर, राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा ने बिहार की राजनीति को गरमा दिया है और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन की सीमाओं को भी उजागर कर दिया है। ममता बनर्जी का इसमें शामिल न होना यह दर्शाता है कि भारत की विपक्षी राजनीति अभी भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, क्षेत्रीय हितों और राजनीतिक जोखिमों के बीच उलझी हुई है। ममता की रणनीति साफ है कि वे बंगाल पर केंद्रित रहना चाहती हैं, कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहती हैं और मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहतीं। दूसरी ओर, राहुल गांधी यह संदेश देने में सफल हुए कि वे विपक्षी राजनीति का एक केंद्रीय चेहरा बने रहना चाहते हैं। भविष्य का सवाल यह है कि क्या विपक्षी दल इन आपसी मतभेदों को भुलाकर एक साझा मंच पर आ पाएंगे या फिर हर दल अपनी-अपनी ज़मीन पर अलग लड़ाई लड़ता रहेगा। बिहार की यह यात्रा इस सवाल का एक प्रारंभिक उत्तर देती है कि विपक्ष अभी भी बिखरा हुआ है, और हर नेता अपनी राजनीति को प्राथमिकता दे रहा है।