अन्न ब्रह्म है:अन्न की बर्बादी एक नैतिक अपराध है

Food is God: Wastage of food is a moral crime

सुनील कुमार महला

अन्न हमारे जीवन का आधार है। यह न केवल शरीर को ऊर्जा देता है, बल्कि जीवन को बनाए रखने का सबसे महत्वपूर्ण साधन भी है।सच तो यह है कि अन्न के बिना जीवन की कल्पना असंभव है। वास्तव में, यह श्रम, प्रकृति और ईश्वर की देन है। किसान दिन-रात परिश्रम करके धरती माता से अन्न उपजाता है, इसलिए अन्न का प्रत्येक दाना हमारे लिए अमूल्य है। इसलिए भोजन करते समय हमें कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए और अन्न की बर्बादी से बचना चाहिए। जो अन्न हम व्यर्थ फेंक देते हैं, जूठन में छोड़ देते हैं, वही किसी गरीब, जरूरतमंद की भूख मिटा सकता है। अतः अन्न का सम्मान करना न केवल नैतिक कर्तव्य है, बल्कि मानवता का भी परिचायक है। सच कहा गया है- ‘अन्न ही जीवन है, अन्न ही धन है।पाठक जानते होंगे कि हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में अन्न को ‘ब्रह्म’ कहा गया है- ‘अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्।’ अर्थात् अन्न स्वयं ईश्वर का रूप है। हमारी परंपराओं में भोजन को केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि जीवन का आधार और परमात्मा का प्रसाद माना गया है। यही कारण है कि भोजन शुरू करने से पहले ‘अन्नदाता सुखी भव’ कहकर किसान और प्रकृति के प्रति आभार प्रकट किया जाता है, किंतु आज जब हम आधुनिकता, उपभोक्तावाद और दिखावे की संस्कृति में उलझते जा रहे हैं, तब अन्न का यह दिव्य स्वरूप हमारे व्यवहार से ओझल होता जा रहा है।सच तो यह है कि आज के हमारे समाज में एक विचित्र-सा विरोधाभास दिखाई देता है।मसलन, एक ओर करोड़ों लोग दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, भूख और कुपोषण से जूझते हैं, वहीं दूसरी ओर शहरों के आलीशान समारोहों, शादी-ब्याह, बर्थडे पार्टी, कॉरपोरेट लंच और मंदिरों की सवामणी/प्रशाद/भंडारा तक में भोजन की भारी मात्रा में बर्बादी होती है। भोजन के पहाड़ जैसे ढेर कचरे में मिल जाते हैं, जबकि किसी भूखे बच्चे की आंखें उसी भोजन की तलाश में आसमान ताकती रह जाती हैं। यह दृश्य केवल सामाजिक असमानता का प्रतीक नहीं है, बल्कि हमारी भारी संवेदनहीनता का भी दर्पण है।

अन्न की बर्बादी का सामाजिक पहलू:-

हमारा देश भारत, विश्व का एक बड़ा कृषि प्रधान देश है और यहां की अधिकतर आबादी भी कृषि पर ही निर्भर है।हमारे यहां अन्न केवल भोजन नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति का अहम् और महत्वपूर्ण हिस्सा है। किसान अपनी मेहनत, पसीने और उम्मीदों से धरती से अन्न उपजाता है। उस एक-एक दाने में उसकी कई-कई रातों की नींद और वर्षों का अनुभव जुड़ा होता है। जब हम किसी आयोजन में बिना सोचे-समझे प्लेटों में खाना जूठन के रूप में छोड़ देते हैं या थालियों में परोसकर फेंक देते हैं, तो यह केवल भोजन की नहीं, बल्कि किसान, मजदूर के परिश्रम की भी बर्बादी है। यह अन्न/भोजन बनाने वाले का भी एक प्रकार से अपमान है, क्यों कि भोजन बनाने में भी श्रम लगता है। वास्तव में, यह एक प्रकार का अन्न का बड़ा अपमान ही है।

