बिहार की शराबबंदी: हकीकत की कठोर तस्वीर

Bihar's liquor ban: A harsh picture of reality

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

बिहार में शराबबंदी को लागू हुए 9वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन इसके दुष्परिणामों की भयावह गूंज अब हर गली, हर चौराहे और हर थाने तक सुनाई देने लगी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक समय समाज सुधार के उद्देश्य से जिस शराबबंदी कानून को ऐतिहासिक कदम बताया था, वही अब राज्य के लिए नासूर बनता जा रहा है। यह न केवल आम जनजीवन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि पुलिस प्रशासन से लेकर सत्ता तंत्र और राजनीतिक ताने-बाने तक में अव्यवस्था का प्रतीक बन गया है। हाल ही में कटिहार जिले में जो घटना घटी, जहाँ एक मुखिया और उसके समर्थकों ने पुलिस थाने पर धावा बोल दिया, थानेदार की वर्दी फाड़ दी और पुलिसकर्मियों के साथ मारपीट की, वह इस पूरे परिदृश्य का नग्न और वीभत्स रूप है।

शराबबंदी का मूल उद्देश्य एक आदर्श समाज की स्थापना करना था, जहाँ शराब की वजह से उत्पन्न होने वाली घरेलू हिंसा, दुर्घटनाएँ और सामाजिक अपराध समाप्त हो सकें। परन्तु वास्तविकता इससे ठीक उलट साबित हुई। शराबबंदी के कारण राज्य सरकार को न केवल भारी राजस्व घाटा उठाना पड़ा, बल्कि इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह रहा कि अवैध शराब का व्यापार पूरे राज्य में पनप गया। पहले जो व्यवसाय एक नियंत्रित और करयोग्य ढांचे के भीतर था, वह अब माफिया गिरोहों के हाथों में चला गया। गाँव से लेकर शहर तक, गली-कूचे से लेकर बड़े-बड़े होटलों तक, अवैध शराब की आपूर्ति का जाल फैल गया है। सरकार की मंशा चाहे जितनी पवित्र रही हो, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि प्रतिबंध ने समस्याओं को खत्म करने के बजाय उन्हें और जटिल कर दिया।

सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि शराब माफिया में अब नेताओं की सक्रिय संलिप्तता खुलकर सामने आने लगी है। सत्ता दलों के कई छोटे-बड़े नेताओं पर शराब तस्करी और संरक्षण का आरोप लगता रहा है। हालिया घटना में भी भाजपा के प्रखंड अध्यक्ष का नाम सामने आना दर्शाता है कि किस तरह राजनीति और अपराध का घालमेल हो चुका है। जो लोग जनता का नेतृत्व करने का दावा करते हैं, वही अब कानून को हाथ में लेकर राज्य की व्यवस्था को ध्वस्त कर रहे हैं। कटिहार की घटना ने यह भी उजागर कर दिया कि शराब माफिया अब इतना दुस्साहसी हो गया है कि पुलिस थानों पर भी हमले करने से नहीं हिचकता।पुलिसकर्मियों को पीटना, उनकी वर्दी फाड़ देना, यह केवल एक कानून व्यवस्था की विफलता नहीं है, बल्कि यह एक पूरे राज्य व्यवस्था के गिरते नैतिक स्तर का प्रतिबिंब है।

शराबबंदी के कारण पुलिस महकमे पर अतिरिक्त दबाव पड़ा है। पहले जहाँ पुलिस का ध्यान अपराध नियंत्रण और कानून व्यवस्था बनाए रखने पर होता था, अब उनका एक बड़ा हिस्सा अवैध शराब पकड़ने, छापेमारी करने और तस्करों को पकड़ने में लगा हुआ है। इस प्रक्रिया में न केवल पुलिसकर्मियों की संख्या अपर्याप्त साबित हो रही है, बल्कि उनकी जान पर भी संकट मंडराने लगा है। आए दिन पुलिस पर हमले, पीछा करने के दौरान दुर्घटनाएँ और बदले में माफियाओं द्वारा हमला किए जाने की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। थानों पर भीड़ का हमला केवल एक संकेत है कि राज्य में अब कानून का डर समाप्त हो चुका है और अपराधियों का मनोबल चरम पर है।

बिहार के आर्थिक परिदृश्य पर भी शराबबंदी ने गंभीर प्रभाव डाला है। एक समय राज्य सरकार को शराब बिक्री से करोड़ों रुपए का राजस्व प्राप्त होता था, जिसका उपयोग विभिन्न विकास कार्यों में होता था। शराबबंदी के बाद यह आय का स्रोत पूरी तरह बंद हो गया। सरकार ने नए करों के माध्यम से इस घाटे की भरपाई करने की कोशिश की, जिससे आम नागरिकों पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ गया। शराबबंदी के सामाजिक लाभ जितने बड़े बताए गए थे, आर्थिक घाटा उससे कहीं अधिक व्यापक साबित हुआ। कई रिपोर्ट्स ने भी यह दर्शाया है कि शराबबंदी से बिहार की जीडीपी में गिरावट आई है और राजस्व असंतुलन बढ़ा है।

एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि शराबबंदी ने नशाखोरी को खत्म नहीं किया, बल्कि उसे नए रूपों में जन्म दिया। जहाँ पहले लोग नियंत्रित रूप से ब्रांडेड शराब का सेवन करते थे, अब देसी शराब, जहरीली शराब और ड्रग्स का चलन बढ़ गया है। आए दिन जहरीली शराब पीने से मरने की खबरें सुर्खियों में रहती हैं। एक सामाजिक बुराई को खत्म करने की कोशिश में सरकार ने जाने-अनजाने एक और बड़ी सामाजिक त्रासदी को जन्म दे दिया है। खासतौर पर गरीब तबका, जो महंगी शराब नहीं खरीद सकता, वह सस्ती और खतरनाक देसी शराब की ओर आकर्षित हो गया है, जिससे जानलेवा परिणाम सामने आ रहे हैं।

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह शराबबंदी नीति एक विवादास्पद मुद्दा बन चुका है। विरोधी दल इसे विफल नीति करार देते रहे हैं। उनके अनुसार यह कानून केवल कागजों पर सफल दिखाया जा रहा है, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही है। बिहार के गांवों में अब भी चोरी-छिपे शराब बनती और बिकती है। कुछ पुलिसकर्मी भी इसमें शामिल पाए गए हैं, जिन्होंने अवैध शराब तस्करों से सुविधा शुल्क लेकर उन्हें संरक्षण प्रदान किया। इससे न केवल पुलिस बल की साख गिरी है, बल्कि न्याय व्यवस्था पर भी प्रश्नचिह्न लगे हैं।

समाज के लिए देखा जाए तो शराबबंदी ने सामाजिक ढांचे को भी प्रभावित किया है। पुरुषों द्वारा शराब पीकर उत्पन्न होने वाली घरेलू हिंसा पर भले ही कुछ हद तक अंकुश लगा हो, लेकिन महिलाओं को अब नए तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। पुरुष अब चोरी-छिपे शराब पीते हैं और परिवार के खर्च का पैसा शराब खरीदने में गँवा देते हैं। कई मामलों में महिलाओं ने शराबबंदी का समर्थन करते हुए अपने घरों को बचाने की कोशिश की है, परन्तु शराब की अवैध उपलब्धता ने उनके प्रयासों को निष्फल कर दिया है।

सवाल यह उठता है कि यदि शराबबंदी का उद्देश्य आदर्श समाज की स्थापना था, तो क्या उसे लागू करने का तरीका सही था? क्या बिना पर्याप्त वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराए, बिना सामाजिक जागरूकता फैलाए और बिना पर्याप्त पुलिस बल बढ़ाए शराबबंदी लागू करना एक विवेकपूर्ण निर्णय था? शायद नहीं। शराबबंदी जैसे गहरे सामाजिक सुधार को थोपने के बजाय धीरे-धीरे जन-जागरूकता के माध्यम से लागू किया जाता तो यह अधिक प्रभावी होता।

आज बिहार एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ शराबबंदी की विफलता राज्य की नाकामी का प्रतीक बन चुकी है। अपराध का ग्राफ बढ़ रहा है, पुलिस की साख गिर रही है, माफिया का तंत्र मजबूत हो रहा है, और आम जनता एक छद्म नैतिकता की सजा भुगत रही है। यदि इस स्थिति को जल्द ही नहीं सँभाला गया, तो यह राज्य को सामाजिक और आर्थिक दोनों स्तरों पर और भी गहरे संकट में धकेल देगा।

आवश्यकता इस बात की है कि सरकार एक बार पुनः शराबबंदी नीति का निष्पक्ष मूल्यांकन करे। यदि इसे जारी रखना है तो अवैध व्यापार पर सख्त नियंत्रण, माफिया नेटवर्क के खिलाफ कठोर कार्रवाई, पुलिस बल का सशक्तिकरण, वैकल्पिक रोजगार सृजन और व्यापक जन-जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। अन्यथा, एक आदर्शवादी नीति की जिद में पूरा राज्य एक ऐसे दलदल में फँस जाएगा, जहाँ से निकलना बेहद कठिन होगा।

शराबबंदी का उद्देश्य जितना पवित्र था, उसका क्रियान्वयन उतना ही त्रुटिपूर्ण साबित हुआ है। अब समय आ गया है कि सरकार जमीनी सच्चाई को स्वीकार करे और उन कदमों पर पुनर्विचार करे जो समाज और राज्य दोनों के हित में हों। अन्यथा, कटिहार जैसी घटनाएँ बार-बार घटती रहेंगी और बिहार एक आदर्श समाज का नहीं, बल्कि एक विफल प्रयोगशाला का उदाहरण बनकर रह जाएगा।