रमेश सर्राफ धमोरा
हर साल 07 नवम्बर को शिशुओं के स्वास्थ्य और कल्याण की सुरक्षा के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए शिशु सुरक्षा दिवस मनाया जाता है। यह दिवस प्रारंभिक स्वास्थ्य देखभाल, पोषण, टीकाकरण और माता-पिता की शिक्षा को बढ़ावा देकर शिशु मृत्यु दर को कम करने पर केंद्रित है। दुनिया भर में लाखों शिशु अभी भी संक्रमण, कुपोषण और चिकित्सा सुविधा की कमी जैसे रोकथाम योग्य कारणों से मर जाते हैं। यह दिवस समाज और सरकारों को यह याद दिलाता है कि वे हर बच्चे के जीवन में एक स्वस्थ शुरुआत के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए और अधिक ठोस कदम उठाएँ।
भारत और कई अन्य देशों में शिशु संरक्षण दिवस मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य से जुड़ी पहलों को बढ़ावा देने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है। जननी सुरक्षा योजना और पोषण अभियान जैसे कार्यक्रम शिशुओं की प्रारंभिक देखभाल में सुधार के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। यह दिवस माता-पिता को स्वस्थ विकास सुनिश्चित करने के लिए उचित आहार, स्वच्छता और टीकाकरण के नियमों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करता है। नवजात शिशुओं की उचित सुरक्षा ना हो पाने के कारण दुनिया में बहुत सारे बच्चे मौत के आगोश में चले जाते है। हालांकि सरकार ने इसे रोकने कि दिशा में सार्थक प्रयास किये है। जिनकी बदौलत देश में शिशु मृत्यु दर में कमी आयी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया के अनुसार देश 2030 तक सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहा है। भारत में नवजात बच्चों की मौतों के मामलों में सरकार के लिए बीते 77 साल बड़ी चुनौती भरे रहे हैं। हालांकि इसमें लगातार कमी आ रही है।
देश में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) और शिशु जन्म दर में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है। 2023 की नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) रिपोर्ट के मुताबिक देश में शिशु मृत्यु दर न्यूनतम 25 पर आ गई है। 2013 में 40 के मुकाबले इसमें 37.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं शिशु जन्म दर में पिछले 10 साल में 14 प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की गई है। 2013 में ये दर 21.4 प्रतिशत थी अभी ये 18.4 प्रतिशत है। आइएमआर एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य संकेतक है, जिसे एक वर्ष से कम आयु के पैदा होनेवाले प्रति 1,000 शिशुओं पर होनेवाली मौतों की संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है। यह संख्या जितनी कम होगी स्वास्थ्य सेवा की पहुंच उतनी ही बेहतर मानी जाएगी।
एसआरएस रिपोर्ट के मुताबिक 1971 में शिशु मृत्यु दर के मुकाबले 2023 में 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा बाल मृत्यु दर प्रति हजार पर 37 दर्ज की गई है। वहीं मणिपुर में ये आंकड़ा तीन का है। 21 राज्यों में केरल ही एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां शिशु मृत्यु दर इकाई में दर्ज की गई है। राज्य में ये आंकड़ा 5 का है और मणिपुर के बाद ये दूसरे नंबर पर है।
रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में ये आईएमआर 44 से घटकर 28 पर आ गई है। वहीं शहरी इलाकों में 27 से घटकर 18 पर आंकी गई है। इस तरह 10 साल में इस दर में 36 प्रतिशत और 33 प्रतिशत की गिरावट क्रमश: दर्ज की गई है। शिशु जन्म दर में भी गिरावट का रुख रिपोर्ट में शिशु जन्म दर में भी गिरावट का रुख दर्ज किया गया है। ये दर जनसंख्या वृद्धि का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। इसके तहत सालभर में प्रति हजार जनसंख्या पर जीवित शिशुओं की संख्या बताई जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पांच दशकों में जन्म दर में भारी गिरावट दर्ज की गई है। ये दर 1971 के 36.9 प्रतिशत से गिरकर 2023 में 18.4 प्रतिशत पर आ गई है। इस दौरान ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में शिशु जन्म दर करीब-करीब बराबर हो गई है। पिछले 10 वर्ष में जन्म दर 21.4 प्रतिशत से