अन्न की बर्बादी और ग्लोबल हंगर इंडेक्स:-

विभिन्न सर्वे बताते हैं कि भारत में हर साल लगभग 6.7 करोड़ टन भोजन बर्बाद होता है, जिसकी कीमत अरबों रुपये में है। यह मात्रा इतनी है कि इससे करोड़ों लोगों का पेट भरा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में भारत की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। पाठकों को बताता चलूं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2025 के अनुसार भारत की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। रिपोर्ट में भारत को 123 देशों में से 102वां स्थान मिला है और इसका कुल स्कोर 25.8 है, जिसे ‘गंभीर (सीरियस)’ श्रेणी में रखा गया है। यह रैंकिंग इस बात की ओर संकेत करती है कि देश में भूख और कुपोषण की समस्या अब भी व्यापक है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 12 प्रतिशत आबादी अब भी पर्याप्त भोजन नहीं पा रही है। पाँच वर्ष से कम उम्र के 18.7 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (ऐक्यूट अंडर न्यूट्रीशन) के शिकार हैं, जबकि 32.9 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग(क्रोनिक अंडर न्यूट्रीशन) से प्रभावित हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि खाद्य सुरक्षा और पोषण के क्षेत्र में भारत को अभी भी एक लंबा सफर तय करना बाकी है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे पोषण अभियान और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बावजूद, जमीनी स्तर पर इनके प्रभाव को और अधिक सुदृढ़ व मजबूत करने की आवश्यकता है ताकि ‘शून्य भूख’ का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। बहरहाल, यहां यक्ष प्रश्न यह उठता है कि क्या यह आंकड़े हमारे सामने एक गहरी नैतिक चुनौती प्रस्तुत नहीं करते हैं ? आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं? क्या यह उचित है कि एक ओर थालियां सजी हों और दूसरी ओर पेट के पेट खाली या भूखे रह जाएं ? यह बहुत दुखद है कि आज भी बहुत से लोगों को रात को पेट के गांठ लगाकर (यानी कि भूखा) सोना पड़ता है।

अन्न बर्बादी के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव:-

अन्न की बर्बादी केवल नैतिक या सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि पर्यावरणीय संकट भी है। जब भोजन कचरे में या नालियों में जाता है, तो उससे मीथेन गैस निकलती है, जो कार्बन डाइऑक्साइड से कई गुना अधिक घातक ग्रीनहाउस गैस है। इतना ही नहीं, भोजन उत्पादन में जल, भूमि और ऊर्जा का भारी उपयोग होता है। एक किलोग्राम चावल उगाने में लगभग 2500 लीटर पानी लगता है। जब वह भोजन बर्बाद होता है, तो उसके साथ पानी, ऊर्जा और भूमि सब के सब व्यर्थ हो जाते हैं।संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर जितना भोजन बर्बाद होता है, यदि वह एक देश होता, तो वह अमेरिका और चीन के बाद तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश होता। यानी अन्न की बर्बादी जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण का भी बड़ा कारण है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम भोजन के प्रति सम्मान का भाव जाग्रत करें।

विभिन्न सामाजिक आयोजनों में बर्बादी का स्वरूप:-

कहना ग़लत नहीं होगा कि आज के समय में शादियों, पार्टी, जन्मदिन या विभिन्न धार्मिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी सबसे ज्यादा देखी जाती है। लोग दिखावे के लिए अनेक प्रकार के व्यंजन बनवाते हैं, परंतु अधिकांश व्यंजन अधूरे खाए या छुए बिना ही कूड़ेदान में चले जाते हैं। यह बहुत ही दुखद है कि ‘उतना ही लीजिए थाली में, कि व्यर्थ न जाए नाली में ‘ वाला भाव/संस्कार आज लगभग समाप्त हो गया है।यह भी एक तथ्य है कि कई बार आयोजक अतिथियों की संख्या से अधिक भोजन बनवाते हैं ताकि ‘कमी’ का ताना न सुनना पड़े। वास्तव में, हमें यह मानसिकता बदलनी होगी। सम्मान ‘बचाव’ में है, ‘बर्बादी’ में नहीं। हमें यह याद रखना चाहिए कि संसाधन सीमित हैं और उनका विवेकपूर्ण उपयोग ही सच्ची सम्पन्नता है।

