रोजगार संकट :भारत के आईटी क्षेत्र में छंटनी की लहर

Job crisis: India's IT sector faces a wave of layoffs

कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बढ़ते प्रभाव से भारत के सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में गहरे संरचनात्मक परिवर्तन, पर क्या तैयार है देश का श्रमबल?

भारत के आईटी क्षेत्र में हाल की छँटनियाँ कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित स्वचालन के दौर की अनिवार्य वास्तविकता हैं। यह केवल रोजगार संकट नहीं, बल्कि कौशल और तकनीक के पुनर्संतुलन की प्रक्रिया है। सरकार, उद्योग और शिक्षण संस्थानों को मिलकर एक राष्ट्रीय पुनःप्रशिक्षण अभियान चलाना चाहिए, ताकि लाखों पेशेवरों को नई तकनीकी दिशा मिल सके। भविष्य में वही राष्ट्र आगे बढ़ेगा जो अपने युवाओं को “डिजिटल श्रमिक” नहीं बल्कि “तकनीकी नवप्रवर्तक” बनाएगा। परिवर्तन अवश्यंभावी है, लेकिन विवेक और दूरदृष्टि के साथ यह परिवर्तन भारत के लिए शक्ति बन सकता है।

डॉ प्रियंका सौरभ

भारत का सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र लंबे समय से देश की आर्थिक प्रगति का प्रमुख आधार रहा है। यह क्षेत्र न केवल सेवा निर्यात का सबसे बड़ा स्रोत है, बल्कि लाखों शिक्षित युवाओं को उच्च आय वाले रोजगार भी प्रदान करता रहा है। परंतु हाल के वर्षों में इसमें एक गहरी हलचल देखी जा रही है। वर्ष 2024–25 में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (टीसीएस) द्वारा लगभग 20,000 नौकरियों में की गई कटौती ने पूरे उद्योग को हिला दिया। यह केवल एक कंपनी का प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि भारतीय आईटी क्षेत्र में चल रहे एक व्यापक संरचनात्मक परिवर्तन का संकेत है।

यह परिवर्तन कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), मशीन अधिगम और स्वचालित प्रणालियों के तीव्र विस्तार के कारण हो रहा है। जिन कार्यों के लिए पहले सैकड़ों कर्मचारियों की आवश्यकता होती थी, अब वही कार्य कुछ ही मिनटों में स्वचालित तकनीक द्वारा संपन्न किए जा रहे हैं। सॉफ्टवेयर निर्माण, परीक्षण, और ग्राहक सेवा जैसे कार्य अब “एजेंटिक एआई” प्रणालियों द्वारा अधिक कुशलता से किए जा रहे हैं। इससे कंपनियों की उत्पादकता तो बढ़ी है, लेकिन मानव श्रम की आवश्यकता घटने लगी है — और यही इस मौन छँटनी (Silent Layoff) की सबसे बड़ी वजह है।

टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो और कॉग्निज़ेंट जैसी कंपनियाँ अब पुराने “आउटसोर्सिंग” मॉडल से हटकर “मूल्य आधारित डिजिटल सेवा” मॉडल की ओर बढ़ रही हैं। यह परिवर्तन सीधे तौर पर मध्यम स्तर के कर्मचारियों को प्रभावित कर रहा है, जिनके कौशल पारंपरिक तकनीकों तक सीमित हैं। वे नई एआई आधारित प्रणालियों के अनुरूप स्वयं को ढाल नहीं पा रहे हैं। यही कौशल असंगति (Skill Mismatch) इस संकट का मूल कारण है।

एआई आधारित उपकरणों ने सॉफ्टवेयर उद्योग में मध्य प्रबंधन और सहायक भूमिकाओं को लगभग अप्रासंगिक बना दिया है। पहले जहाँ “ईआरपी प्रबंधन” या “सिस्टम रखरखाव” के लिए बड़े दलों की आवश्यकता होती थी, अब वही कार्य कुछ प्रोग्राम और क्लाउड स्वचालन प्रणालियाँ पूरी कर देती हैं। कंपनियों के लिए यह लागत घटाने का साधन है, लेकिन लाखों कर्मचारियों के लिए यह असुरक्षा का कारण बन गया है।

यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका और यूरोप में भी तकनीकी उद्योगों में बजट कटौती और व्यापारिक संरक्षणवाद के कारण भारी परिवर्तन हो रहे हैं। विदेशी ग्राहक अब मानव श्रम आधारित सेवाओं की जगह तकनीक-आधारित समाधान चाहते हैं। साथ ही, अमेरिका में एच-1बी वीज़ा शुल्क वृद्धि और स्थानीय भर्ती नीतियों ने भारतीय कंपनियों के लिए विदेशों में कर्मचारियों की नियुक्ति को कठिन बना दिया है। इन सब कारणों से कंपनियाँ घरेलू स्तर पर भी कार्यबल कम करने पर मजबूर हो रही हैं।

वर्ष 2023 से 2025 के बीच भारत की शीर्ष पाँच आईटी कंपनियों में लगभग 50,000 नौकरियाँ समाप्त हुई हैं। कंपनियाँ इसे “कार्य दक्षता में सुधार” बताती हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि मानव संसाधन की आवश्यकता कम होती जा रही है। यह न केवल आर्थिक चुनौती है, बल्कि सामाजिक रूप से भी चिंता का विषय है, क्योंकि आईटी क्षेत्र देश के सबसे शिक्षित और संगठित वर्ग को रोजगार देता है।

