हिन्दी भाषियों को बंगाल की सिविल सेवा परीक्षा से वंचित करना सरासर अन्याय

रावेल पुष्प

कोलकाता हिंदी पत्रकारिता की जन्मस्थली रहा है, ये बात तो सर्वविदित है कि यहीं से सबसे पहले सप्ताहिक हिंदी अखबार उदन्त मार्तंड 30 मई 1826 को प्रकाशित हुआ था और फिर हिंदी का दैनिक पत्र समाचार भी यहीं से 8 जून 1854 को निकला। यहां से न सिर्फ हिंदी बल्कि उर्दू, फ़ारसी, पंजाबी, अंग्रेजी तथा बांग्ला के अखबार भी सबसे पहले यहीं से प्रकाशित हुए। भाषाई प्रेस के जनक भी तो यहीं से बांग्ला भाषी राजा राममोहन राय ही थे। अब अगर शिक्षा की बात की जाय तो भी हिंदी में एम ए की सबसे पहले पढ़ाई कोलकाता विश्वविद्यालय में तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने शुरू करवाई थी और सबसे मजे की बात ये रही कि सबसे पहले हिंदी में एम ए करने वाला छात्र कोई हिंदी भाषी नहीं बल्कि बांग्ला भाषी नलिनी मोहन सान्याल थे। इसके अलावा हिंदी साहित्य की श्री वृद्धि में भी कोलकाता का अच्छा खासा योगदान रहा है। देश की राष्ट्रभाषा हिंदी बनाने के पीछे भी बंगाल के कई मनीषियों का हाथ रहा है। हिन्दी के प्रति अधिकतर काल खण्ड में बांग्ला भाषी उदार ही रहे हैं।

बंगाल में वर्तमान तृणमूल की सरकार आने के बाद 30 सितंबर 2011 को एक अधिसूचना जारी कर 6 भाषाओं को अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा दिया गया और ये वचनबद्धता भी कि उन भाषा भाषियों के हितों की रक्षा की जाएगी। उन भाषाओं में शामिल थीं- हिंदी, उर्दू, नेपाली, संथाली, उड़िया तथा पंजाबी। इसके बाद बंगाल की सिविल सेवा की परीक्षा में शामिल होने वाली भाषाओं में थीं- बांग्ला, हिंदी, उर्दू, नेपाली तथा संथाली, जिनमें भाषा का विकल्प मौजूद था। लेकिन अब 15 मार्च 2023 को बंगाल सरकार ने फिर एक अधिसूचना जारी कर इन विकल्पों में से सिर्फ बांग्ला और नेपाली को रखकर बाकी भाषाओं को हटा दिया यानी हिंदी उर्दू और संथाली, जिसका अर्थ ये हुआ कि अब इन माध्यमों से पढ़ने वाले विद्यार्थी यहां की सिविल सेवा की परीक्षा में नहीं बैठ पाएंगे क्योंकि इन भाषाओं के माध्यम में पढ़ने वाले स्कूलों में बांग्ला की पढ़ाई होती ही नहीं। इस तरह की सूचना जारी करने की सार्थकता तब होती, जब पांचवी से लेकर माध्यमिक स्तर तक बांग्ला भी एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता । इस तरह की अधिसूचना से सबसे अधिक प्रभावित हिंदी भाषी छात्र ही होंगे और वैसे बांग्ला भाषी मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे भी,जो राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में शामिल होना चाहते हैं और बंगाल बोर्ड से इतर सीबीएसई तथा आईसीएसई बोर्ड चुनते हैं जहां एक विषय स्वाभाविक रूप से हिंदी होता ही है। इस अधिसूचना के बाद हिंदी भाषियों तथा अन्य अल्पसंख्यकों में भी काफ़ी रोष है। इसके विरुद्ध मुखर होने के लिए एक संस्था- वेस्ट बंगाल लिंग्विस्टिक माइनॉरिटी एसोसिएशन का गठन हुआ है जिसके अध्यक्ष श्री जितेंद्र तिवारी हैं जो आसनसोल नगर निगम के पूर्व मेयर भी हैं और वर्तमान में भाजपा नेता हैं। गौरतलब है कि उन दिनों हिंदी के विकास के लिए उन्होंने आसनसोल में हिंदी भवन बनवाया था,जो आज भी अपने स्तर पर सक्रिय है और लोगों की जुबान पर इसकी प्रशंसा असंदिग्ध है।

श्री जीतेन्द्र तिवारी का ये मानना है कि बंगाल में रहने वाले सभी बांग्ला भाषा से प्रेम करते हैं। उनका कहना है कि हर मान्यता प्राप्त स्कूलों में एक विषय के रूप में माध्यमिक तक बांग्ला की पढ़ाई हो ताकि वे समृद्ध बांग्ला साहित्य से भी मौलिक रूप में परिचित हो सकें।

उनकी इस मुहिम के साथ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद सुकांत मजूमदार तथा विधानसभा में विपक्ष के नेता और विधायक श्री शुभेंदु अधिकारी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ न सिर्फ जुड़ चुके हैं बल्कि उन्होंने राज्य में एकस्तर पर कई प्रमुख जगहों पर लोगों को जागरूक करने के लिए सेमिनार आयोजित करने शुरू कर दिए हैं और हर जगह हजारों की संख्या में लोग इस मुहिम का हिस्सा बन रहे हैं । इन नेताओं का ये विचार भी स्वागत योग्य है कि जब तक स्कूली स्तर पर बांग्ला की पढ़ाई नहीं होती और सारे विद्यार्थी दसवीं पास नहीं कर लेते इस अधिसूचना को स्थगित कर ठंढे बस्ते में डाल दिया जाये।

इस अधिसूचना के विरोध में जिस तरह बंगाल के हिंदी लेखकों, संस्थाओं तथा शिक्षा जगत से जुड़े अधिकतर शिक्षकों ने चुप्पी साध रखी है वो समझ से परे है। इस प्रवृत्ति को क्या हमारी भावी पीढ़ी माफ़ कर पायेगी,पता नहीं –

इस चुनावी मौसम में इस तरह की अधिसूचना तृणमूल कांग्रेस को भारी पड़ सकती है और भाजपा के लिए बैठे-बिठाए यह गरमा-गरम मुद्दा कुछ बड़ा कर गुजरने का कारण भी बन सकता है। वैसे राजनीतिक लाभ-हानि का विषय अलग है लेकिन खासकर हिंदी भाषियों को बंगाल की सिविल सेवा की परीक्षा से वंचित करना सरासर अन्याय तो है ही।