गिरकर 2023 में 18.4 प्रतिशत पर आ गई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दशक में जन्म दर में लगभग 14 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो 2013 में 21.4 से घटकर 2023 में 18.4 हो गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 11 प्रतिशत घटकर 22.9 से 20.3 हो गई है। वहीं शहरी क्षेत्रों में यह 17.3 से घटकर 14.9 हो गई है, जो लगभग 14 प्रतिशत है। बिहार में 2023 में सबसे ज्यादा जन्म दर 25.8 दर्ज की गई, जबकि अंडमान और निकोबार द्वीप समूह 10.1 के साथ सबसे कम पर था। रिपोर्ट में कहा गया है कि चंडीगढ़ में सबसे कम मृत्यु दर 4 और छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा 8.3 दर्ज की गई।
भारत ने पिछले सात दशकों में भले ही चिकित्सा क्षेत्र में प्रगति करते हुए शिशु मृत्यु दर पर काबू पाया है। लेकिन आज भी शिशुओं की मौत बड़ा सवाल है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम रिपोर्ट 2023 के अनुसार देश में शिशु मृत्यु दर में काफी सुधार देखा गया है। ये साल 2013 में हर 1000 जन्मे बच्चों में से 40 से घटकर अब 25 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गई है। यानी कि मृत्युदर में 37.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।
देश में स्वास्थ्य सम्बन्धी चीजों की कमी के कारण यह समस्या और बढ़ जाती है। सरकारों ने इस समस्या से निपटने के लिए बहुत सी योजनायें लागू की है। मगर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी तथा जागरूकता की कमी के कारण शिशुओं की मृत्यु दर में पूर्णतया कमी नहीं आई है। उचित पोषण के भाव में अब भी कई बच्चे दम तोड़ देते है। ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की कमी एवं प्रशिक्षित नर्सो व दाइयों की कमी के कारण भी विभिन्न प्रकार की समस्यायें उत्पन्न होती है।
2025-26 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का अनुमानित व्यय 99,859 करोड़ रुपए है। यह 2024-25 के संशोधित अनुमानों से 11% अधिक है। जो 2025-26 के लिए केंद्र सरकार के कुल बजट का लगभग 1.97 % है। यह राशि कम है इसे बढ़ाना होगा तभी भारत में नवजात शिशुओं की मौत पर रोक लगायी जा सकती है। शिशु सुरक्षा सिर्फ सरकार की ही नहीं वरन सभी की जिम्मेदारी है। सभी को एकजुट होकर इसके लिए आगे आना होगा तब जाकर हम अपने देश के शिशुओं की सुरक्षा के मामले में अन्य देशों की तुलना में ऊपरी पायदान पर आ पाएंगे।
शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शिशु जन्म के एक घंटे के भीतर मां का दूध पिलाना चाहिए। मा के गाढ़े पीले दूध में सर्वाधिक मात्रा में संक्रमण-रोधी तत्त्व मौजूद होता है। जिसे कोलोस्ट्रम कहा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में विटामिन ए के साथ 10 प्रतिशत तक प्रोटीन होता है। जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम होता है। 6 माह तक शिशुओं को केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए। जिसमें मां के दूध के अलावा कोई अन्य दूध, खाद्य पदार्थ,पेय पदार्थ और यहां तक पानी भी नहीं पिलाना चाहिए। इससे शिशु डायरिया, निमोनिया,अस्थमा एवं एलर्जी से बचा रहता है।
जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भारत के स्वास्थ्य खर्च को दुनिया के औसत और अन्य विकासशील और विकसित देशों से काफी नीचे छोड़ देता है। भारत का खर्च नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों से तो ज्यादा है। मगर यूनाइटेड किंगडम, न्यूज़ीलैंड, फ़िनलैंड, नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में जो अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं उनसे भारत बहुत पीछे है। इसी तरह, जापान, कनाडा, स्विट्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी कुल जीडीपी का कम से कम 10 प्रतिशत खर्च करते हैं। वहीं अमेरिका अपनी जीडीपी का करीब 16 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। बजट में स्वास्थ्य आवंटन में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और प्रौद्योगिकी में सुधार पर जोर देना चाहिए। स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।