भोजन की बर्बादी के नैतिक आयाम:-

भोजन की बर्बादी केवल आर्थिक हानि नहीं है, बल्कि नैतिक पतन का संकेत है। अन्न का अनादर उस किसान, मजदूर का सीधा अपमान है, जिसने भूख-प्यास और धूप, बारिश, सर्दी गर्मी झेलकर उसे विषम परिस्थितियों में उगाया है। यह मजदूरों/मेहनतकश लोगों का भी अनादर है, जिन्होंने खेतों से अन्न घर तक पहुंचाया और रसोइयों का भी जो इसे स्वादिष्ट भोजन में परिवर्तित करते हैं।हमारे शास्त्रों में कहा गया है-‘अन्नं न निन्द्यात् तद्व्रतम्।’ यानी कि अन्न की निंदा न करें, यह व्रत है, क्योंकि अन्न ही जीवन का आधार है।इस दृष्टि से देखा जाए तो अन्न की बर्बादी केवल असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि एक प्रकार का पाप है। जब कोई भूखा सोता है और हम अन्न फेंकते हैं, तो यह हमारी आत्मा की परीक्षा है।

हम क्या कर सकते हैं ?

अन्न/भोजन की बर्बादी रोकने के लिए हम बहुत कुछ कर सकते हैं। मसलन, हमें यह चाहिए कि हमें जितने की आवश्यकता है,हम उतना ही भोजन लें।भोजन करते समय अपनी भूख के अनुसार ही परोसें। यह न केवल अन्न की रक्षा करेगा बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। विभिन्न आयोजनों में हमें यह चाहिए कि हम योजना बनाएं। मसलन, आयोजक गण को यह चाहिए कि वे अनुमानित संख्या के अनुसार भोजन तैयार करवाएं और बचा हुआ भोजन फूड बैंक या किसी एनजीओ को, गरीबों को या जरूरतमंदों दें। ‘ज़ीरो वेस्ट'(शून्य बर्बादी) संस्कृति को अपनाया जाना चाहिए। होटल, मंदिर, स्कूल और सामुदायिक रसोई में शेष भोजन को जरूरतमंदों तक पहुंचाने की प्रणाली बनाई जानी चाहिए। भोजन की बर्बादी रोकने के लिए बच्चों में संस्कार जगाए जाने बहुत ही महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। विद्यालयों और परिवारों में बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि अन्न का एक दाना भी व्यर्थ न जाए। इसके अलावा, नीतिगत स्तर पर भी प्रयास जरूरी हैं। सरकारें और स्थानीय प्रशासन ऐसे प्रयास कर सकतीं हैं, जिनसे आयोजन स्थलों से बचे भोजन का पुनर्वितरण आसान हो।

अन्न के प्रति संवेदनशीलता का पुनर्जागरण:-

सबसे बड़ी बात यह है कि हमें यह समझना होगा कि ‘अन्न’ केवल पदार्थ नहीं, बल्कि संवेदना है। वह धरती की कोख से जन्मा, वर्षा से पला और मानव के श्रम से विकसित हुआ है। हर थाली में किसान का परिश्रम, प्रकृति की कृपा और ईश्वर की दया निहित होती है। जब हम भोजन करते हैं, तो हमें उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए।

अंत में यही कहूंगा कि अन्न की बर्बादी किसी एक व्यक्ति का नहीं, पूरे समाज का नुकसान है। यह हमारी संस्कृति, नैतिकता, पर्यावरण और मानवता-चारों के लिए चुनौती है। इसलिए हर व्यक्ति को इस दिशा में जागरूक होना होगा। भोजन को देवता मानने वाली संस्कृति में भोजन की बर्बादी के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। अन्न को सम्मान देना हमारा प्रथम व नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। तो आइए ! हम सभी यह संकल्प लें कि अब से हम एक भी निवाला व्यर्थ नहीं जाने देंगे। क्योंकि-‘जो अन्न का सम्मान करता है, वही जीवन का सम्मान करता है।’