सिर्फ़ जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते, साहिर लुधियानवी की नज़्म परछाईयां का शानदार मंचन

रावेल पुष्प

कोलकाता फ़िल्म फेस्टिवल 2022 में प्रदर्शित देसी- विदेशी फिल्मों के बीच फिल्मकार हरजीत सिंह की एक अंग्रेजी डॉक्यूमेंट्री देखने को मिली थी- इमरोज़: ए वाक डाउन मेमोरी लेन, जिसमें पंजाबी की अप्रतिम कवियित्री/ लेखिका अमृता प्रीतम के प्रति इमरोज के बेइंतेहा प्रेम को जहां बड़े खूबसूरत तरीके से पेश किया गया था, वहीं अमृता का साहिर लुधियानवी के प्रति वैसे ही प्रेम की एक झलक देखने को मिली थी और अब कोलकाता के वरिष्ठ रंगकर्मी और निदेशक एस.एम.राशिद की पदातिक थियेटर में पेशकश देखने को मिली जिसमें अमृता के साहिर के प्रति नैसर्गिक प्रेम को साहिर लुधियानवी की नज़्म परछाईयां को केंद्र में रखकर बड़ी खूबसूरती से पेश किया गया था। उनकी नज़्म की सतरें फ़िज़ां में कुछ यूं उभरती हैं-

तुम आ रही हो जमाने की आंख से बचकर नजर झुकाए हुए और बदन चुराए हुए

खुद अपने कदमों की आहट से झेंपती-डरती खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ़ खाए हुए

तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं…

उसी तसव्वुरात या ख़्यालों में उभरती हैं कुछ घटनाएं,कुछ लम्हात, जिनमें शुरुआती घटना थी जब साहिर लुधियानवी लाहौर में अमृता प्रीतम के घर आते हैं और वहां वो ख़ामोशी से बैठ कर सिगरेट सुलगाते हैं और आधा पीकर वहीं पड़ी ऐश ट्रे में डाल देते हैं।कुछ लम्हात में फिर दूसरी सिगरेट और उसी तरह बाकी हिस्से को ऐशट्रे में डाल देते हैं। उनके जाने के बाद अमृता जले सिगरेट के टुकड़ों को उठाकर अपनी उंगलियों में दबा लेती है और साहिर का स्पर्श महसूस करती है फिर उसे सुलगा भी लेती है,यही नहीं एक- दो कश भी लगा लेती है, लेकिन कहीं भी खुले तौर पर प्रेम का इजहार नहीं होता। अमृता दरअसल सबसे पहले उनकी एक नज़्म सुनती है और फिर उनसे मुतासिर (प्रभावित) हो जाती हैं और ये कहा जाता है कि जब भारत-पाकिस्तान तक्सीम हुआ तो वो फ्रेम की हुई उस नज़्म को भी अपने साथ हिंदुस्तान ले आती हैं।साहिर भी हिन्दुस्तान ही चले आते हैं और अपनी नज़्मों की बदौलत बम्बई में बस जाते हैं और फिल्मी दुनिया में अपनी तकदीर आजमाते हैं। साहिर की ख़ामोश मुहब्बत उनसे कई अमर गीत लिखवाती है-

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में

गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी

ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है

तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

मगर ये हो न सका …..

या फिर –

वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

उसे एक खू़बसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा चलो एक बार फिर से

अजनबी बन जाएं हम दोनों

साहिर मन ही मन अमृता को चाहते तो थे पर इतने अंतर्मुखी थे कि कभी खुलकर इज़हार नहीं किया, तभी तो अमृता उलाहने भरे शब्दों में कहती हैं –

साहिर, ख़ामोश मैं नहीं ख़ामोश तुम ही थे। तुम्हारी ख़ामोशी मुझे एक जहरीली नागिन की तरह डसती रही …

इसी दौरान जब ये समाचार आया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे, अमृता प्रीतम की आंखों में आंसू नहीं बल्कि भावावेश में उनकी जुबान से निकलता है-

साहिर,आज तुमने सारी दुनिया से विदा ले ली है, लेकिन यहां मातम नहीं होगा। यहां एक इंसानियत का खात्मा हुआ है,जिसने कई जिंदगियों को जिया है। तुम मातम के नहीं, अकीदत के हकदार हो। लेकिन जाते-जाते ये बात भी सुनते चलो कि बारी तो मेरी थी पर चले गए तुम! एशियन राइटर्स एसोसिएशन की कॉन्फ्रेंस में तुमने मेरे नाम का बैज अपने कोट पर लगा लिया था और अपने नाम का मेरे कोट पर। यही हुआ अदला बदली का नतीजा-

मौत ने उसी मेरे नाम को पढ़ लिया और तुम्हें उठा कर ले गई अब मैं रह गई यहां तन्हा-तन्हा…

और फिर मौत को संबोधित कर कहती है – ऐ मौत, ना कर बुलंद अपने वहशी कहकहे अपनी जीत के। ये मेरा दावा है और मैं करती हूं ये ऐलान- ऐ मलकुल मौत, आज जीत कर भी हार है तेरी, देख मेरा अजीज मेरी मोहब्बत मेरी यादों के झरोखों में है । उसका वजूद मेरे लहू की हर बूंद में है। तुमने सिर्फ उसका जिस्म छीना है, जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती। सिर्फ़ जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते। धड़कनें रुक जाने से अरमान नहीं मर जाते।

एस.एम.राशिद के निर्देशन और युवा साजन के सह-निर्देशन में साहिर के रूप में शब्बीर अहमद और अमृता के रुप में अतीबा बातुल ने साहिर लुधियानवी की नज़्म परछाईयां को केन्द्र में रखकर उनके नैसर्गिक प्रेम को न सिर्फ बख़ूबी अभिव्यक्ति दी है बल्कि उसे पुरअसर ऊंचाईयां भी दी हैं।