फिर भी, इस परिवर्तन को पूरी तरह नकारात्मक नहीं कहा जा सकता। हर तकनीकी क्रांति अपने साथ अवसर भी लाती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने नए क्षेत्र खोले हैं — जैसे डेटा विज्ञान, क्लाउड इंजीनियरिंग, साइबर सुरक्षा, और एआई मॉडल निर्माण। प्रश्न यह नहीं है कि नौकरियाँ समाप्त हो रही हैं, बल्कि यह कि पुराने कौशल अप्रासंगिक हो रहे हैं और नए कौशलों की मांग बढ़ रही है।

अब आवश्यकता है कि सरकार, उद्योग और शिक्षा क्षेत्र मिलकर समन्वित प्रयास करें।
सबसे पहले, राष्ट्रीय स्तर पर “डिजिटल पुनःप्रशिक्षण अभियान” चलाना होगा। टीसीएस ने स्वयं 5.5 लाख कर्मचारियों को मूल एआई प्रशिक्षण दिया और एक लाख को उन्नत प्रशिक्षण में सम्मिलित किया। यदि इस मॉडल को अन्य कंपनियों और सरकारी योजनाओं में शामिल किया जाए, तो बड़ी संख्या में पेशेवरों को पुनःकुशल बनाया जा सकता है।

दूसरे, तकनीकी शिक्षा संस्थानों को अपने पाठ्यक्रम में मूलभूत परिवर्तन लाने होंगे। अब केवल प्रोग्रामिंग या नेटवर्किंग नहीं, बल्कि एआई नैतिकता, उत्पाद सोच (Product Thinking), डेटा विश्लेषण, और सृजनात्मक समस्या समाधान जैसे विषयों को शिक्षा का हिस्सा बनाना होगा। नई शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत इन विषयों को शामिल कर युवाओं को भविष्य की तकनीकों के अनुरूप तैयार किया जा सकता है।

तीसरे, सामाजिक सुरक्षा ढाँचे को मज़बूत करना होगा। छँटनी झेल रहे कर्मचारियों को सेवरेंस पैकेज, पुनःप्रशिक्षण सब्सिडी, और मानसिक स्वास्थ्य सहायता दी जानी चाहिए। भारत में निजी क्षेत्र के अधिकांश कर्मचारी किसी औपचारिक सुरक्षा प्रणाली से बाहर हैं। ऐसे में सरकार को “डिजिटल रोजगार सुरक्षा कोष” या “टेक्नो-कर्मचारी बीमा योजना” जैसी पहल शुरू करनी चाहिए।

चौथे, सार्वजनिक–निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के माध्यम से बड़े पैमाने पर कौशल प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए जाएँ। एड-टेक कंपनियों, नासकॉम (NASSCOM) और राज्य सरकारों को मिलकर क्षेत्रीय प्रशिक्षण मिशन शुरू करने चाहिए, ताकि बेरोजगार तकनीकी पेशेवरों को नए कौशल सिखाए जा सकें।

पाँचवाँ, नवाचार और स्टार्ट-अप संस्कृति को और प्रोत्साहित करना होगा। एआई आधारित उत्पाद विकास और डीप-टेक उद्यमिता को बढ़ावा देकर नए रोजगार सृजित किए जा सकते हैं। सरकार को “स्टार्ट-अप इंडिया” और “डिजिटल इंडिया” योजनाओं के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करना चाहिए। अगर भारत अपने युवाओं को “रोजगार चाहने वाला” नहीं, बल्कि “रोजगार सृजक” बना सका, तो यह संकट अवसर में बदल सकता है।

साथ ही, कंपनियों को अपनी मानव संसाधन नीतियों में संवेदनशीलता लानी होगी। “मौन छँटनी” या “जबरन निष्कासन” जैसी प्रक्रियाएँ कर्मचारियों के आत्मबल को तोड़ देती हैं। तकनीकी विकास तभी सार्थक है जब वह मानवीय मूल्यों के साथ संतुलन बनाए रखे।

भारत के पास इस समय एक अनूठा अवसर है। हमारे पास विश्व का सबसे बड़ा युवा तकनीकी कार्यबल है। यदि यह कार्यबल सही दिशा और कौशल के साथ प्रशिक्षित हो सके, तो भारत न केवल आईटी सेवाओं का केंद्र रहेगा बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता के वैश्विक युग में अग्रणी भूमिका निभा सकता है। इसके लिए एक दीर्घकालिक “राष्ट्रीय डिजिटल कौशल मिशन 2030” की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए।

टीसीएस की छँटनी जैसी घटनाएँ हमें यह चेतावनी देती हैं कि तकनीकी युग में स्थिरता केवल निरंतर सीखने और अनुकूलन से ही संभव है। आने वाले दशक में वही कंपनियाँ सफल होंगी जो तकनीकी दक्षता के साथ-साथ मानवीय कौशल — जैसे विवेकपूर्ण निर्णय, रचनात्मकता और नैतिक सोच — को भी महत्त्व देंगी।

भारत के आईटी क्षेत्र ने विश्व में अपनी पहचान गुणवत्ता, नवाचार और भरोसे के बल पर बनाई है। यह भरोसा तभी कायम रह सकता है जब उद्योग अपने कर्मचारियों को केवल “संसाधन” नहीं, बल्कि “साझेदार” समझे। अब समय आ गया है कि सरकार एक “प्रौद्योगिकी रोजगार नीति” बनाए जो नवाचार और सुरक्षा दोनों का संतुलन स्थापित करे।

तकनीकी क्रांतियाँ हमेशा समाज को दो विकल्प देती हैं — या तो उनके साथ विकसित हुआ जाए, या उनके नीचे दबा जाए। भारत के लिए यही समय है कि वह इस परिवर्तन को अपने अनुकूल बना ले। यदि देश इस चुनौती को दूरदृष्टि और नीतिगत समन्वय के साथ संभाल सका, तो यह छँटनी का दौर भविष्य के लिए एक नया अवसर बन सकता है।